अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 17
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आर्ची पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
0
स यदू॒र्ध्वांदिश॒मनु॒ व्यच॑ल॒द्बृह॒स्पति॑र्भू॒त्वानु॒व्यचलद्वषट्का॒रम॑न्ना॒दं कृ॒त्वा॥
स्वर सहित पद पाठस: । यत् । ऊ॒र्ध्वाम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । बृह॒स्पति॑: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । व॒ष॒ट्ऽका॒रम् । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृ॒त्वा ॥१४.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
स यदूर्ध्वांदिशमनु व्यचलद्बृहस्पतिर्भूत्वानुव्यचलद्वषट्कारमन्नादं कृत्वा॥
स्वर रहित पद पाठस: । यत् । ऊर्ध्वाम् । दिशम् । अनु । विऽअचलत् । बृहस्पति: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । वषट्ऽकारम् । अन्नऽअदम् । कृत्वा ॥१४.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथिके उपकार का उपदेश।
पदार्थ
(सः) वह [व्रात्यअतिथि] (यत्) जब (ऊर्ध्वाम्) ऊँची (दिशम् अनु) दिशा की ओर (व्यचलत्) विचरा वह (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं का रक्षक] (भूत्वा) होकर और (वषट्कारम्)दानव्यवहार को (अन्नादम्) जीवनरक्षक (कृत्वा) करके (अनुव्यचलत्) लगातार चला गया॥१७॥
भावार्थ
मन्त्र १, २ के समान॥१७, १८॥
टिप्पणी
१७, १८−(ऊर्ध्वाम्)उन्नताम् (बृहस्पतिः) बृहतानां महतीनां विद्यानां रक्षकः (वषट्कारम्) वहप्रापणे-डषटि। दानव्यवहारम् (वषट्कारेण) दानव्यवहारेण। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २॥
विषय
बृहस्पति वषट्कार अन्नाद
पदार्थ
१. (स:) = वह (यत्) = जब (ऊर्ध्वाम्) = उन्नति की सर्वोपरि (दिशं अनुव्यचलत्) = दिशा की ओर चला. तब (बृहस्पतिः भूत्वा अनुव्यचलत्) = ब्रह्मणस्पति-ज्ञान का स्वामी बनकर चला। २. (यः एवं वेद) = जो इस बात को समझ लेता है कि उन्नति के शिखर पर पहुँचने के लिए बृहस्पति बनना आवश्यक है, वह (वषट्कारम्) = [वश् to kill] वासना-विनाश के कार्य को (अन्नादं कृत्वा) = अन्न का खानेवाला करके चलता है, अर्थात् उन्हीं भोजनों को करता है जो वासनाओं को उत्तेजित करनेवाले न हों। यह (वषट्कारेण) = वषट्काररूपी (अन्नादेन) = अन्न खानेवाले से (अन्नं अत्ति) = अन्न को खाता है, अर्थात् भोजन का उद्देश्य वासनाशून्य शक्ति को जन्म देना ही मानता है।
भावार्थ
उन्नति के शिखर पर ज्ञान के द्वारा ही पहुंचा जा सकता है। ज्ञान के मार्ग में वासनाएँ ही विघातक हैं, अत: भोजन वही ठीक है जो वासनाशून्य शक्ति को जन्म दे।
भाषार्थ
(सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य, (यत्) जो (उर्ध्वाम्) सांसारिक भोगों से उठी हुई, ऊंची (दिशम्) दिशा अर्थात्, निर्देश या उदेश्य को (अनु) लक्ष्य कर के (व्यचलद्) विशेषतया चला, वह (बृहस्पतिः) वेदवाणी का पति अर्थात् स्वामी (भूत्वा) हो कर, (अनु) वेदवाणी के सदुपदेशों के अनुसार (व्यचलद्) चला, (वषट्कारम्) पापविनाश कर्म को (अन्नादम्) अन्न भोगी (कृत्वा) कर के।
टिप्पणी
