यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 97
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - महेन्द्रो देवता
छन्दः - स्वराट् सतो बृहती
स्वरः - मध्यमः
2
अ॒स्येदिन्द्रो॑ वावृधे॒ वृष्ण्य॒ꣳ शवो॒ मदे॑ सु॒तस्य॒ विष्ण॑वि।अ॒द्या तम॑स्य महि॒मान॑मा॒यवोऽनु॑ ष्टुवन्ति पू॒र्वथा॑।इ॒मा उ त्वा। यस्या॒यम्। अ॒यꣳ स॒हस्र॑म्। ऊ॒र्ध्वऽऊ॒ षु णः॑॥९७॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य। इत्। इन्द्रः॑। वा॒वृ॒धे॒। व॒वृ॒ध॒ऽइति॑ ववृधे। वृष्ण्य॑म्। शवः॑। मदे॑। सु॒तस्य॑। विष्ण॑वि ॥ अ॒द्य। तम्। अ॒स्य॒ म॒हि॒मान॑म्। आ॒यवः॑। अनु॑। स्तु॒व॒न्ति॒। पू॒र्वथेति॑ पू॒र्वऽथा॑ ॥९७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्येदिन्द्रो वावृधे वृष्ण्यँ शवो मदे सुतस्य विष्णवि । अद्या तमस्य महिमानमायवोनुष्टुवन्ति पूर्वथा । इमाऽउ त्वा । यस्यायमयँ सहस्रमूर्ध्वऽऊ षु णः॥
स्वर रहित पद पाठ
अस्य। इत्। इन्द्रः। वावृधे। ववृधऽइति ववृधे। वृष्ण्यम्। शवः। मदे। सुतस्य। विष्णवि॥ अद्य। तम्। अस्य महिमानम्। आयवः। अनु। स्तुवन्ति। पूर्वथेति पूर्वऽथा॥९७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैः परमात्मा स्तोतव्य इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! य इन्द्रो जीवो विष्णवि सुतस्याऽस्य मदे वृष्ण्यं शवोऽद्य वावृधेऽस्य परमात्मन इन्महिमानं पूर्वथायवोनुष्टुवन्ति तं यूयमपि स्तुवत॥९७॥
पदार्थः
(अस्य) संसारस्य (इत्) एव (इन्द्रः) परमश्वैर्य्ययुक्तो राजा (वावृधे) वर्द्धयति (वृष्ण्यम्) वृषा समर्थस्तस्येमम् (शवः) बलमुदकं वा। शव इति उदकनामसु पठितम्॥ (निघं॰१।१२) (मदे) आनन्दाय (सुतस्य) उत्पन्नस्य (विष्णवि) व्यापके परमेश्वरे। अत्र वाच्छन्दसीति घिसंज्ञाकार्य्याभावे गुणादेशेऽवादेशः। (अद्य) अत्र निपातस्य च [अ॰६.३.१३६] इति दीर्घः। (तम्) (अस्य) परमात्मनः (महिमानम्) महत्त्वम् (आयवः) ये स्वकर्मफलानि यान्ति ते मनुष्याः। आयव इति मनुष्यनामसु पठितम्॥ (निघं॰२।३) (अनु) (स्तुवन्ति) प्रशंसन्ति (पूर्वथा) पूर्वे इव॥९७॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! यदि यूयं सर्वत्र व्यापकस्य सर्वत्र व्यापकस्य सर्वजगदुत्पाकस्याखिलाधारकस्य परमैश्वर्यप्रापकस्याज्ञां महिमानं च विज्ञाय सर्वस्य संसारस्योपकारं कुरुत, तर्हि यूयं सततमानन्दं प्राप्नुतेति॥९७॥
हिन्दी (3)
विषय
अब मनुष्यों को परमात्मा की स्तुति करना योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो! जो (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य्ययुक्त राजा (विष्णवि) व्यापक परमात्मा में (सुतस्य) उत्पन्न हुए (अस्य) इस संसार के (मदे) आनन्द के लिये (वृष्ण्यम्) पराक्रम (शवः) बल तथा जल को (अद्य) इस वर्त्तमान समय में (वावृधे) बढ़ाता है (अस्य) इस परमात्मा के (इत्) ही (महिमानम्) महिमा को (पूर्वथा) पूर्वज लोगों के तुल्य (आयवः) अपने कर्मफलों को प्राप्त होनेवाले मनुष्य लोग (अनु, स्तुवन्ति) अनुकूल स्तुति करते हैं, (तम्) उसकी तुम लोग भी स्तुति करो॥९७॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जो तुम लोग सर्वत्र व्यापक, सब जगत् के उत्पादक, सबके आधार और उत्तम ऐश्वर्य के प्रापक ईश्वर की आज्ञा और महिमा को जान के सब संसार का उपकार करो तो तुमको निरन्तर आनन्द प्राप्त होवे॥९७॥
भावार्थ
जिस प्रकार (विष्णवि) व्यापक पृथ्वी पर (सुतस्य मदे ) प्राप्त हुए जल से पूर्ण हो जाने पर (इन्द्रः) सूर्य (अस्य) इस मेघ के (शव:) विद्युत् बल और ( वृष्ण्यम् ) वर्षण सामर्थ्य को ( वावृधे) बढ़ाता है । उसी प्रकार (सुतस्य) अभिषेक द्वारा स्थापित (विष्णवि) व्यापक राष्ट्र में (मदे) हर्ष, सुख और समृद्धि से तृप्त, भरे पूरे रहने पर ( इत् ) ही (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् राजा भी (शव:) अपना बल और ( वृष्ण्यम् ) प्रजा पर सुख सेचन या वर्षा के सामर्थ्य को और सेना बल को उसी प्रकार बढ़ावे । भा० - 'इमा उ त्वा०', 'अस्यायम् ०' 'अयं सहस्रम् ०' ये तीनों प्रतीकें अ० ३३।८१-८३ तक के तीनों मन्त्रों की हैं । 'ऊर्ध्व ऊ षु णः '० यह प्रतीक अ० ११।४२ मन्त्र की है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथिर्ऋषिः । महेन्द्रो देवता । सतो बृहती । मध्यमः ॥
विषय
इन्द्र का वर्धन
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव (अस्य इत्) = निश्चय से इस प्रभु का होता है। यह प्रकृति में आसक्त नहीं होता। प्रकृति का प्रयोग करता हुआ भी यह उसका उपभोग नहीं करने लग जाता और इसी का परिणाम होता है कि यह २. (वृष्ण्यं शवः) = सबपर सुखों की वर्षा करनेवाली शक्ति को (वावृधे) = अपने अन्दर बढ़ाता है। भोग शक्ति को जीर्ण करते हैं। ३. इस शक्तिवृद्धि का रहस्य इस बात में है कि यह उत्पन्न सोम को शरीर के अन्दर ही व्याप्त करता है। भोगों में अनासक्त व्यक्ति ही ऐसा कर पाता है। (सुतस्य) = उत्पन्न हुए सोम के (विष्णवि) = [विश् व्याप्तौ] शरीर में व्याप्त होनेवाले मदे उल्लास के होने पर यह इन्द्र अपने में शक्ति का वर्धन करता है। ४. (अद्य) = आज, जब ये भोगों का शिकार न होकर सोमरक्षा कर पाएँ हैं तब (अस्य) = इस प्रभु की (तम् महिमानम्) = उस प्रसिद्ध महिमा को (आयवः) = क्रियाशील होते हुए [एति इतिं आयुः] (अनुष्टुवन्ति) = गाते हैं, उसी प्रकार पूर्वथा = जैसेकि प्रकृति का रंग चढ़ने से पूर्व यह प्रभुकी उपासना करता था। ३३वें अध्याय की समाप्ति ('वावृधे वृष्ण्यं शवः') = इसका सुखवषर्क बल बढ़ता है। यह शक्तिशाली बनता है, इसकी शक्ति औरों को सुखी करनेवाली होती है. पीड़ित करनेवाली नहीं, पर होती है [क] इस ३३वें अध्याय का प्रारम्भ 'अस्याजरास्य' शब्दों से हुआ था कि 'इस प्रभु के भक्त जीर्ण नहीं होते' समाप्ति पर भी वही बात कही इनकी शक्ति बढ़ती है। एवं यह ३३वाँ अध्याय सब प्रकार की 'शक्ति' के वर्धन का अध्याय है। [ख] दूसरी ध्यान देनेवाली बात यह है कि यह - अध्याय ३३ संख्या पर है, देव भी तैतीस हैं। इन तैतीस देवों को अपने में धारण करने का इस अध्याय में कई बार उल्लेख है। इस अध्याय के ३३वें मन्त्र को 'दैव्यौ' शब्द से प्रारम्भ किया गया है, पति-पत्नी ने अपने में देवों की स्थापना करनी है। ६६वें मन्त्र में अपने में सब देवों की स्थापना करनेवाले असुरों का संहार करनेवाले 'देवराट् इन्द्र' का वर्णन है। अपने में इन देवों की स्थापना करनेवाला 'मेधातिथि' = निरन्तर समझदारी से चलनेवाला इस मन्त्र का ऋषि है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के बनें, शक्तिशाली हों, प्रभु का स्तवन करें और उन्नत हों।
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! सर्वत्र व्यापक, सर्व जगाचा उत्पादक, सर्वांचा आधार व ऐश्वर्य देणारा, अशा ईश्वराची आज्ञा पाळून व महिमा जाणून संपूर्ण जगावर उपकार करा म्हणजे सतत तुमचा आनंद वाढत जाईल.
