यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 64
ऋषिः - गौरीवितिर्ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
2
जनि॑ष्ठाऽउ॒ग्रः सह॑से तु॒राय॑ म॒न्द्रऽओजि॑ष्ठो बहु॒लाभि॑मानः।अव॑र्द्ध॒न्निन्द्रं॑ म॒रुत॑श्चि॒दत्र॑ मा॒ता यद्वी॒रं द॒धन॒द्धनि॑ष्ठा॥६४॥
स्वर सहित पद पाठजनि॑ष्ठाः। उ॒ग्रः। सह॑से। तु॒राय॑। म॒न्द्रः। ओजि॑ष्ठः। ब॒हु॒लाभि॑मान॒ इति॑ ब॒हु॒लऽअ॑भिमानः ॥ अव॑र्द्धन्। इन्द्र॑म्। म॒रुतः॑। चि॒त्। अत्र॑। मा॒ता। यत्। वी॒रम्। द॒धन॑त्। धनि॑ष्ठा ॥६४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जनिष्ठाऽउग्रः सहसे तुराय मन्द्रऽओजिष्ठो बहुलाभिमानः । अवर्धन्निन्द्रम्मरुतश्चिदत्र माता यद्वीरन्दधनद्धनिष्ठा ॥
स्वर रहित पद पाठ
जनिष्ठाः। उग्रः। सहसे। तुराय। मन्द्रः। ओजिष्ठः। बहुलाभिमान इति बहुलऽअभिमानः॥ अवर्द्धन्। इन्द्रम्। मरुतः। चित्। अत्र। माता। यत्। वीरम्। दधनत्। धनिष्ठा॥६४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे राजन्! धनिष्ठा माता यद्वीरं दधनदिन्द्रं मरुतश्चिदिव सभ्या यं त्वामवर्धयन्त्स त्वमत्र सहसे तुराय उग्रो मन्द्र ओजिष्ठो बहुलाभिमानः सन् सुखं जनिष्ठाः॥६४॥
पदार्थः
(जनिष्ठाः) जनयेः। अत्र लुङ्यडभावः। (उग्रः) तेजस्विस्वभावः (सहसे) बलाय (तुराय) शीघ्रत्वाय (मन्द्रः) स्तुत आनन्दप्रदः (ओजिष्ठः) अतिशयेन ओजस्वी (बहुलाभिमानः) बहुलो बहुविधोऽभिमानो यस्य सः (अवर्द्धन्) (इन्द्रम्) सूर्य्यम् (मरुतः) वायवः (चित्) इव (अत्र) अस्मिन् राज्यपालनव्यवहारे (माता) जननी (यत्) यम् (वीरम्) शौर्यादिगुणयुक्तं पुत्रम् (दधनत्) अपोषयत्। अनकारागमश्छान्दसः। (धनिष्ठा) अतिशयेन धनिनी॥६४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यः स्वयं ब्रह्मचर्य्येण शरीरात्मबलयुक्तो विद्वान् स दुष्टान् प्रत्युग्रः कठिनस्वभावः श्रेष्ठे सोऽन्यस्वभावः सन् बहुसुसभ्यावृतो धर्मात्मा भूत्वा न्यायविनयाभ्यां राज्य पालयेत्, स सर्वतोऽभिवर्द्धेत॥६४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे राजन्! (धनिष्ठा) अत्यन्त धनवती (माता) (यत्) जिस (वीरम्) शूरतादि गुणयुक्त आप पुत्र को (दधनत्) पुष्ट करती रही और (चित्) जैसे (इन्द्रम्) सूर्य्य को (मरुतः) वायु बढ़ावे, वैसे सभासद् लोग जिस आपको (अवर्द्धन्) योग्यतादि से बढ़ावें सो आप (अत्र) इस राज्यपालनरूप व्यवहार में (सहसे) बल और (तुराय) शीघ्रता के लिये (उग्रः) तेजस्वि स्वभाववाले (मन्द्रः) स्तुति प्रशंसा को प्राप्त आनन्ददाता (ओजिष्ठः) अतिशय पराक्रमी और (बहुलाभिमानः) अनेक प्रकार के पदार्थों के अभिमानवाले हुए सुख को (जनिष्ठाः) उत्पन्न कीजिये॥६४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो स्वयं ब्रह्मचर्य से शरीरात्मबलयुक्त विद्वान् हुआ दुष्टों के प्रति कठिन स्वभाववाला, श्रेष्ठ के विषय (में) भिन्न स्वभाववाला होता हुआ बहुत उत्तम सभ्यों से युक्त धर्मात्मा हुआ न्याय और विनय से राज्य की रक्षा करे, वह सब ओर से बढ़े॥६४॥
