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यजुर्वेद अध्याय - 33

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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 92
    ऋषिः - मेध ऋषिः देवता - वैश्वनरो देवता छन्दः - निचृद् बृहती स्वरः - मध्यमः
    2

    दि॒वि पृ॒ष्टोऽअ॑रोचता॒ग्निर्वै॑श्वान॒रो बृ॒हन्।क्ष्मया॑ वृधा॒नऽओज॑सा॒ चनो॑हितो॒ ज्योति॑षा बाधते॒ तमः॑॥९२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वि। पृ॒ष्टः। अ॒रो॒च॒त॒। अ॒ग्निः। वै॒श्वा॒न॒रः। बृ॒हन् ॥ क्ष्मया॑। वृ॒धा॒नः। ओज॑सा। चनो॑हित॒ इति॒ चनः॑ऽहितः। ज्योति॑षा। बा॒ध॒ते॒। तमः॑ ॥९२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवि पृष्टोऽअरोचताग्निर्वैश्वानरो बृहन् । क्ष्मया वृधानऽओजसा चनोहितो ज्योतिषा बाधते तमः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दिवि। पृष्टः। अरोचत। अग्निः। वैश्वानरः। बृहन्॥ क्ष्मया। वृधानः। ओजसा। चनोहित इति चनःऽहितः। ज्योतिषा। बाधते। तमः॥९२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 92
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो मनुष्याः! यथा दिवि पृष्टो वैश्वानरो क्ष्मया वृधान ओजसा बृहन् चनोहितोऽग्निर्ज्योतिषा तमो बाधतेऽरोचत च यथा श्रेष्ठैर्गुणैरविद्यान्धकारं निवर्त्य यूयमपि प्रकाशितकीर्त्तयो भवत॥९२॥

    पदार्थः

    (दिवि) प्रकाशे (पृष्टः) सिक्तः स्थितः (अरोचत) रोचते प्रकाशते (अग्निः) सूर्याख्यः (वैश्वानरः) विश्वेषां नराणां हितः (बृहन्) महान् (क्ष्मया) पृथिव्या सह। क्ष्मेति पृथिवीनामसु पठितम्॥ (निघं॰१।१) (वृधानः) वर्द्धमानः (ओजसा) बलेन (चनोहितः) ओषधिपाकसामर्थ्येन अन्नादीनां हितः (ज्योतिषा) स्वप्रकाशेन (बाधते) निवर्त्तयति (तमः) रात्र्यन्धकारम्। तम इति रात्रिनामसु पठितम्॥ (निघं॰१।७)॥९२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसः सूर्यः तम इव दुष्टाचारमविद्यान्धकारं च निवर्त्य विद्यां प्रकाशयेयुस्ते सूर्य इव सर्वत्र प्रकाशितप्रशंसा भवेयुः॥९२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् मनुष्यो! जैसे (दिवि) आकाश में (पृष्टः) स्थित (वैश्वानरः) सब मनुष्यों का हितकारी (क्ष्मया) पृथिवी के साथ (वृधानः) बढ़ा हुआ (ओजसा) बल से (बृहन्) महान् (चनोहितः) ओषधियों को पकाने रूप सामर्थ्य से अन्नादि का धारण (अग्निः) सूर्यरूप अग्नि (ज्योतिषा) अपने प्रकाश से (तमः) रात्रिरूप अन्धकार को (बाधते) निवृत्त करता और (अरोचत) प्रकाशित होता है, वैसे उत्तम गुणों से अविद्यारूप अन्धकार को निवृत्त करके तुम लोग भी प्रकाशित कीर्तिवाले होओ॥९२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् लोग सूर्य अन्धकार को जैसे, वैसे दुष्टाचार और अविद्यान्धकार को निवृत्त कर विद्या प्रकाशित करें, वे सूर्य के तुल्य सर्वत्र प्रकाशित प्रशंसा वाले हों॥९२॥

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    भावार्थ

    ( वैश्वानरः ) समस्त लोकों का हितकारी, (अग्नि) प्रकाश स्वरूप सूर्य जिस प्रकार (बृहन् ) महान् होकर (दिवि) प्रकाश में, तेज में (पृष्टः) पूर्ण रूप से स्थित होकर (क्ष्मया) पृथिवी के साथ (ओजसा ) तेजो बल से (वृधानः) समस्त औषधियों को बढ़ाता हुआ (चनोहितः ) अन्न के लिये अति हितकारी होता है और (ज्योतिषा) प्रकाश से ( तमः बाधते) अन्धकार को दूर करता है । उसी प्रकार (अग्नि) सबका अग्रणी । नायक एवं विद्वान् (वैश्वानरः) समस्त मनुष्यों का हितकारी, ( बृहन् ) स्वयं महान् होकर (दिवि ) ज्ञान विज्ञान से युक्त राज सभा के बीच (पृष्टः) तेज और ज्ञान से सिक्त अथवा अभिषिक्त होकर (क्ष्मया) अपने बड़े सामर्थ्य से पृथिवी रूप राष्ट्र से और (ओजसा) तेज, पराक्रम से (वृधानः ) वृद्धि करता हुआ, (चनोहितः) अन्न आदि ऐश्वर्यों को धारण करने वाला होकर (ज्योतिषा) ज्ञान ज्योति, तेज से (तमः) प्रजा के दुःखकारी कारण, 'शोक, दुःख रूप अन्धकार को (बाधते) नष्ट करता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेध ऋषिः । वैश्वानरो देवता । निचृद् बृहती । मध्यमः ॥

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    विषय

    एक आदर्श प्रचारक

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र का मनु इस मन्त्र में 'मेध' [मेधृ संगमे] लोगों से सम्पर्क करनेवाला बनता है। अपना परिपाक करके ही प्रचार क्षेत्र में उतरना ठीक है। दिव्य गुणों की आराधना करनेवाला ही दिव्यता का प्रसार कर सकता है। इस 'मेध' का जीवन निम्न शब्दों में द्रष्टव्य है - २. (दिवि पृष्ट:) = यह प्रकाश में स्थित होता है, प्रकाश से संस्पृष्ट। यह अपने जीवन का आधार ज्ञान को बनाता है। इसकी श्रद्धा भी ज्ञानमूलक होती है। ३. (अरोचत) = इस ज्ञान के कारण ही यह [रुच दीप्तौ] दीप्त होता है। वस्तुतः ज्ञान से इसका जीवन पवित्र होता है, और पवित्रता में ही चमक है। ४. (अग्निः) = यह अपने जीवन को अग्रस्थान में प्राप्त कराता है, औरों को भी आगे ले चलनेवाला होता है। ५. (वैश्वानर:) = [विश्व नरहित:] सब मनुष्यों के हित की भावना इसके मस्तिष्क में रहती है। ६. (बृहन्) = [बृहि वृद्धौ] इसका मन महान् होता है। संकुचित हृदय में ही रागद्वेष रहते हैं। हृदय की विशालता के कारण यह रागद्वेष से ऊपर उठा होता है। ७. (क्ष्मया वृधान:) = लोकहित में प्रवृत्त होने पर जब लोग इसका अपमान व बुरा करते हैं, तो यह क्षमा से बढ़ा होता है। यह उनको क्षमा करना जानता है। इसे उनकी अज्ञानता पर करुणा उत्पन्न होती है। ८. (ओजसा) = यह 'ओज' से युक्त होता है। वस्तुतः ओजस्वी होने के कारण ही क्षमाशील होता है। निर्बलता चिड़चिड़ेपन का कारण बन जाती है। ९. (चनोहितः) = यह अन्न पर आश्रित होता है। इसका जीवन वनस्पति भोजन पर निर्भर करता है। यह अपने शरीर के पोषण के लिए परहिंसन को पाप समझता है। मांसभोजन के मूल में ही क्रूरता, निर्दयता व स्वार्थ है। एक प्रचारक को इनसे ऊपर उठना आवश्यक है। १०. ऐसे जीवनवाला यह 'मेध' (ज्योतिषा) = ज्ञान की ज्योति से (तमः) = अन्धकार को (बाधते), = पीड़ित करता है, दूर करता है। यह लोगों के अज्ञान को दूर करने में समर्थ होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने जीवन को 'मेध' का जीवन बनाएँ और संसार में प्रकाश फैलानेवाले बनें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सूर्य जसा अंधःकार नष्ट करतो तसे विद्वान लोक दुष्टाचार व अविद्येच अंधःकार नाहीसा करून विद्येचा प्रसार करतात. ते सूर्याप्रमाणे तेजस्वी बनतात व प्रशंसेस पात्र ठरतात.

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    विषय

    विद्वानांनी काय करावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ -हे विद्वान मनुष्यानो, (दिवि) आकाशात (पृष्टः) स्थित (वैश्‍वानरः) सर्व मनुष्यांच्या हितकारी (हा अग्नीरूप सूर्य) (क्ष्मया) पृथ्वीसह (वृधानः) वाढत वाढत (ओजसा) आपल्या शक्तीद्वारे (बृहत्) अत्यंत (चनोहितः) उपकारक औषधीना परिपक्व करतो आणि धान्यादीचे रक्षण करतो शिवाय (अग्निः) हा (अग्नी) सूर्य (ज्योतिषा) आपल्या प्रकाशाने (तमः) रात्रीरूप अंधकार (बाधते) दूर करतो आणि निरंतर (अरोचत) प्रकाशित होतो. या सूर्याप्रमाणे हे मनुष्यानो, तुम्हीही अविद्यारूप अंधकाराला निवृत्त करून आपल्या कीर्तीचा प्रकाश सर्वत्र विस्तारित करा. ॥92॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जे विद्वान दुराचार आणि अविद्या अंधकार यांना दूर करून विद्येचा प्रकाश सर्वत्र फैलावतात, ते सूर्याप्रमाणे सर्वत्र प्रशंसित होतात ॥92॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned persons, just as the Sun, set in heaven, the benefactor of humanity, increasing in his power on Earth, ripens medicines and grows food, removes darkness of the night with his lustre, and shines forth, so should ye dispel ignorance and gain glory.

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    Meaning

    The great universal Agni sanctified in heavenly light grows with the earth and, raised and exalted with holy food, kind and favourable to humanity, dispels the darkness with its light and glory.

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    Translation

    The great fire seated in the sky, benefactor of all men, shines bright. The same fire, flourishing on earth, is beneficial for food-grains by its heat and it dispels darkness by its light. (1)

    Notes

    Divi prstaḥ, द्युलोके स्थित:, seated in the sky. Brhan agniḥ vaiśvānaraḥ, the great fire, benefactor of all men. Kṣmayā vṛdhānaḥ, augmented by the earth. Canohitaḥ, beneficial for food-grains. Ojasa, with heat. Jyntisā badhate tamah, with light dispels darkness.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্বিদ্বাংসঃ কিং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
    পুনঃ বিদ্বান্গণ কী করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ মনুষ্যগণ ! যেমন (দিবি) আকাশে (পৃষ্টঃ) স্থিত (বৈশ্বানরঃ) সকল মনুষ্যগণের হিতকারী (ক্ষ্ময়া) পৃথিবীঃ সহ (বৃধানঃ) বৃদ্ধি প্রাপ্ত (ওজসা) বল দ্বারা (বৃহন্) মহান্ (চনোহিতঃ) ওষধিপাকসামর্থ্য দ্বারা অন্নাদি ধারণ (অগ্নিঃ) সূর্য্যরূপ অগ্নি (জ্যোতিষা) স্বীয় প্রকাশ দ্বারা (তমঃ) রাত্রিরূপ অন্ধকারকে (বাধতে) নিবৃত্ত করে এবং (অরোচত) প্রকাশিত হয় তদ্রূপ উত্তম গুণসমূহ দ্বারা অবিদ্যারূপ অন্ধকারকে নিবৃত্ত করিয়া তোমরাও প্রকাশিত কীর্ত্তি সম্পন্ন হও ॥ ঌ২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব বিদ্বান্গণ সূর্য্য অন্ধকারকে যেমন সেইরূপ দুষ্টাচার ও অবিদ্যান্ধকারকে নিবৃত্ত করিয়া বিদ্যাকে প্রকাশিত করিবে তাহারা সূর্য্য তুল্য সর্বত্র প্রকাশিত প্রশংসাযুক্ত হইবে ॥ ঌ২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দি॒বি পৃ॒ষ্টোऽঅ॑রোচতা॒গ্নির্বৈ॑শ্বান॒রো বৃ॒হন্ ।
    ক্ষ্ময়া॑ বৃধা॒নऽওজ॑সা॒ চনো॑হিতো॒ জ্যোতি॑ষা বাধতে॒ তমঃ॑ ॥ ঌ২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দিবীত্যস্য মেধ ঋষিঃ । বৈশ্বানরো দেবতা । নিচৃদ্ বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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