[ऊर्ध्वाम् दिशम् = ऊंचा उद्देश्य। ऊर्ध्व शब्द का प्रयोग केवल दैशिक-ऊंचाई के लिये ही नहीं होता है। अपितु आध्यात्मिक ऊंचाई के लिये भी प्रयुक्त होता है। "त्रिपादू्र्ध्व उदैत् पुरुषः" (यजु ३१।४) में 'ऊर्ध्वः' शब्द की व्याख्या में महर्षि दयानन्द लिखते हैं। सब से उत्तम मुक्तिस्वरूप, संसार से पृथक्"। इसी अर्थ के अनुसार मन्त्र में "ऊर्ध्वादिशम्" की व्याख्या की गई है। बृहस्पतिः = बृहस्पति का अर्थ "बृहती वेदवाणी का पति अर्थात् पूर्ण विद्वान्” – यह अर्थ यहां संगत प्रतीत होता है। ऋग्वेद १०।७१।१-११ मन्त्रों का देवता है -ज्ञानम्। इस सूक्त में वेदवाणी और वेदज्ञान का वर्णन है। प्रथम मन्त्र में "बृहस्पते प्रथमं वाचा अग्रम्" द्वारा बृहस्पति का सम्बन्ध, वाणियों में श्रेष्ठ तथा प्रथम वेदनामधेय, अर्थात् वेदवाणी के प्रवक्तारूप में दर्शाया है। वषट् = इस शब्द का प्रयोग याज्ञिक अर्थ में नहीं किया गया। अपितु वष् हिंसार्थः + अति (शतृवत्, बाहुलकात्, उणा० २।८५), अर्थात् हिंसार्थ में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। वैदिक प्राणाग्निहोत्री पापकर्मों और उन के संस्कारों के विनाश के लिये, वैदिक सदुपदेशों को निज जीवन में चरितार्थ करता है, और इस दृष्टि से अन्न सेवन करता है। वषट् (हिंसा) + कारम् (करना, कर्म)।] [१. वषट्कार= "वषट्" शब्द याज्ञिक भावना से अन्यत्र भी प्रयुक्त होता है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रमाण है-“स रुद्रो वसुवनिर्वसुदेवे नमोवाके बषट्कारः" - (अथर्व० १३।४। पर्याय ३। मन्त्र ४) में रुद्र (परमेश्वर) के सम्बन्ध में कहा है कि "वह वसु (धन) के प्रदान में वसुदाता (वनिः= बन संभक्तौ) है, और नमस्कारोक्तियों पर वह वषट्कार है, बषट् करता है। इस सम्बन्ध में बषट् का अर्थ याज्ञिक प्रतीत नहीं होता, अपितु "पापकर्म विनाशक" अर्थ ही सम्भावित है।]
विषय
व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।
भावार्थ
(सः यद् ऊर्ध्वां दिशम् अनुव्यचलत्) वह जब ऊर्ध्वदिशा को चला तब वह स्वयं (बृहस्पतिः भूत्वा वषट्कारम् अन्नादं कृत्वा अनुव्यचलत्) बृहस्पति होकर वषट्कार को अन्नाद बना कर चला। (यः एवं वेद) जो इस प्रकार के व्रात्य के स्वरूप को जानता है (वषट्कारेण अन्नादेन अन्नम् अत्ति) वषट्कार रूप अन्नाद से स्वयं अन्न का भोग करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
When he moved into the upper direction, he became Brhaspati, dedicated to Veda, and thus moved. He made Vashatkara, oblations for cosmic balance of natural forces, as the receiver, consumer and giver of food.
Translation
When he follows the course to the zenith quarter, he follows it becoming the Lord of knowledge and making the utterance of Vasat enjoyer of food.
Translation
He, when walks towards the region above walks having become Brihaspati and making Vashatkara consumer of food.
Translation
He when he went away to the upper region, went away having become the protector of great sciences and having made the practice of charity a preserver of life.
Footnote
Upper region: Zenith.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७, १८−(ऊर्ध्वाम्)उन्नताम् (बृहस्पतिः) बृहतानां महतीनां विद्यानां रक्षकः (वषट्कारम्) वहप्रापणे-डषटि। दानव्यवहारम् (वषट्कारेण) दानव्यवहारेण। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal