अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 5
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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स यत्प्र॒तीचीं॒दिश॒मनु॒ व्यच॑ल॒द्वरु॑णो॒ राजा॑ भू॒त्वानु॒व्यचलद॒पोऽन्ना॒दीः कृ॒त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठस: । यत् । प्र॒तीची॑म् । दिश॑म् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । वरु॑ण: । राजा॑ । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । अ॒प: । अ॒न्न॒ऽअ॒दी: । कृ॒त्वा ॥१४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
स यत्प्रतीचींदिशमनु व्यचलद्वरुणो राजा भूत्वानुव्यचलदपोऽन्नादीः कृत्वा ॥
स्वर रहित पद पाठस: । यत् । प्रतीचीम् । दिशम् । अनु । विऽअचलत् । वरुण: । राजा । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । अप: । अन्नऽअदी: । कृत्वा ॥१४.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथिके उपकार का उपदेश।
पदार्थ
(सः) वह [व्रात्यअतिथि] (यत्) जब (प्रतीचीम्) पश्चिम वा पीछेवाली (दिशम् अनु) दिशा की ओर (व्यचलत्) विचरा, वह (वरुणः) श्रेष्ठ (राजा) राजा [ऐश्वर्यवान्] (भूत्वा) होकरऔर (अपः) [कर्मों में व्यापक रहनेवाली] इन्द्रियों को (अन्नादीः) जीवनरक्षक (कृत्वा) करके (अनुव्यचलत्) लगातार चला गया ॥५॥
भावार्थ
मन्त्र १, २ के समानहै ॥५, ६॥
टिप्पणी
५, ६−(प्रतीचीम्)पश्चिमाम्। पश्चाद्भागस्थाम् (वरुणः) श्रेष्ठः (राजा) राजृ दीप्तौ ऐश्वर्येच-कनिन्। ऐश्वर्यवान्। भूपालः (अपः) आपः=इन्द्रियाणि=आपनानि-निरु० १२।३७।कर्मसु व्यापकानीन्द्रियाणि (अन्नादीः) म० १। अन्नाद-ङीप्। जीवनरक्षिकाः (अद्भिः) इन्द्रियैः (अन्नादीभिः) जीवनरक्षिकाभिः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥
विषय
वरुण राजा अन्नादी: अपाः
पदार्थ
१. (सः) = वह व्रात्य (यत्) = जब (प्रतीचीं दिशं अनुव्यचलत्) = प्रत्याहार–इन्द्रियों को विषयों से व्यावृत्त करने की दिशा की ओर चला तो (वरुण:) = सब व्यसनों का निराकरण करनेवाला वह (राजा) = दीप्तजीवनवाला (भूत्वा) = होकर (अनुव्यचलत्) = अनुक्रमेण गतिवाला हुआ। २. (यः) = जो (एवं वेद) = इस तत्व को समझ लेता है कि निरव्यसन व दीप्तजीवनवाला बनने के लिए प्रत्याहार' आवश्यक है, वह (आपः) = रेत:कणों को (अनादी: कृत्वा) = अन्न खानेवाला बनाकर प्रत्याहार को सिद्ध करता है। यह (अन्नादीभिः अद्धिः अत्ति) = अन्न को खानेवाले रेत:कणों से ही अन्न को खाता है। उन्हीं सौम्य अन्नों का सेवन करता है जो रेत:कणों के रक्षण के लिए अनुकूलतावाले हों, अर्थात् यह उत्तेजक, राजस् भोजन से बचता है, राजस् भोजनों का सेवन नहीं करता।
भावार्थ
हम निर्व्यसन व दीप्तजीवनवाले बनकर इन्द्रियों को विषयों से व्यावृत्त करें। उन्हीं सात्त्विक भोजनों का सेवण करें जो रेत:कणों के रक्षण के लिए हितकर हों, न राजसों, न तामसों का।
भाषार्थ
(सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य (यद्) जो (प्रतीचीम्) विषय प्रतीप भावना की (दिशम्) दिशा अर्थात् निर्देश या उद्देश्य को (अनु) लक्ष्य कर के (व्यचलत्) विशेषतया चला, वह (वरुणः) अध्यात्म मार्ग का वरण करने वाला, (राजा) तथा इन्द्रियों का राजा, वशयिता (भूत्वा) होकर (अनु) तदनुसार (व्यचलत्) विशेषतया चला, (अपः) शारीरिक रसों को (अन्नादीः) अन्न भोगी (कृत्वा) कर के, अर्थात् शारीरिक रसों के स्वास्थ्य तथा वृद्धि की इष्टि से।
टिप्पणी
[अपः = शारीरिक रस-रक्त के लिये भी "आपः" शब्द का प्रयोग होता है। यथा "को अस्मिन्नापो व्यदधात्विषूवृतः पुरूवृतः सिन्धुसृत्याय जाताः। तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा अवाचीः पुरुषे तिरश्चीः ॥ (अथर्व० १०।२।११)। इस मन्त्र में "आपः" को तीव्राः अरुणा (किंचित् लाल) लोहिनीः (लाल), ताम्रधूम्राः (ताम्बे के धूएं जैसा नीला अर्थात् - शिराओं (veins) का नीला रक्त), तथा सिन्धु पद द्वारा हृदय का निर्देश किया है। वरुणः "वृणोतीति सतः" (निरु० १०।१।३)। मन्त्र ५ में "अपः" =द्वितीया विभक्ति, बहुवचन].
विषय
व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।
भावार्थ
(सः) वह व्रात्य प्रजापति (यत्) जब (प्रतीचीम् दिशम्) प्रतीची अर्थात् पश्चिम दिशा की ओर (अनुव्यचलत्) चला। वह स्वयं (वरुणः राजा भूत्वा) सबके वरण करने योग्य, राजा होकर (अपः) समस्त आप्त प्रजाओं को (अन्नादीः) अन्न = राष्ट्र के भोग्य पदार्थों का भोक्ता (कृत्वा) बनाकर (अनुव्यचलत्) चला। (यः एवं वेद) जो इस प्रकार के व्रात्य प्रजापति के स्वरूप को जानता है वह (अभिः अन्नादीभिः अन्नम् अत्ति) स्वयं भी अन्न आदि की भोक्ती आप्त प्रजाओं द्वारा स्वयं (अन्नम् अत्ति) अन्न का भोग करता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
When he moved into the western direction, he became Ruler Varuna of waters, dynamic action, and thus moved. He made waters as the consumer of food (and thus he gains the dynamism of action).
Translation
When he follows the course to the western quarter. he follows it becoming the glittering ocean (Varuna) and making the waters enjoyers of food.
Translation
He, when walks towards western region, walks having become resplendent Varuna and making waters consumer of food.
Translation
He, when he went away to the western region, went away having become exalted like a king, and having made the organs, the preservers of life.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५, ६−(प्रतीचीम्)पश्चिमाम्। पश्चाद्भागस्थाम् (वरुणः) श्रेष्ठः (राजा) राजृ दीप्तौ ऐश्वर्येच-कनिन्। ऐश्वर्यवान्। भूपालः (अपः) आपः=इन्द्रियाणि=आपनानि-निरु० १२।३७।कर्मसु व्यापकानीन्द्रियाणि (अन्नादीः) म० १। अन्नाद-ङीप्। जीवनरक्षिकाः (अद्भिः) इन्द्रियैः (अन्नादीभिः) जीवनरक्षिकाभिः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥
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