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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 19
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - भुरिक् नागी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    स यद्दे॒वाननु॒व्यच॑ल॒दीशा॑नो भू॒त्वानु॒व्यचलन्म॒न्युम॑न्ना॒दं कृ॒त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । यत् । दे॒वान् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । ईशा॑न: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । म॒न्युम् । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृत्वा ।१४.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स यद्देवाननुव्यचलदीशानो भूत्वानुव्यचलन्मन्युमन्नादं कृत्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । यत् । देवान् । अनु । विऽअचलत् । ईशान: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । मन्युम् । अन्नऽअदम् । कृत्वा ।१४.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथिके उपकार का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [व्रात्यअतिथि] (यत्) जब (देवान् अनु) विद्वानों की ओर (व्यचलत्) विचरा, वह (ईशानः)समर्थ (भूत्वा) होकर और (मन्युम्) ज्ञान को (अन्नादम्) जीवनरक्षक (कृत्वा) करके (अनुव्यचलत्) लगातार चला गया ॥१९॥

    भावार्थ

    मन्त्र १, २ के समान॥१९, २०॥

    टिप्पणी

    १९, २०−(देवान्)विदुषः पुरुषान् (ईशानः) समर्थः (मन्युम्) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। मनज्ञाने-युच्। मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः क्रोधकर्मणो वधकर्मणो वा-निरु०१०।२९। ज्ञानम्। प्रकाशम् (मन्युना) ज्ञानेन। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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    विषय

    ईशान+अन्नादमन्यु

    पदार्थ

    १. (सः) = वह व्रात्य (यत्) = जय (देवान् अनुव्यचलत्) = दिव्यगुणों की प्रासि को लक्ष्य करके चला तब (ईशानः भूत्वा अनुव्यचलत्) = ईशान-इन्द्रियों का स्वामी बनकर गतिवाला हआ। बिना ईशान बने दिव्यगुणों का सम्भव कहाँ? जितेन्द्रियता ही उस वृत्त का केन्द्र है, जिसकी परिधि पर सब दिव्यगुणों की स्थिति है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार जितेन्द्रियता व सद्गुणों के कारणकार्य भाव को समझ लेता है, वह (मन्युम्) = [A sacrifice, spirit, couarge] त्याग व उत्साह को (आनन्दं कृत्वा) = आनन्द बनाकर चलता है। (मन्युना अन्नादेन अन्न अत्ति) = त्याग व उत्साहरूप अन्नादि से ही अन्न को खाता है। उसी सात्विक भोजन का ग्रहण करता है जो उसके मन में त्यागवृत्ति व उत्साह को जन्म दे।

    भावार्थ

    जितेन्द्रियता ही सब दिव्यगुणों का मूल है। जितेन्द्रियता के लिए हम उन्हीं भोजनों को करें जो हमारे हृदयों में उत्साह व त्यागवृत्ति का संचार करें।

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    भाषार्थ

    (सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य (यद्) जो (देवान्) देवों को (अनु) लक्ष्य करके (व्यचलद्) विशेषतया चला, वह (ईशानः) शासक (भूत्वा) हो कर (अनु) तदनुसार (व्यचलद्) चला, (मन्युम्) ज्ञानपूर्वक क्रोध को (अन्नादम्, कृत्वा) अन्नभोगी कर के।

    टिप्पणी

    [ईशानः= इस का अर्थ है, शासक। अच्छे शासक के दो कर्तव्य होते हैं, प्रजा को दिव्य कर्मों के करने में प्रेरित करना, तथा आसुर और राक्षसकर्मों के करने से निवारित करना। देवान् = प्राणाग्निहोत्री देवपथ का अनुगमन करता है, और अपने आप को प्रेरित करता है दिव्यकर्मों के करने और अदिव्य कर्मों से छुटकारा पाने के लिए। एतदर्थ वह मन्यु का आश्रय लेता है, अदिव्यकर्मों को मन्युपूर्वक निवारित करने के लिए। मन्यु का अर्थ ज्ञानपूर्वक क्रोध (मनु ज्ञाने) है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानकर जहां क्रोध की आवश्यकता हो वहीं क्रोध करना चाहिये, ताकि जीवन समुन्नत हो सके। अज्ञानपूर्वक किया क्रोध त्याज्य है। इस मन्यु को परिपुष्ट करने की दृष्टि से प्राणाग्निहोत्री तदनुकूल अन्न ग्रहण करता है]

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    विषय

    व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।

    भावार्थ

    (सः यद् देवान् अनुव्यचलत्) वह जब देवों की ओर चला तब वह (ईशानः भूत्वा मन्युम् अन्नादं कृत्वा) स्वयं ‘ईशान’ हो कर और मन्यु को ‘अन्नाद’ बना कर (अनुव्यचलत्) चला। (यः एवं वेद) जो प्रजापति के इस स्वरूप को जानता है वह (मन्युना अन्नादेन) मन्यु रूप अन्नाद से (अन्नम् अत्ति) अन्न का भोग करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    When he moved to the Divinities, he became Ishana, the supreme power, and thus moved. He made Manyu, righteous passion, as the receiver and consumer of food.

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    Translation

    When he follows the enlightened ones, ie follows them becoming the master (isana) and making the fervour enjoyer of food.

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    Translation

    He, when walks towards Devas walks having become Ishana and making Manyu, the anger for justice and truth, consumer of food.

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    Translation

    He, when he went away to the learned, went away having become power and having made knowledge a preserver of life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १९, २०−(देवान्)विदुषः पुरुषान् (ईशानः) समर्थः (मन्युम्) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। मनज्ञाने-युच्। मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः क्रोधकर्मणो वधकर्मणो वा-निरु०१०।२९। ज्ञानम्। प्रकाशम् (मन्युना) ज्ञानेन। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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