अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 16
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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स्वा॑हाका॒रेणा॑न्ना॒देनान्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्वा॒हा॒ऽका॒रेण॑ । अ॒न्न॒ऽअ॒देन॑ । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१४.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वाहाकारेणान्नादेनान्नमत्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठस्वाहाऽकारेण । अन्नऽअदेन । अन्नम् । अत्ति । य: । एवम् । वेद ॥१४.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथिके उपकार का उपदेश।
पदार्थ
वह [अतिथि] (अन्नादेन)जीवनरक्षक (स्वाहाकारेण) वेदविद्याप्रचार से (अन्नम्) जीवन की (अत्ति) रक्षाकरता है, (यः) जो (एवम्) व्यापक परमात्मा को (वेद) जानता है ॥१६॥
भावार्थ
मन्त्र १, २ के समान॥१५, १६॥
टिप्पणी
१५, १६−(मनुष्यान्)मननशीलान् पुरुषान् (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी (स्वाहाकारम्) स्वाहा वाङ्नाम-निघ०१।११। वेदविद्याप्रचारम् (स्वाहाकारेण) वेदविद्याप्रचारेण। अन्यत् पूर्ववत्-म०१, २ ॥
विषय
अग्नि+स्वाहाकार अन्नाद
पदार्थ
१. (स:) = वह (यत्) = जब (मनुष्यान् अनुव्यचलत्) = मनुष्यों के अनुकूल गतिवाला हुआ, अर्थात् जब उसने एक उत्तम मानव बनने का निश्चय किया तब (अग्निः भूत्वा अनुव्यचलत्) = अग्नि बनकर चला-निरन्तर आगे बढ़नेवाला प्रकाशमय उत्साहवाला [अग्नि-उत्साह]। २. (यः एवं वेद) = जिसने यह समझ लिया कि उत्तम सन्तान वही है जो आगे बढ़नेवाला, प्रकाशमय व उत्साहवाला'है, तो वह (स्वाहाकारम् अन्नादं कृत्वा) = स्वाहाकार को अन्नाद बनाकर चला। यज्ञ करके यज्ञशेष को खाने की वृत्तिवाला बना। यह व्यक्ति (अन्नादेन स्वाहाकारेण अन्न अत्ति) = अन्न को खानेवाले स्वाहाकार से ही अन्न को खाता है। पहले अग्नये स्वाहा' और पीछे 'उदराय'। यह उसका जीवन-सूत्र बनता है।
भावार्थ
उत्तम मानव वही है जो 'अग्रगतिवाला, प्रकाश व उत्साहवाला है। यह सदा यज्ञशेष अमृत का सेवन करता है।
भाषार्थ
(यः) जो व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता और तदनुसार आचरण करता है, वह (अन्नादेन) अन्न खिलाने वाले (स्वाहाकारेण) स्वाहोच्चारण द्वारा (अन्नम्, अत्ति) अन्न खाता है।
विषय
व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।
भावार्थ
(सः यत् मनुष्यान् अनुव्यचलत्) वह व्रात्य प्रजापति जब मनुष्यों के प्रति चला तो (अग्निः भूत्वा स्वाहाकारम् अन्नादं कृत्वा अनुव्यचलत्) वह स्वयं अग्नि होकर स्वाहाकार को अन्नाद बना कर चला। (स्वाकारेण अन्नादेन अन्नम् अत्ति य एवं वेद) स्वाहाकार रूप अन्नाद से ही वह अन्न भोग करता है जो व्रात्य के इस स्वरूप को जानता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
The man who knows this eats food, taking, and thus making, Svaha, yajnic fidelity, as the receiver, consumer and giver of food for strength and cohesion.
Translation
With the utterance of svaha as enjoyer of food, he enjoys food, whoso knows it thus.
Translation
He, who possesses the knowledge of this eats grain with Vashatkara consuming food.
Translation
He who hath this knowledge of the Omnipresent God preserves life with the propagation of Vedic doctrines as life-preserver.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५, १६−(मनुष्यान्)मननशीलान् पुरुषान् (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी (स्वाहाकारम्) स्वाहा वाङ्नाम-निघ०१।११। वेदविद्याप्रचारम् (स्वाहाकारेण) वेदविद्याप्रचारेण। अन्यत् पूर्ववत्-म०१, २ ॥
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