विषय
मनुष्यांसाठी ईश्वराची स्तुती करणे उचित आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान राजा, (विष्णवी) सर्वव्यापी परमेश्वराने (सुतस्य) उत्न्न केलेल्या (अस्य) या जगात (मदे) आनंदप्राप्त्यर्थ (वृष्ण्यम्) पराक्रम आणि (शवः) आपली शक्ती व जल (अद्य) यां वर्तमानकाळी (वावृधे) वाढवीत आहे. (अस्य) या परमेश्वराचा (इत्) च (महिमानम्) महिमा (पूर्वथा) पूर्वज लोकांप्रमाणे (आयवः) आपले कर्मफळ प्राप्त करणारे आजचे लोक (अनु, स्तुवन्ति) अनुकुलतेने सांगत आहेत वा त्याची स्तुती करीत आहेत. (तम्)हे मनुष्यानो, त्या परमेश्वराला तुम्हीही जाणा व त्याची स्तुती करा. ॥97॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यांनो, जर तुम्ही सर्वव्यापी, सर्वजगदुत्पादक, सर्वाधार, उत्तम ऐश्वर्यप्रापक परमेश्वराच्या आज्ञेप्रमाणे वागून त्याचा महिमा जाणून घेऊन सर्व जगावर उपकार कराल, तर तुम्ही निरंतर आनंदी व्हाल. ॥97॥
टिप्पणी
(तळटीप - चिन्हांकित चार प्रतीकें पूर्वी अ. ३३ मंत्र ८१-८३ आणि अ. ११ मंत्र ४२ मधे आलेली आहेत. ती तेथे कर्मकाण्डाच्या पूर्ततेसाठी वापरली आहेत. अर्थ तेथे पहावा)^या अध्यायात अग्नी, प्राण, उदान, दिन, रात्रि, सूर्य, अग्नी, राजा, ऐश्वर्य, उत्तम यान, विद्वान, लक्ष्मी, वैश्वावर, ईश्वर, इन्द्र, बुद्धी, वरूण, अश्वि, अन्न, सुर्य, प्रजा, परीक्षक, इन्द्र आणि वायू आदी पदार्थांच्या गुणांचे वर्णन केले आहे. त्यामुळे या (तेहतिसाव्या) अध्यायाच्या अर्थाची संगती पूर्वीच्या (बत्तीसाव्या) अध्यायात सांगितलेल्या अर्थाशी आहे, असे जाणावे ॥^यजुर्वेद हिन्दी भाष्याचा मराठी अनुवाद ३३ वा अध्याय समाप्त
इंग्लिश (3)
Meaning
O men, the mighty king, always enhances his power and valour, and arranges for the supply of water, for the happiness of the world created by God. Human beings anxious for the fruit of their actions sing the glory of God like their forefathers. Praise ye also Him.
Meaning
In the rapture of soma distilled in this world of Lord Vishnu’s yajna of creation, Indra, lord of power and grandeur, strengthens the vitality and virility of this devotee. And that generosity of this Indra all the devotees celebrate to-day as the ancients did of old. These celebrations exalt you only. Yours is the glory. The lord promotes a hundred yajnas. He is up on high over us all.
