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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 23
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - निचृत आर्ची पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    सयत्सर्वा॑नन्तर्दे॒शाननु॒ व्यच॑लत्परमे॒ष्ठीभू॒त्वानु॒व्यचल॒द्ब्रह्मा॑न्ना॒दं कृ॒त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । यत् । सर्वा॑न् । अ॒न्त॒:ऽदे॒शान् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । प॒र॒मे॒ऽस्थी। भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । ब्रह्म॑ । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृ॒त्वा ॥१४.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सयत्सर्वानन्तर्देशाननु व्यचलत्परमेष्ठीभूत्वानुव्यचलद्ब्रह्मान्नादं कृत्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । यत् । सर्वान् । अन्त:ऽदेशान् । अनु । विऽअचलत् । परमेऽस्थी। भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । ब्रह्म । अन्नऽअदम् । कृत्वा ॥१४.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथिके उपकार का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [व्रात्यअतिथि] (यत्) जब (सर्वान्) सब (अन्तर्देशान् अनु) बीचवाले देशों की ओर (व्यचलत्)विचरा, वह (परमेष्ठी) परमेष्ठी [सबसे ऊँचे पदवाला] (भूत्वा) होकर और (ब्रह्म)परब्रह्म [जगदीश्वर] को (अन्नादम्) जीवनरक्षक (कृत्वा) करके (अनुव्यचलत्)लगातार चला गया ॥२३॥

    भावार्थ

    मन्त्र १, २ के समान॥२३, २४॥

    टिप्पणी

    २३, २४−(सर्वान्)समस्तान् (अन्तर्देशान्) मध्यदेशान् (परमेष्ठी) सर्वोपरिपदस्थः (ब्रह्म)परमात्मानम् (ब्रह्मणा) परमात्मना सह। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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    विषय

    परमेष्ठी+अन्नाद ब्रह्म

    पदार्थ

    १. (स:) = वह (यत्) = जब (सर्वान् अन्तर्देशान्) = सब अन्तर्देशों में प्रजाओं के निवासस्थानों में (अनुव्यचलत्) = अनुकूलता से गतिवाला हुआ तो (परमेष्ठी भूत्वा अनुव्यचलत्) = परम स्थान में स्थित होता हुआ गतिवाला हुआ। प्रजाहित के लिए सब अन्तर्देशों में भ्रमण ही मानवजीवन का चरमोत्कर्ष है। इस समय यह (ब्रह्म अन्नादं कृत्वा) = ब्रह्म को ही अन्नाद बनाकर चला। भोजन को केवल इसलिए खाने लगा कि स्वस्थ शरीर में मैं ब्रह्मदर्शन कर पाऊँगा। २. (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार प्रजाहित के लिए सब अन्तर्देशों में विचरण को आवश्यक समझ लेता है, वह परमेष्ठी [व्रात्य] (ब्रह्मणा अन्नादेन अन्नम् अत्ति) = अन्न को खानेवाले ब्रह्म से ही अन्न को खाता है भोजन का उद्देश्य ही ब्रह्म-प्राप्ति ही जानता है। जो भोजन ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग पर चलने में सहायक है, उन्हीं को करता है।

    भावार्थ

    प्रजाहित के लिए सब अन्तर्देशों में विचरते हुए हम 'परमेष्ठी' बनें। उन्हीं भोजनों को करें जो हमारी प्रवृत्तियों को ब्रह्मप्रवण करनेवाले हों।

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    भाषार्थ

    (सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य (यत्) जो (सर्वान् अन्तर्देशान्) सब अर्थात् पूर्व के मन्त्रों में उक्त तथा उन के अन्य भी निर्देशों या उद्देश्यों को (अनु) लक्ष्य कर के (व्यचलत्) विशेषतया चला, वह (परमेष्ठी) परम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म में स्थित (भूत्वा) हो कर अर्थात् ब्रह्मनिष्ठ होकर (अनु) तदनुसार (व्यचलत्) चला, (ब्रह्म) ब्रह्म को (अन्नादम्) अन्नभोगी (कृत्वा) कर के।

    टिप्पणी

    [व्याख्या - पूर्वोक्त मन्त्रों में योगमुद्रासम्पन्न जीवन्मुक्त व्रात्यसंन्यासी का वर्णन हुआ है (काण्ड १५। सू० ६, ७) और वर्तमान सूक्त १४ में व्रात्य वर्णन प्राणाग्निहोत्रीरूप में हुआ है। सूक्त १४, मन्त्र २३ में उसे परमेष्ठी पद द्वारा ब्रह्मनिष्ठ कहा है, उसे ब्रह्म का साक्षात् द्रष्टा कहा है, इस अवस्था में ब्रह्म अन्नाद हुआ है। व्रात्य ने ब्राह्मीस्थिति की परिपुष्टि के लिए ब्रह्म के प्रति अन्न का उपहार देना है। वह ब्रह्मोचित अन्नोपहार है "ईश्वरप्रणिधान", ईश्वर के प्रति सर्वस्व समर्पण; निज शक्तियों, इच्छाओं और निज आत्मा का समर्पण।

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    विषय

    व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।

    भावार्थ

    (सः यत् सर्वान् अन्तर्दशान् अनु वि-अचलत्) वह जो सब ‘अन्तर्देश’ अर्थात् उपदिशाओं बीच के समस्त देशों में चला तो (परमेष्टी भूत्वा ब्रह्म अन्नादं कृत्वा अनुव्यचलत्) स्वयं परमेष्ठी होकर ब्रह्म को अन्नाद बनाकर चला। (ब्रह्मणा अन्नादेन अन्नम् अत्ति य एवं वेद) जो इस प्रकार व्रात्य प्रजाप्रति के स्वरूप को जानता है वह ‘ब्रह्म’ रूप अन्नाद से अन्न का भोग करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    He moved into all the interdirections of space, he became Parameshthi, the highest power, and thus moved. He made Brahma as the consumer of food.

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    Translation

    When he follows the course of all the intermediate quarters, he follows it becoming the Lord dwelling in the highest abode and making the knowledge enjoyer of food.

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    Translation

    He, when walks towards all the intermediate spaces between regions walks having become Parmesthin and making Brahma consumer of food.

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    Translation

    He, when he went away to all the intermediate regions, went away having become the lord of all and having made God the Preserver of life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३, २४−(सर्वान्)समस्तान् (अन्तर्देशान्) मध्यदेशान् (परमेष्ठी) सर्वोपरिपदस्थः (ब्रह्म)परमात्मानम् (ब्रह्मणा) परमात्मना सह। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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