अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 22
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदासुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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प्रा॒णेना॑न्ना॒देनान्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒णेन॑ । अ॒न्न॒ऽअ॒देन॑ । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑॥१४.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राणेनान्नादेनान्नमत्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठप्राणेन । अन्नऽअदेन । अन्नम् । अत्ति । य: । एवम् । वेद॥१४.२२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथिके उपकार का उपदेश।
पदार्थ
वह [अतिथि] (अन्नादेन)जीवनरक्षक (प्राणेन) प्राण से (अन्नम्) जीवन की (अत्ति) रक्षा करता है, (यः) जो (एवम्) व्यापक परमात्मा को (वेद) जानता है ॥२२॥
भावार्थ
मन्त्र १, २ के समान॥२१, २२॥
टिप्पणी
२१, २२−(प्रजाः)जीवान् (प्रजापतिः) जीवपालः (प्राणम्) आत्मबलम् (प्राणेन) आत्मबलेन। अन्यत्पूर्ववत्-म० १, २ ॥
विषय
प्रजापति+अन्नाद प्राण
पदार्थ
१. (सः) = वह (यत्) = जब (प्रजाः अनुव्यचलत्) = प्रजाओं के हित का लक्ष्य करके गतिवाला हुआ तब (प्रजापति: भूत्वा अनुव्यचलत्) = प्रजाओं का रक्षक बनकर अनुकूल गतिवाला हुआ। २. इस समय यह (प्राणम् अन्नादं कृत्वा) = प्राण को अन्न खानेवाला करके चला, अर्थात् केवल प्राण धारण के उद्देश्य से ही उसका भोजन होता था। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार समझ लेता है कि वह खाने के लिए नहीं आया, अपितु जीवन के लिए खाना है, वह (अन्नादेन प्राणेन अन्नम् अत्ति) = अन्न को खानेवाले प्राण से अन्न को खाता है-प्राणधारण के लिए ही उसका भोजन होता है।
भावार्थ
हम प्राणधारण के लिए-जीवन की रक्षा के लिए भोजन करें। जीवन को प्रजाहित में तत्पर करें-प्राजापत्ययज्ञ में जीवन की आहुति दें।
भाषार्थ
(यः) जो व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता और तदनुसार आचरण करता है, वह (अन्नादेन ) अन्नभोजी (प्राणेन) प्राण की दृष्टि से (अन्नम्, अत्ति) अन्न खाता है। अर्थात् प्राण की परिपुष्टि की दृष्टि से अन्न खाता है, भोगदृष्टि से नहीं।
विषय
व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।
भावार्थ
(सः यत् प्रजाः अनुव्यचलत् प्रजापतिः भूत्वा प्राणम् अन्नादं कृत्वा अनु-वि-अचलत्) वह जब प्रजाओं की और चला तब वह स्वयं प्रजापति होकर प्राण को अन्नाद बना कर चला। (य एवं वेद) जो इस प्रकार के व्रात्य के स्वरूप को जानता है (प्राणेन अन्नादेन) प्राण रूप अन्नाद से (अन्नम् अत्ति) अन्न का भोग करता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
The man who knows this eats food, taking, and thus making, Pranic energy as the receiver consumer of food and giver of energy.
Translation
With vital breath as enjoyer of food, he enjoyes food, who knows it thus.
Translation
He who is the knower of this eats grain with Prana consuming food.
Translation
He who hath this knowledge of the Omnipresent God, preserves life wjth spiritual force as life-preserver.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२१, २२−(प्रजाः)जीवान् (प्रजापतिः) जीवपालः (प्राणम्) आत्मबलम् (प्राणेन) आत्मबलेन। अन्यत्पूर्ववत्-म० १, २ ॥
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