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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 21
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - प्राजापत्या त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    स यत्प्र॒जा अनु॒व्यच॑लत्प्र॒जाप॑तिर्भू॒त्वानु॒व्यचलत्प्रा॒णम॑न्ना॒दं कृ॒त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । यत् । प्र॒ऽजा: । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । प्र॒जाऽप॑ति: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । प्रा॒णम् । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृ॒त्वा ॥१४.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स यत्प्रजा अनुव्यचलत्प्रजापतिर्भूत्वानुव्यचलत्प्राणमन्नादं कृत्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । यत् । प्रऽजा: । अनु । विऽअचलत् । प्रजाऽपति: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । प्राणम् । अन्नऽअदम् । कृत्वा ॥१४.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 21
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथिके उपकार का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [व्रात्यअतिथि] (यत्) जब (प्रजाः अनु) प्रजाओं [प्राणियों] की ओर (व्यचलत्) विचरा, वह (प्रजापतिः) प्रजापति [प्राणियों का रक्षक] (भूत्वा) होकर और (प्राणम्) प्राण [आत्मबल] को (अन्नादम्) जीवनरक्षक (कृत्वा) करके (अनुव्यचलत्) लगातार चला गया॥२१॥

    भावार्थ

    मन्त्र १, २ के समान॥२१, २२॥

    टिप्पणी

    २१, २२−(प्रजाः)जीवान् (प्रजापतिः) जीवपालः (प्राणम्) आत्मबलम् (प्राणेन) आत्मबलेन। अन्यत्पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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    विषय

    प्रजापति+अन्नाद प्राण

    पदार्थ

    १. (सः) = वह (यत्) = जब (प्रजाः अनुव्यचलत्) = प्रजाओं के हित का लक्ष्य करके गतिवाला हुआ तब (प्रजापति: भूत्वा अनुव्यचलत्) = प्रजाओं का रक्षक बनकर अनुकूल गतिवाला हुआ। २. इस समय यह (प्राणम् अन्नादं कृत्वा) = प्राण को अन्न खानेवाला करके चला, अर्थात् केवल प्राण धारण के उद्देश्य से ही उसका भोजन होता था। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार समझ लेता है कि वह खाने के लिए नहीं आया, अपितु जीवन के लिए खाना है, वह (अन्नादेन प्राणेन अन्नम् अत्ति) = अन्न को खानेवाले प्राण से अन्न को खाता है-प्राणधारण के लिए ही उसका भोजन होता है।

    भावार्थ

    हम प्राणधारण के लिए-जीवन की रक्षा के लिए भोजन करें। जीवन को प्रजाहित में तत्पर करें-प्राजापत्ययज्ञ में जीवन की आहुति दें।

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    भाषार्थ

    (सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य (यत्) जो (प्रजाः) उत्पापक वीर्य की शक्तियों को (अनु) लक्ष्य करके (व्यचलत्) विशेषतया चला, वह (प्रजापतिः) वीर्य का रक्षक (भूत्वा) होकर (व्यचलत्) विशेषतया चला, (प्राणम्) प्राणशक्ति को (अन्नादम्) अन्नभोजी (कृत्वा) कर के।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में 'प्रजा' पद वीर्यार्थक है। प्रजा=semen (आप्टे)। योग शक्ति के संवर्धन में ऊर्ध्वरेतस् होना आवश्यक है। "श्रद्धा वीर्य स्मृति समाधि प्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्" (योग १।२०) में वीर्य को योग संवर्धन में सहायक माना है वीर्य द्वारा प्राणशक्ति बढ़ती है, जो कि प्राणायाम तथा जीवन में सहायक होती है। प्राणाग्निहोत्री प्राणशक्ति से संवर्धन की दृष्टि से तदुपयोगी अन्न खाता है]

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    विषय

    व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।

    भावार्थ

    (सः यत् प्रजाः अनुव्यचलत् प्रजापतिः भूत्वा प्राणम् अन्नादं कृत्वा अनु-वि-अचलत्) वह जब प्रजाओं की और चला तब वह स्वयं प्रजापति होकर प्राण को अन्नाद बना कर चला। (य एवं वेद) जो इस प्रकार के व्रात्य के स्वरूप को जानता है (प्राणेन अन्नादेन) प्राण रूप अन्नाद से (अन्नम् अत्ति) अन्न का भोग करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    He moved towards the people, he became Prajapati and thus moved. He made Prana as the consumer of food for energy.

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    Translation

    When he follows the creatures, he follows them becoming the Lord of the creatures and the vital breath enjoyer of food.

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    Translation

    He, when walks towards the people, walks having become Prajapati and making vital breath consumer of food.

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    Translation

    He, when he went away to living beings, went away having become protector of humanity and having made spiritual force a preserver of life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २१, २२−(प्रजाः)जीवान् (प्रजापतिः) जीवपालः (प्राणम्) आत्मबलम् (प्राणेन) आत्मबलेन। अन्यत्पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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