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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - प्रस्तार पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    स यदुदी॑चीं॒दिश॒मनु॒ व्यच॑ल॒त् सोमो॒ राजा॑ भू॒त्वानु॒व्यचलत्सप्त॒र्षिभि॑र्हु॒तआहु॑तिमन्ना॒दीं कृ॒त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । यत् । उदी॑चीम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । सोम॑: । राजा॑ । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । स॒प्त॒र्षिऽभि॑: । हु॒ते । आऽहु॑तिम् । अ॒न्न॒ऽअ॒दीम् । कृ॒त्वा ॥१४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स यदुदीचींदिशमनु व्यचलत् सोमो राजा भूत्वानुव्यचलत्सप्तर्षिभिर्हुतआहुतिमन्नादीं कृत्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । यत् । उदीचीम् । दिशम् । अनु । विऽअचलत् । सोम: । राजा । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । सप्तर्षिऽभि: । हुते । आऽहुतिम् । अन्नऽअदीम् । कृत्वा ॥१४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथिके उपकार का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [व्रात्यअतिथि] (यत्) जब (उदीचीम्) उत्तर वा बायीं (दिशम् अनु) दिशा की ओर (व्यचलत्)विचरा, वह (सोमः) पुरुषार्थी (राजा) राजा [ऐश्वर्यवान्] (भूत्वा) होकर (सप्तर्षिभिः) [दो कान, दो नथने, दो आँखें और एक मुख] सात गोलकों के साथ (हुते)हवन में (आहुतिम्) आहुति को [दानक्रिया अर्थात् परोपकार में इन्द्रियों को यज्ञमें आहुति सदृश] (अन्नादीम्) जीवनरक्षक (कृत्वा) करके (अनुव्यचलत्) लगातार चलागया ॥७॥

    भावार्थ

    म० १, २ के समान ॥७, ८॥

    टिप्पणी

    ७, ८−(उदीचीम्)उत्तराम्। वामभागवर्तमानाम् (सोमः) षु गतौ ऐश्वर्ये च-मन्। पुरुषार्थी (राजा)भूपतिः) (सप्तर्षिभिः) शीर्षण्यसप्तगोलकैः सह (हुते) होमे (आहुतिम्) दानक्रियाम् (अन्नादीम्) म० ६। जीवनरक्षिकाम् (आहुत्या) यज्ञाग्नौ दानक्रियया (अन्नाद्या)जीवनरक्षिकया। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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    विषय

    सोमराजा+अनादी ज्ञानयज्ञाहुति

    पदार्थ

    १. (स:) = वह व्रात्य (यत्) = जब उदीचीम् [उद् अञ्च] उन्नति की दिशा की ओर (अनुव्यचलत्) = चला तो (सोमः) = सौम्य, शान्त व (राजा) = दीप्तजीवनवाला भूत्वा बनकर अनुव्यचलत क्रमशः आगे बढ़ा। सौम्यता व ज्ञानदीप्त जीवन में ही उन्नति सम्भव है। २. (यः एवं वेद) = जो इस तत्त्व को समझ लेता है कि उन्नति के लिए सौम्य, दीप्त जीवन की आवश्यकता है वह (सप्तर्षिभि:) = 'दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँखें व मुख' रूप सप्तर्षियों से हते-किये जानेवाले ज्ञानयज्ञ में (आहुतिम्) = ज्ञेय विषयों की आहुति को (अन्नादी कृत्वा) = अन्न खानेवाली बनाकर आगे बढ़ता है। इस (अन्नाद्या आहुत्या) = अन्न को खानेवाली, विषयों की ज्ञानयज्ञ में दी जानेवाली आहुति से ही यह (अन्नं अत्ति) = अन्न को खाता है। उसी अन्न को खाता है जो ज्ञानेन्द्रियों को अपने कार्य में सक्षम करे।

    भावार्थ

    हम सौम्य व ज्ञानदीप्त जीवनवाले बनते हुए जीवन में ऊर्ध्वगतिवाले हों। उन्हीं अन्नों का सेवन करें जो ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञानप्राप्ति के कार्य में सक्षम करें।