विषय
विजयी पुरुषों के लक्षण । इन्द्र का स्वरूप ।
भावार्थ
हे राजन् ! तू (मन्द्रः) समस्त प्रजा को हर्षित करने हारा, (भजिष्ठः) सबसे अधिक पराक्रमी (बहुलाभिमानी ) बहुत अधिक आत्माभिमान से युक्त, मनस्वी पुरुष ही (तुराय ) अपने शीघ्रकारी गुण, चुस्ती, भालस्यरहितता, कार्यदक्षता, शत्रुनाशक (सहसे) और शत्रु पराजय करने वाले बल के कारण ही (उग्रः) उग्र, प्रचण्ड, शत्रुओं के लिये भयंकर ( जनिष्टाः ) हो । ( मरुतः ) वायुओं के समान प्रचण्ड, शत्रुरूप वृक्षों को मूल फेंकने वाले शूरवीर उस ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान्, शत्रुनाशक पुरुष को सूर्य को वायुओं के समान ( अवर्धन् ) बढ़ावें और (अत्र) ऐसे वीरता और राज्यपालन के कार्य के लिये ही (यत्) जब ( वीरम् ) वीर पुत्र को ( दधत् ) धारण करती हूँ, तभी वह (धनिष्ठा ) धन्य, उत्तम गर्भ धारक, सौभाग्यवती है । अथवा, (माता) पृथिवी जब ऐसे वीर को धारण करती है तो वह भी (धनिष्ठा) ऐश्वर्यवती, धन्य, वसुन्धरा, है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गौरिवीतिर्ऋषिः । इन्द्रो देवता । त्रिष्टुप् धैवतः ॥
विषय
माता का वीर पुत्र
पदार्थ
१. (यत्) = जब (वीरम्) = वीर सन्तान को (धनिष्ठा) = उत्तम धनोंवाली, अर्थात् स्वास्थ्य, नैर्मल्य व ज्ञानदीप्ति रूप सभी धनोंवाली अथवा [धन to sound] सदा उत्तम शब्दों को बच्चे के कान में डालनेवाली, बच्चे का निर्माण करनेवाली माँ (दधनत्) = बच्चे का पालनपोषण करती है तब वह (उग्रः) = उदात्त (जनिष्ठाः) = बनता है। माता [क] स्वस्थ हो, पवित्र मनवाली हो, ज्ञानकी दीप्तिवाली हो [ख] वह बालक के कान में सदा ('वेदोऽसि')= तू ज्ञानी है, ('अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमस्तृतं भव') = तू शरीर को पत्थर - जैसा मज़बूत बना, मन की वासनाओं के लिए कुल्हाड़े के समान बन और अविच्छिन्न ज्ञान की ज्योतिवाला हो' इस प्रकार के उत्तम शब्दों को ही डालनेवाली हो, [ग] सन्तान को सदा 'वीर' शब्द से स्मरण करती हुई उसमें वीरता का सञ्चार करे, [घ] बच्चे का संकल्पपूर्वक निर्माण करें, तभी बच्चा मन्त्र के शब्दों के अनुसार निम्न गुणों के विकासवाला बन पाएगा। २. उग्रः उदात्त, उत्कृष्ट स्वभाववाला, जिसकी मनोवृत्ति में कमीनापन नहीं है। सहसे यह सहस् के लिए जनिष्ठाः - होता है। सहस् में ही शक्ति का पर्यवसान है। लोग अपमान करते हैं, परन्तु यह तैश में नहीं आता । तुराय यह शत्रुओं के संहार के लिए होता है। काम-क्रोध आदि के वशीभूत नहीं होता। (मन्द्रः) = यह सदा आनन्दमय, प्रसन्न मनवाला रहता है। मन: प्रसाद इसकी सर्वोत्कृष्ट सम्पत्ति होती है। (ओजिष्ठः) = यह अत्यन्त ओजस्वी होता है। ओज वह शक्ति है जो इसके सर्वांगीण विकास का कारण होती है। (बहुलाभिमानः) = यह अत्यधिक उत्कर्ष की भावनावाला होता है। अपनी महिमा का आदर करता है। निराशावाद की बातें नहीं करता रहता। हिम्मत नहीं हार जाता। सदा उत्साहमय मनवाला होता है ('अहमिन्द्रः, न परजिग्ये') = मैं इन्द्र हूँ, पराजित थोड़े ही होता हूँ?' यह इसकी भावना होती है। ४. (अत्र) = इस जीवन में (चित्) = निश्चय से (मरुतः) = प्राण (इन्द्रम्) = इस इन्द्रियों के अधिष्ठाता को (अवर्धन्) = वृद्धि को प्राप्त कराते हैं, अर्थात् यह प्राणसाधना करता है और प्राणसंयम से सब प्रकार की उन्नति करता हुआ यह आगे ही आगे बढ़ता है । ५. इस सबके लिए वह (गौरिवीति) = सात्त्विक भोजनवाला होता है। सात्त्विक भोजन से इसका अन्तःकरण शुद्ध होता है। सहनशील, वासनाओं का
भावार्थ
भावार्थ- दीप्त ज्ञानवाली माता बच्चे को सदा उदात्त, विजेता, आनन्दमय, ओजस्वी, उत्साह - सम्पन्न व प्राणसाधना का अभ्यासी बनाए। यही वृद्धि का मार्ग है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो स्वः ब्रह्मचर्य पालन करून शरीर व आत्मा बलवान करून विद्वान बनतो आणि दुष्टांबरोबर उग्र व श्रेष्ठ लोकांबरोबर कोमलपणाने वागतो व सभ्य, धर्मात्मा, न्यायी बनून नम्रपणे राज्याचे रक्षण करतो त्याची सर्व प्रकारे उन्नती होते.
विषय
पुन्हा त्याच विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे राजा (धनिष्ठा) अत्यंत धनवंती ज्या (माता) मातेने (यह) ज्या आपल्यासारख्या (वीरम्) शूरवीर पुत्राला (दधन्त्) जन्म दिला आणि आपले पालन-पोषण केले आणि (चित्त) जसे (इन्द्रम्) सूर्याला (मसतः) वायू वाढवितो, तसे ज्या आपणाला सभासद (योग्यता, ज्ञान, नैपुण्य आदी देऊन) (अवर्धन्) चाढवतात, (ते आपण अवश्यमेव श्रेष्ठव प्रशंसनीय आहात) आपण (अत्र) या राज्यपालनरूप कार्यात (सहसे) बलप्राप्तीसाठी आणि (तुराय) त्वरित कार्यसिद्धीसाठी (उग्रः) तेजस्वी स्वभाव धारण करून ( मन्द्रः) अधिकाधिक प्रशंसा प्राप्त करा (असे आम्ही नागरिक चिंतितो) आपण सर्वांना आनंदित करीत (ओजिष्ठाः) अत्यंत पराक्रमी व्हा आणि (बहुलाभिमानः) अनेक प्रकारचे पदार्थ बाळगणारे असा अभिमान देणारे सुख (जनिष्ठाः) उत्पन्न करा. ॥64॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. जो स्वतः ब्रह्मचर्याद्वारे शारीरिक आत्मिक शक्ती प्राप्त केलेला विद्वान असतो, तो दुष्टांना कठोर दंड देणारा, श्रेष्ठांना सहाय्य देणारा असतो. अनेक सभ्य सभासद त्याचे सहायक असतात त्या धर्मात्मा राजाने न्याय आणि विनयाने राज्याचे रक्षण करावे आणि सर्वप्रकारे उत्कर्ष साधावा. ॥64॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O King, thy most wealthy mother has been nourishing thee a hero; just as air strengthens the Sun, so learned persons strengthen thee. Create pleasure, being mighty for victorious valour, exulting, strongest, full of pride and courage.