Translation
The resplendent Lord augments the energy of devotees, when the exhilaration of divine love pours forth through His manifestations. Men sing forth praises to His majesty today as ever. Ima u tva (Yv. XXXIII. 81). Yasyayam (XXXIII. 82), Ayam sahasram (XXXIII. 83), Urdhva O su nah (XI. 42) are to be repeated here. (1)
Notes
Asya it Indraḥ, Indra verily has (augmented) his (energy). Vṛṣṇyam, manly strength; virility. Śavaḥ, बलं, vigour. Sutasya visnavi made, in the immense exhilaration of this Soma juice (divine love). Mahimānam, majesty. Pūrvatha, as previously; as ever. Anuştuvanti,अनु स्तुवंति , sing praises.
बंगाली (1)
विषय
অথ মনুষ্যৈঃ পরমাত্মা স্তোতব্য ইত্যুপদিশ্যতে ॥
এখন মনুষ্যদিগকে পরমাত্মার স্তুতি করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যে (ইন্দ্রঃ) পরম ঐশ্বর্য্যযুক্ত রাজা (বিষ্ণবি) ব্যাপক পরমাত্মায় (সুতস্য) উৎপন্ন (অস্য) এই সংসারের (মদে) আনন্দের জন্য (বৃষ্ণ্যম্) পরাক্রম (শবঃ) বল তথা জলকে (অদ্য) এই বর্ত্তমান সময়ে (বাবৃধে) বৃদ্ধি করে (অস্য) এই পরমাত্মার (ইৎ) ই (মহিমানম্) মহিমাকে (পূর্বথা) পূর্ব পুরুষদের তুল্য (আয়বঃ) স্বীয় কর্ম্মফলকে প্রাপ্ত হইবার জন্য মনুষ্যগণ (অনু, স্তুবন্তি) অনুকূল স্তুতি করে, (তম্) তাহাকে তোমরাও স্তুতি কর ॥ ঌ৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমরা সর্বত্র ব্যাপক, সকল জগতের উৎপাদক, সকলের আধার এবং উত্তম ঐশ্বর্য্যের প্রাপক, ঈশ্বরের আজ্ঞা ও মহিমাকে জানিয়া সকল সংসারের উপকার কর তাহা হইলে তোমাকে নিরন্তর আনন্দ প্রাপ্ত হইবে ॥ ঌ৭ ॥
এই অধ্যায়ে অগ্নি, প্রাণ, উদান, দিন, রাত্রি, সূর্য্য, অগ্নি, রাজা, ঐশ্বর্য্য, উত্তম যান, বিদ্বান্, লক্ষ্মী, বৈশ্বানর, ঈশ্বর, ইন্দ্র, বুদ্ধি, বরুণ, অশ্বি, অন্ন, সূর্য্য, রাজপ্রজা, পরীক্ষক, ইন্দ্র ও বায়ু আদি পদার্থসমূহের গুণের বর্ণনা আছে । ইহার দ্বারা এই অধ্যায়ে কথিত অর্থের পূর্ব অধ্যায়ে কথিত অর্থ সহ সঙ্গতি জানা উচিত ॥
ইতি শ্রীমৎপরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়াণাং পরমবিদুষাং শ্রীয়ুতবিরজানন্দসরস্বতীস্বামিনাং শিষ্যেণ পরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়েণ শ্রীমদ্দয়ানন্দসরস্বতীস্বামিনা নির্মিতে সুপ্রমাণয়ুক্তে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে
য়জুর্বেদভাষ্যে ত্রয়স্ত্রিংশোऽধ্যায়ঃ সমাপ্তিমগমৎ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒স্যেদিন্দ্রো॑ বাবৃধে॒ বৃষ্ণ্য॒ꣳ শবো॒ মদে॑ সু॒তস্য॒ বিষ্ণ॑বি ।
অ॒দ্যা তম॑স্য মহি॒মান॑মা॒য়বোऽনু॑ ষ্টুবন্তি পূ॒র্বথা॑ ॥ ঌ৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অস্যেত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । মহেন্দ্রো দেবতা । স্বরাট্ সতো বৃহতী ছন্দঃ ।
মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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