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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - स्वराट् गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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    स यत्प॒शूननु॒व्यच॑लद्रु॒द्रो भू॒त्वानु॒व्यचल॒दोष॑धीरन्ना॒दीः कृ॒त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । यत् । प॒शून् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । रु॒द्र: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । ओष॑धी: । अ॒न्न॒ऽअ॒दी: । कृ॒त्वा ॥१४.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स यत्पशूननुव्यचलद्रुद्रो भूत्वानुव्यचलदोषधीरन्नादीः कृत्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । यत् । पशून् । अनु । विऽअचलत् । रुद्र: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । ओषधी: । अन्नऽअदी: । कृत्वा ॥१४.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथिके उपकार का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [व्रात्यअतिथि] (यत्) जब (पशून् अनु) जीव-जन्तुओं की ओर (व्यचलत्) विचरा, वह (रुद्रः)रुद्र [शत्रुनाशक] (भूत्वा) होकर और (ओषधीः) ओषधियों [जौ चावल आदि] को (अन्नादीः) जीवनरक्षक (कृत्वा) करके (अनुव्यचलत्) लगातार चला गया ॥११॥

    भावार्थ

    मन्त्र १, २ के समान॥११, १२॥

    टिप्पणी

    ११, १२−(पशून्)जीवजन्तून् (रुद्रः) रुङ् हिंसायाम्-क्विप् तुक् च+रुङ् हिंसायाम्-ड। शत्रुनाशकः (ओषधीः) यवव्रीह्यादिरूपाः (ओषधीभिः) यवव्रीह्यादिभिः (अन्नादीभिः)जीवनरक्षिकाभिः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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    विषय

    रुद्र-अन्नादी ओषधी

    पदार्थ

    १. (स:) = वह (यत्) = जब (पशुं अनुव्यचलत्) = पशुओं के अनुकूल गतिवाला हुआ-पशुओं को किसी प्रकार की हानि न पहुँचानेवाला बनकर चला तब (रुद्रः भूत्वा अनुव्यचलत्) = [रुत् द्र] रोगों को दूर भगानेवाला बनकर चला। किसी को हानि न पहुँचाना ही अपने को हानि से बचाने का उपाय है। (यः एवं वेद) = जो इस तत्त्व को समझ लेता है कि रोगों से बचने के लिए आवश्यक है कि हम किन्हीं भी पशुओं को हानि न पहुँचाएँ, वह (ओषधी: अन्नादीः कृत्वा) = ओषधियों को ही अन्नभक्षण करनेवाला बनाकर चलता है। दोष-दहन करनेवाले अनों का ही सेवन करता है [उष दाहे+धी] (अन्नादीभिः ओषधीभिः) = अन्नों को खानेवाली दोषदाधकरी स्थिति से ही वह अन्न खाता है।

    भावार्थ

    हम नीरोग बनने के लिए किसी भी पशु के अहिंसन का व्रत लें। उन्हीं भोजनों को खाएँ जो शरीर के दोषों का दहन करनेवाले हैं।

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    भाषार्थ

    (सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य (यद्) जो (पशून्) पशुओं को (अनु) लक्ष्य कर के (व्यचलद्) विशेषतया चला, वह (रुद्रः भूत्वा) रुद्र होकर (अनु) तदनुसार (व्यचलद्) चला, (ओषधीः) ओषधियों को (अन्नादीः) अन्न खाने वाली (कृत्वा) करके।

