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यजुर्वेद अध्याय - 33

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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 49
    ऋषिः - वत्सार ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः
    3

    इ॒न्द्रा॒ग्नी मि॒त्रावरु॒णादि॑ति॒ꣳ स्वः पृथि॒वीं द्यां म॒रुतः॒ पर्व॑ताँ२ऽअ॒पः। हु॒वे विष्णुं॑ पू॒षणं॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिं॒ भगं॒ नु शꣳस॑ꣳ सवि॒तार॑मू॒तये॑॥४९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒न्द्रा॒ग्रीऽइती॑न्द्रा॒ग्नी। मि॒त्रावरु॑णा। अदि॑तिम्। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। पृ॒थि॒वीम्। द्याम्। म॒रुतः॑। पर्व॑तान्। अ॒पः ॥ हु॒वे। विष्णु॑म्। पू॒षण॑म्। ब्रह्म॑णः। पति॑म्। भग॑म्। नु। शꣳस॑म्। स॒वि॒तार॑म्। ऊ॒तये॑ ॥४९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राग्नी मित्रावरुणादितिँ स्वः पृथिवीन्द्याम्मरुतः पर्वताँऽअपः । हुवे विष्णुम्पूषणम्ब्रह्मणस्पतिम्भगन्नु शँसँ सवितारमूतये ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राग्रीऽइतीन्द्राग्नी। मित्रावरुणा। अदितिम्। स्वरिति स्वः। पृथिवीम्। द्याम्। मरुतः। पर्वतान्। अपः॥ हुवे। विष्णुम्। पूषणम्। ब्रह्मणः। पतिम्। भगम्। नु। शꣳसम्। सवितारम्। ऊतये॥४९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 49
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अध्यापकाऽध्येतारः किं कुर्युरित्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यथाहमूतय इन्द्राग्नी मित्रावरुणादितिं पृथिवीं द्यां मरुतः पर्वतानपो विष्णुं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं भगं शंसं सवितारं स्वर्नु हुवे तथैतान् यूयमपि प्रशंसत॥४९॥

    पदार्थः

    (इन्द्राग्नी) संयुक्तौ विद्युदग्नी (मित्रावरुणा) मिलितौ प्राणोदानौ (अदितिम्) अन्तरिक्षम् (स्वः) सुखम् (पृथिवीम्) भूमिम् (द्याम्) सूर्यम् (मरुतः) मननशीलान् मनुष्यान् (पर्वतान्) मेघान् शैलान् वा (अपः) जलानि (हुवे) स्तुयाम् (विष्णुम्) व्यापकम् (पूषणम्) पुष्टिकर्त्तारम् (ब्रह्मणस्पतिम्) ब्रह्माण्डस्य वेदस्य वा पालकम् (भगम्) ऐश्वर्यम् (नु) सद्यः (शंसम्) प्रशंसनीयम् (सवितारम्) ऐश्वर्यकारकं राजानम् (ऊतये) रक्षणाद्याय॥४९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। अध्यापकाऽध्येतृभिः प्रकृतिमारभ्य भूमिपर्यन्ताः पदार्था रक्षणाद्याय विज्ञेयाः॥४९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अध्यापक और अध्येता लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जैसे मैं (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (इन्द्राग्नी) संयुक्त बिजुली और अग्नि (मित्रावरुणा) मिले हुए प्राण उदान (अदितिम्) अन्तरिक्ष (पृथिवीम्) भूमि (द्याम्) सूर्य (मरुतः) विचारशील मनुष्यों (पर्वतान्) मेघों वा पहाड़ों (अपः) जलों (विष्णुम्) व्यापक ईश्वर (पूषणम्) पुष्टिकर्त्ता (ब्रह्मणस्पतिम्) ब्रह्माण्ड वा वेद के पालक ईश्वर (भगम्) ऐश्वर्य (शंसम्) प्रशंसा के योग्य (सवितारम्) ऐश्वर्यकारक राजा और (स्वः) सुख की (नु) शीघ्र (हुवे) स्तुति करूं, वैसे उनकी तुम भी प्रशंसा करो॥४९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अध्यापक और अध्येता को चाहिये कि प्रकृति से लेकर पृथिवी पर्य्यन्त पदार्थों को रक्षा आदि के लिये जानें॥४९॥