Meaning
Indra, mighty ruling power, awfully strong, whom the noblest mother bore and shaped as a great hero, highly adorable for instant action and splendid victories, most lustrous and pride of many whom the most dynamic leaders and scholars admire and exalt here in the land, rise and create joy and prosperity all round.
Translation
O aspirant, you are born aggressive for quick victorious valour, praiseworthy, mightiest and full of pride. Men strengthen you here, when the affluent mother bears the son in her womb. (1)
Notes
Ugrah, fierce. Sahase, for strength. Turaya, for quick ness; agility. Mandraḥ, स्तुत्य:, praiseworthy. Bahulabhimanaḥ, very proud. Dhanişthä, धन्यतमा, most blessed. Dadhanat, गर्भे अधारयत् , conceived; also, gave birth to; bears in her womb.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে রাজন্! (ধনিষ্ঠা) অত্যন্ত ধনবতী (মাতা) (য়ৎ) যে (বীরম্) শূরতাদি গুণযুক্ত আপনি পুত্রকে (দধনৎ) পুষ্ট করিয়াছিলেন এবং (চিৎ) যেমন (ইন্দ্রম্) সূর্য্যকে (মরুতা) বায়ু বৃদ্ধি করিবে সেইরূপ সভাসদ্ লোকেরা আপনার (অবর্ধন্) যোগ্যতাদি পূর্বক বৃদ্ধি করিবেন । সুতরাং আপনি (অত্র) এই রাজ্যপালনরূপ ব্যবহারে (সহসে) শক্তি ও (তুরায়) শীঘ্রতার জন্য (উগ্রঃ) তেজস্বী স্বভাবযুক্ত (মন্দ্রঃ) স্তুতি, প্রশংসা প্রাপ্ত আনন্দদাতা (ওজিষ্ঠঃ) অতিশয় পরাক্রমী এবং (বহুলাভিমানঃ) অনেক প্রকারের পদার্থের অভিমানযুক্ত সুখকে (জনিষ্ঠাঃ) উৎপন্ন করুন ॥ ৬৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যে স্বয়ং ব্রহ্মচর্য্য দ্বারা শরীরাত্মবলযুক্ত বিদ্বান্ হইয়া দুষ্টদিগের প্রতি কঠিন স্বভাব সম্পন্ন, শ্রেষ্ঠের বিষয়ে ভিন্ন স্বভাবযুক্ত হইয়া বহু উত্তম সভ্য দ্বারা যুক্ত ধর্মাত্মা হইয়া ন্যায় ও বিনয় দ্বারা রাজ্যের রক্ষা করে সে সব দিক দিয়া অগ্রসর হউক ॥ ৬৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
জনি॑ষ্ঠাऽউ॒গ্রঃ সহ॑সে তু॒রায়॑ ম॒ন্দ্রऽওজি॑ষ্ঠো বহু॒লাভি॑মানঃ ।
অব॑র্দ্ধ॒ন্নিন্দ্রং॑ ম॒রুত॑শ্চি॒দত্র॑ মা॒তা য়দ্বী॒রং দ॒ধন॒দ্ধনি॑ষ্ঠা ॥ ৬৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
জনিষ্ঠা ইত্যস্য গৌরীবিতির্ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ । স্বরঃ ॥
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