    टिप्पणी

    [रुद्रः= रु (शब्दे) + द्रु। रोगजन्यं दुःखमयं रवं शब्दं द्रावयति, अपगमयतीतिरुद्रः वैद्यः। इसी लिये रुद्र अर्थात् शिव को वैद्यनाथ भी कहते हैं। प्राणाग्निहोत्री व्रात्यः वैद्यरूप होकर ऐसे अन्न का सेवन करे जोकि उस के शरीरस्थ ओषधियों को स्वस्थ तथा परिपुष्ट करे। यह यह अन्न सादा होना चाहिये; जैसे कि पशु सादा घास खाते और स्वस्थ तथा पुष्ट रहते हैं। ओषधीः अन्नादीः = इस द्वारा शरीरस्थ ओषधियों को अन्नादीः, अर्थात् अन्न का भक्षण करने वाली कहा है, ताकि शरीरस्थ ओषधियां शक्ति सम्पन्न हो सकें। अथर्ववेद में ४ प्रकार की ओषधियां कही हैं- आथर्वणीः, आङ्गिरसीः, दैवीः, मनुष्यजाः। यथा "आथर्वणीराङ्गिरसीर्दैवीर्मनुष्यजा उत। ओषधयः प्र जायन्ते यदा त्वं प्राण जिन्वसि"॥ ११।४|१६।। इन ४ प्रकार की ओषधियों में आथर्वणीः और आङ्गिरसीः ओषधियां शरीरस्थ ओषधियां हैं, जिनके परिपोषणार्थ तदनुकूल अन्न का भोजन करना चाहिये। आथर्वणीः ओषधियां हैं मनोबल, या दृढ़ शिवसंकल्प, जोकि मन की स्थिरता और बल पर आधारित होते हैं। आथर्वणीः= अ + थर्वतिः चरति कर्मा। अर्थात् मन की चञ्चलता के न होते, उस की स्थिरता पर आश्रित औषधियाँ। मनोबल या दृढ़ शिवसंकल्प द्वारा रोग चिकित्सा या रोगोपचार किया जाता है। इसे WILL-POWER कहते हैं। Hypnotism तथा Suggestion,और mesmerism आथर्वणीः ओषधियां हैं। आङ्गिरसीः ओषधियां हैं पाचकाग्नि, और श्वास-प्रश्वास अर्थात् प्राणशक्ति तथा प्राणायाम। इन द्वारा भी रोगचिकित्सा या रोगोपचार होता है। पाचकाग्नि द्वारा कोष्ठबद्धता आदि की चिकित्सा होती है। प्राणशक्ति या प्राणायाम, रक्तशोधक होने से, शारीरिक रोगों का शामक तथा निवारक है। "तन्त्वा समिद्भिरङ्गिरो घृतेन वर्धयामसि।" (यजु० ३।३) द्वारा आधिदैविक दृष्टि में अङ्गिरा का अर्थ है अग्निहोत्राग्नि, और आध्यात्मिक दृष्टि में अङ्गिरा का अर्थ है प्राणाग्निहोत्र की अग्नि अर्थात् पाचकाग्नि। इसी प्रकार अङ्गिरा का अर्थ "प्राण" भी है। अङ्गिरा "अङ्गाना रसः प्राणो हि वा अङ्गाना रसस्तस्माद्यस्मात्कस्माच्चाङ्गात्प्राण उत्क्रामति तदेव तच्छुष्यतिष हि वा अङ्गाना रसः॥" (बृहदा० उप० व्रा० ३ खं० १९)। शुद्ध वायु के सेवन तथा श्वास-प्रश्वास के संयम अर्थात् प्राणायाम द्वारा, रक्त शोधन होकर रोग चिकित्सा होती है। इसी लिये श्वास-प्रश्वास को अश्विनी भी कहते हैं, जोकि शरीर में भिषक् अर्थात् वैद्य का काम करते रहते हैं, अश्विनौ देवानां१ भिषजौ" (श० ब्रा० ११।३३।७)। अश्विनौ का नाम नासत्यौ भी हैं, जिन की कि नासिका में सतत गति रहती है। नासात्यौ = नासा (नासिका) + अत्यौ (अत सातत्यगमने)। नासत्यौ के सम्बन्ध में कहा है कि ये "भुरण्यथः"२ शरीर का भरण-पोषण करते हैं, तथा "भिषज्यथः" शरीर के रोगों की चिकित्सा भी करते हैं (अथर्व० २०।१४०।१)। नासत्यौ = नासिका प्रभवौ बभूवतुरिति वा" (निरु० ६।३।१३)। नासिका प्रभवौ श्वास-प्रश्वास ही हैं, जोकि आङ्गिरसी ओषधिरूप हैं] [१. देवानाम्= इन्द्रियाणाम्। इन्द्रियों के श्वास-प्रश्वास के निग्रह अर्थात् प्राणायाम द्वारा शरीर के दोष दग्ध हो जाते हैं। "तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्” (मनु०)। २.भुरण्यथ: का अर्थ "शीघ्र गति करने वाले" भी होता है। श्वास-प्रश्वास शीघ्रता से नासिका में गति करते रहते हैं। भुरण्यति यतिकर्मा (निघं० २।१४), भुरण्युः क्षिप्रनाम (निघं० २।१५)।]

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    विषय

    व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।

    भावार्थ

    (सः) वह प्रजापति व्रात्य (यत्) जब (पशून् अनुव्यचलत्) पशुओं की ओर चला तब (रूद्रः भूत्वा ओषधी अन्नादीः कृत्वा अनुव्यचलत्) वह स्वयं ‘रुद्र’ होकर और औषधियों को अन्न की भोक्ती बनाकर (अनुव्यचलत्) चला। (यः एवं वेद) जो व्रात्य के इस प्रकार के स्वरूप को जानलेता है वह (ओषधीभिः अन्नादीभिः अन्नम् अत्ति) ओषधिस्वरूप अन्न की भोक्कशक्तियों से अन्न का भोग करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    When he moved into living beings, he became Rudra, health giver, and thus moved. He made Oshadhis, herbs and trees as the consumers of food.

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    Translation

    When he follows the animals, he follows them becoming the vital breath (Rudra) and making the herbs enjoyers of food.

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    Translation

    He, when walks towards animals, walks having become Rudra and making the herbs consumers of food.

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    Translation

    He, when he went away to animals, went away having become Rudra and having made herbs preservers of life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११, १२−(पशून्)जीवजन्तून् (रुद्रः) रुङ् हिंसायाम्-क्विप् तुक् च+रुङ् हिंसायाम्-ड। शत्रुनाशकः (ओषधीः) यवव्रीह्यादिरूपाः (ओषधीभिः) यवव्रीह्यादिभिः (अन्नादीभिः)जीवनरक्षिकाभिः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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