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    भाषार्थ

    (सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य (यद्) जो (उदीचीम्) और उन्नति की ओर ले जाने वाली (दिशम्) दिशा अर्थात् निर्देश या उद्देश्य को (अनु) लक्ष्य करके (व्यचलत्) विशेषतया चला, वह (सोमः) चन्द्रसमान शान्तरूप या सोमशक्ति वाला और (राजा) इन्द्रियों का राजा अर्थात् वशयिता या शासक (भूत्वा) हो कर (अनु) तदनुसार (व्यचलत्) विशेषतया चला। वह (सप्तर्षिभिः) सात ऋषियों द्वारा (हुतः) अन्नाहुति को प्राप्त हुआ (आहुतिम्) सप्तर्षियों द्वारा प्राप्त आहुति को (अन्नादीम्) अन्न भोगी (कृत्वा) करके चला।

    टिप्पणी

    [उदीचीम् = उद् (उन्नति) + अञ्च् (गतौ)। सोमः = चन्द्रसमान शान्तरूप, या वीर्य रक्षा की दृष्टि वाला। वीर्यपक्ष में सोम+अच् (अर्श आद्यच्, अष्टा० ५।२।१२७)। सोमः चन्द्रमाः (उणा० १।१४०) महर्षि दयानन्द। सोमः=वीर्यम् (अथर्व० १४।१।२-५)। सप्तर्षिभिः =‍५ ज्ञानेन्द्रियां, मन और विद्या । यथा "सप्त ऋषयः प्रतिहिता शरीरे" (यजु० ३४।५५)। सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तम्यातानि (निरु० १२।४।३८)। ये सात शक्तियां सत्त्वमय हो कर जब ऋषिरूप हो जाती हैं, तब इन द्वारा ज्ञान पूर्वक दी गई अन्नाहूति, वस्तुतः आहुतिरूप हो कर, जीवन को यज्ञमय बना देती है। तब व्यक्ति द्वारा अन्नग्रहण आहुतिरूप हो जाता है]।

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    विषय

    व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।

    भावार्थ

    (सः) वह (यद्) जब (उदीचीम् दिशम् अनुव्यचलत्) उदीची दिशा को चला तो वह (सोमः राजा भूत्वा) सोम राजा होकर (आहुतिम् अनादीम् कृत्वा सप्तर्षिभिः हुतः) आहुति को पृथिवी के समस्त भोग्य पदार्थों का भोक्ती बनाकर स्वयं सप्तर्षियों द्वारा प्रदीप्त होकर (अमुव्य चलत्) चला। (आहुत्या अन्नाद्या) आहुति रूप अन्न की भोक्तृ शक्ति से वह (अन्नम् अत्ति) अन्न का भोग करता है (एः एवं वेद) जो व्रात्य के इस स्वरूप का साक्षात् करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    When he moved into the northern direction, he became Ruler Soma of the strength of peace, and thus moved. He made the oblation offered by seven sages as the consumer of food (and thus he gains the strength and peace of mind and senses).

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    Translation

    When he follows the course to the northern quarter, he follows it becoming the shining Soma (cure-plant) offered by the seven-seers and making the offering enjoying of food.

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    Translation

    He, when walks towards northern region. walks having become the resplendent, Soma offered by seven organs of man and making the oblation consumer of food.

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    Translation

    He, when he went away to the northern region, went away having become energetic like a king, and having made the seven Rishis’ oblation a preserver of life.

    Footnote

    Seven Rishis: Two eyes, two ears, two nostrils and mouth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७, ८−(उदीचीम्)उत्तराम्। वामभागवर्तमानाम् (सोमः) षु गतौ ऐश्वर्ये च-मन्। पुरुषार्थी (राजा)भूपतिः) (सप्तर्षिभिः) शीर्षण्यसप्तगोलकैः सह (हुते) होमे (आहुतिम्) दानक्रियाम् (अन्नादीम्) म० ६। जीवनरक्षिकाम् (आहुत्या) यज्ञाग्नौ दानक्रियया (अन्नाद्या)जीवनरक्षिकया। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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