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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदासुरी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    वि॒राजा॑न्ना॒द्यान्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽराजा॑ । अ॒न्न॒ऽअ॒द्या । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१४.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विराजान्नाद्यान्नमत्ति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽराजा । अन्नऽअद्या । अन्नम् । अत्ति । य: । एवम् । वेद ॥१४.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथिके उपकार का उपदेश।

    पदार्थ

    वह [अतिथि] (अन्नाद्या) जीवनरक्षक (विराजा) विराट् [विविध प्रकाशमान राज्यश्री] से (अन्नम्) जीवन की (अत्ति) रक्षा करता है, (यः) जो (एवम्) व्यापक परमात्मा को (वेद) जानता है ॥१०॥

    भावार्थ

    म० १, २ के समान ॥९, १०॥

    टिप्पणी

    ९, १०−(ध्रुवाम्)अधोगताम् (विष्णुः) कर्मसु व्यापकः पण्डितः (विराजम्) वि+राजृ दीप्तौ ऐश्वर्येच-क्विप्। विविधप्रकाशमानां राज्यश्रियम् (अन्नादीम्) जीवनरक्षिकाम् (विराजा)विविधप्रकाशमानया राज्यश्रिया (अन्नाद्या) जीवनरक्षिकया। अन्यत् पूर्ववत् म० १, २ ॥

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    विषय

    विष्णु अन्नादी विराट्

    पदार्थ

    १. (स:) = वह व्रात्य (यत्) = जब (ध्रुवां दिर्श अनुव्यचलत्) = ध्रुवता-स्थिरता की दिशा की ओर चला तो (विष्णाः) = व्यापक उन्नतिवाला-'शरीर, मन व मस्तिष्क' तीनों की उन्नतिवाला-'स्वस्थ शरीर, पवित्र मन व दीप्त मस्तिष्क' वाला (भूत्वा अनुव्यचलत्) = होकर अनुकूलता से गतिवाला हुआ। त्रिविध उन्नति में ही उन्नति की स्थिरता है। २. (यः एवं वेद) = जो त्रिविध उन्नति में ही उन्नति की स्थिरता के तत्त्व को समझ लेता है, वह (विराजम्) = इस विशिष्ट दीप्ति को ही (अन्नादीं कृत्वा) = अन्न खानेवाला बनकर चलता है। उसी अन्न को खाता है जो उसे विराट्-विशिष्ट दीप्तिवाला बनाए। (अन्नाद्या) = अन्न को खानेवाला (विराजा) = विशिष्ट दीप्ती से ही वह (अन्नं अत्ति) = अन्न खाता है-उसी अन्न को खाता है, जो उसे विशिष्ट दीप्तिवाला बनाता है।

    भावार्थ

    उन्नति की स्थिरता इसी में है कि हम शरीर, मन व मस्तिष्क तीनों को उन्नत करें, तभी हम 'विराट' बनेंगे। विराट् बनने के दृष्टिकोण से ही अन्न खाना चाहिए-वह अन्न जो हमें 'शरीर में स्वस्थ, मन में पवित्र तथा मस्तिष्क में दीप्त' बनाये।

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    भाषार्थ

    (यः) जो व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता है, और तदनुसार आचरण करता है, वह (अनाद्या) अन्न का भोजन करने वाली (विराजा) विशिष्ट दीप्ति की दृष्टि से (अन्नम्) अन्न को (अत्ति) खाता है। अर्थात् वह इस दीप्ति को बनाएं रखने की दृष्टि से अन्न खाता है।

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    विषय

    व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।

    भावार्थ

    (सः) वह व्रात्य प्रजापति (यद्) जब (ध्रुवान् दिशम् अनु वि-अचलत्) ध्रुवा दिशा की ओर चला (विष्णुः भूत्वा विराजम् अन्नादीम् कृत्वा) स्वयं विष्णु होकर विराट पृथ्वी को ही अन्न का भोक्ता बना कर (अनु-वि-अचलत्) चला। (यः एवं वेद) जो इस प्रकार व्रात्य प्रजापति के स्वरूप को जानता है वह (विराजा अन्नाद्या अन्नम् अति) विराज रूप अन्न की भोक्ती से अन्न का भोग करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    The man who knows this eats food, taking, and thus making, earth by brilliance as the consumer of food for strength.

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    Translation

    With Viraj (cow) as enjoyer of food, he enjoys food, whoso knows it thus.

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    Translation

    He who is the possessor of this knowledge eats grain with Virat consuming food.

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    Translation

    He who hath this knowledge of the Omnipresent God preserves life with Earth as life-preserver.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९, १०−(ध्रुवाम्)अधोगताम् (विष्णुः) कर्मसु व्यापकः पण्डितः (विराजम्) वि+राजृ दीप्तौ ऐश्वर्येच-क्विप्। विविधप्रकाशमानां राज्यश्रियम् (अन्नादीम्) जीवनरक्षिकाम् (विराजा)विविधप्रकाशमानया राज्यश्रिया (अन्नाद्या) जीवनरक्षिकया। अन्यत् पूर्ववत् म० १, २ ॥

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