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    विषय

    रक्षा के लिये सबका आह्वान ।

    भावार्थ

    मैं (इन्द्राग्नी) इन्द्र और अग्नि, ( मित्रावरुणा ) मित्र और वरुण, (अदितिम् ) अदिति, अखण्ड शासन करने वाली राजसभा या अन्तरिक्ष, ( स्वः ) शत्रुओं का तापकारी, ज्ञानोपदेष्टा और सुखकारी, आकाश, (पृथिवीम् ) पृथिवी, भूमि ( द्याम् ) सूर्य, (मरुतः) वायुएं और मरुद्गण, (पर्वतान् ) पर्वतों, मेघों और पालनसामर्थ्य से युक्त स्थिर राज्य कर्त्ताजन, ( अपः ) जलों और आप्त पुरुषगण ( विष्णुम् ) व्यापक सामर्थ्यवान्, (पूषणम् ) पुष्टिकारक अन्न, पशु आदि या भागधुग्, ( ब्रह्मणस्पतिम् ) ब्रह्माण्ड और वेद के पालक, परमेश्वर और आचार्य (भगम् ) ऐश्वर्य और ऐश्वर्यवान् धन कुबेर, ( शंसम् ) स्तुति योग्य या आचार्य को मैं (ऊतये ) रक्षा, ज्ञान, प्रियाचरण आदि विविध प्रयोजनों के लिये (हुवे ) प्राप्त करूं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सार ऋषिः । विश्वेदेवाः । निचृत् जगती । मध्यमः ॥

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    विषय

    देवताओं का आवाहन

    पदार्थ

    मन्त्र का ऋषि ' अवत्सार' है, अवत्सार ही प्रथमाक्षर के उच्चारण न होने पर वत्सार भी कहा जाता है। यह सारभूत वस्तु सोम की रक्षा के कारण 'अवत्सार' हुआ है। यह अवत्सार (हुवे) = आवाहन करता है, पुकारता हैं, किनको- १. (इन्द्राग्नी) = इन्द्र और अग्नि को । इन्द्र बल की देवता है तो अग्नि प्रकाश की। मैं बल भी प्राप्त करूँ और प्रकाश भी । क्षत्र भी, ब्रह्म भी । शक्ति व ज्ञान दोनों का मेरे जीव में समन्वय हो। २. (मित्रावरुणा) = मैं स्नेह की देवता को पुकारता हूँ और निद्वेषता व ईर्ष्या आदि के निवारण का प्रयत्न करता हूँ। मैं सभी के साथ स्नेह से चलूँ, किसी से द्वेष न करूँ। उन्नति के मार्ग में द्वेष सर्वमहान् विघ्न है । ३. (अदितिम्) = मैं अदिति को पुकारता हूँ। मेरे जीवन में खण्डन न हो। मैं स्वस्थ बनूँ। वस्तुतः स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है और स्वस्थ शरीर व मन में ही बल. ज्ञान, स्नेह व निर्देषता का निवास होता है। ४. स्वास्थ्य के लिए मैं (स्वः) = स्वयं राजमानता, अदासता को पुकारता हूँ, मैं इन्द्रियों का दास नहीं बनता । इन्द्रियों की दासता ही हमें विलासमय बनाकर रोगाभिभूत कर देती है । ५. (पृथिवीं द्याम्) = मैं पृथिवी व द्यौ को पुकारता हूँ। पृथिवी [प्रथ विस्तारे] विशालता का प्रतीक है और द्यौ प्रकाश का। मेरा हृदय विशाल हो और मस्तिष्क ज्ञान से जगमगाता हो। ६. इस विशालता व प्रकाश को अपने में लाने के लिए (पर्वतान्) = पर्वतों को पुकारता हूँ पर्व पूरणे अपने में शक्ति के भरने का प्रयत्न करता हूँ। यह शक्ति व ज्ञान को अपने में भरना ही 'ब्रह्मचर्य' है। इस ब्रह्मचर्य से ही मृत्यु को भी दूर किया जाता है। ८. ब्रह्मचर्य के लिए व शक्ति को व्यर्थ न होने देने के लिए मैं (अपः) = कर्मों को पुकारता हूँ। मेरा जीवन कर्ममय होता है। कर्म में लगा हुआ व्यक्ति वासनाओं का शिकार नहीं होता। ९. शक्ति को भरके मैं (विष्णुम्) = विष्णु को पुकारता हूँ । विष्णु धारक देवता है। मैं धारण करनेवाला बनता हूँ। 'यज्ञो वै विष्णु: 'मेरा जीवन यज्ञमय होता है। १०. (पूषणम्) = पूषा को पुकारता हूँ। अपना पोषण करते हुए सभी का पोषण करता हूँ। सूर्य के समान सभी में प्राणशक्ति का सञ्चार करनेवाला बनता हूँ। ११. (ब्रह्मणस्पतिम्) = पोषण-क्रिया में गलती न हो जाए, अतः मैं ज्ञान के पति को पुकारता हूँ, अधिक-से-अधिक ज्ञानी बनने का प्रयत्न करता हूँ। १२. (भगम्) = इस लोकहित में परतन्त्र न हो जाने के लिए भग को, ऐश्वर्य की देवता को पुकारता हूँ। ऐश्वर्य के बिना मैं अपना भी धारण न कर सकूँगा औरों का हित कर सकने का प्रश्न ही नहीं रहता। १३. (नु) = अब मैं (शंसम्) = शंसन को पुकारता हूँ, सभी का शंसन करता हूँ। किसी के लिए निन्दात्मक शब्दों का प्रयोग नहीं करता। १४. (सवितारम्) = अन्त में सविता को पुकारता हूँ। सविता प्रेरक है। मैं भी प्रेरणा देनेवाला बनता हूँ और इस प्रकार अपने जीवन को इन देवताओं से युक्त करके (ऊतये) = रक्षा के लिए समर्थ होता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ - इन्द्र और अग्नि आदि देवताओं का आवाहन करता हुआ मैं अपने जीवन की रक्षा करनेवाला बनता हूँ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. अध्यापक व शिष्य यांनी प्रकृतीपासून ते पृथ्वीपर्यंतच्या (सृष्टीतील पदार्थ) पदार्थांचे रक्षण करण्याबद्दलचे ज्ञान प्राप्त करावे.

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    विषय

    अध्यापक आणि अध्येता यांनी काय करावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, मी (एक वेदज्ञाता विद्वान) (ऊतये) रक्षणाकरिता (इन्द्रावरुणा) विद्युत व अग्नीची तसेच (मित्रावरुणा) प्राण आणि उदान वायूची (स्तुती करतो, त्यापासून लाभ घेतो, तसे तुम्हीही घ्या) जसा मी (अदितिम्) अंतरिक्षाची (पृथिवीम्) पृथ्वीची (घाम्) सूर्याची (मरुतः) विचारशील मनुष्यांची (स्तुती करतो, तसे तुम्हीही करा) (पर्वताम्) मेघाची वा पर्वतांची (अपः) जलाची (विष्णुम्) व्यापक ईश्‍वराची (पूषणम्) पोषक व्यक्तीची (ब्रह्मणस्पतिम्) ब्रह्मांड वा वेदपालक ईश्‍वराची (भगम्) ऐश्‍वर्याची (शंसम्) प्रशंसनीय पदार्थांची आणि (सवितारम्) ऐश्‍वर्यकारी राजाची (स्वः) सुखासाठी (नु) शीघ्र (हुवे) स्तुती करतो. या सर्वांच्यापासून लाभ वा गुणग्रहण करण्याचा यत्न करतो, त्याप्रकारे तुम्हीही स्तुती करा व लाभान्वित व्हा. ॥49॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. अध्यापक आणि अध्येता ( विद्यार्थी) यांचे कर्तव्य आहे की प्रकृतीपासून ते पृथ्वीपर्यंत जे जे आहे. त्या पदार्थांचे रक्षण व जतन करावे आणि त्यासाठी त्या पदार्थांविषयी पूर्ण ज्ञान मिळवावे. ॥49॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May I eagerly praise for help and happiness, conjoint electricity and fire, intermingled Pran and Udan, the sky, the Earth, the Sun, the thoughtful persons, the clouds, the waters, the All-pervading God, the invigorating cereals, God, the guardian of the world and the Vedas, prosperity, and laudable king.

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    Meaning

    I invoke Indragni, fire and energy, Mitra and Varuna, pranic energies, Aditi, riches of the sky, Sva, peace and joy, Prithivi, riches of the earth, Dyau, the sun in heaven, Maruts, fastest human powers, wealth of the mountains and clouds, the energy of waters and rain, and I pray to Vishnu, omnipresent spirit of the universe, Pusha, nature’s spirit of health and refreshment, Brahmanaspati, guardian Spirit of the universe and knowledge, Bhaga, lord giver of wealth and honour, and the celebrated Savita, creator, sustainer and light-giver of the world, for protection and well¬ being.

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    Translation

    I invoke for protection the Nature's bounties like lightning and fire, light and plasma, the mother infinity, the heaven, the earth, the vital principles, the clouds, the waters, the air divine, the nourisher, as well as, above all, the supreme Lord of the universe, the Creator. (1)

    Notes

    Ütaye huve, I invoke them for protection.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অধ্যাপকাऽধ্যেতারঃ কিং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
    অধ্যাপক ও অধ্যেতাগণ কী করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন আমি (ঊতয়ে) রক্ষাদি হেতু (ইন্দ্রাগ্নী) সংযুক্ত বিদ্যুৎ ও অগ্নি (মিত্রাবরুণা) মিলিত প্রাণ-উদান (অদিতিম্) অন্তরিক্ষ (পৃথিবীম্) ভূমি (দ্যাম্) সূর্য্য (মরুতঃ) মননশীল মনুষ্যগণ (পর্বতান্) মেঘ বা পর্বতসমূহ (অপঃ) জল (বিষ্ণুম্) ব্যাপক ঈশ্বর (পূষণম্) পুষ্টিকর্ত্তা (ব্রহ্মণস্পতিম্) ব্রহ্মান্ড বা বেদের পালক ঈশ্বর (ভগম্) ঐশ্বর্য্য (শংসম্) প্রশংসার যোগ্য (সবিতারম্) ঐশ্বর্য্যকারক রাজা ও (স্বঃ) সুখের (নু) শীঘ্র (হুবে) স্তুতি করি সেইরূপ তোমরাও তাহার প্রশংসা কর ॥ ৪ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । অধ্যাপক ও অধ্যেতার উচিত যে, প্রকৃতি হইতে লইয়া পৃথিবী পর্য্যন্ত পদার্থগুলির রক্ষাদির জন্য জানিবেন ॥ ৪ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ই॒ন্দ্রা॒গ্নী মি॒ত্রাবরু॒ণাদি॑তি॒ꣳ স্বঃ᳖ পৃথি॒বীং দ্যাং ম॒রুতঃ॒ পর্ব॑তাঁ২ऽঅ॒পঃ ।
    হু॒বে বিষ্ণুং॑ পূ॒ষণং॒ ব্রহ্ম॑ণ॒স্পতিং॒ ভগং॒ নু শꣳস॑ꣳ সবি॒তার॑মূ॒তয়ে॑ ॥ ৪ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ইন্দ্রাগ্নী ইত্যস্য বৎসার ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । নিচৃজ্জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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