अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
विश्वं॑ वा॒युः स्व॒र्गो लो॒कः कृ॑ष्ण॒द्रं वि॒धर॑णी निवे॒ष्यः ॥
स्वर सहित पद पाठविश्व॑म् । वा॒यु: । स्व॒:ऽग: । लो॒क: । कृ॒ष्ण॒ऽद्रम् । वि॒ऽधर॑णी । नि॒ऽवे॒ष्य: १।१२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वं वायुः स्वर्गो लोकः कृष्णद्रं विधरणी निवेष्यः ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वम् । वायु: । स्व:ऽग: । लोक: । कृष्णऽद्रम् । विऽधरणी । निऽवेष्य: १।१२.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सृष्टि की धारणविद्या का उपदेश।
पदार्थ
[सृष्टि में] (विश्वम्) व्यापनसामर्थ्य (वायुः) वायु, (कृष्णद्रम्) आकर्षण का वेग (स्वर्गः) सुखदायक (लोकः) घर, (विधरणी) विविध धारणशक्ति (निवेष्यः) सेना ठहरने के स्थान [के समान है] ॥४॥
भावार्थ
मन्त्र ३ के समान है ॥४॥
टिप्पणी
४−(विश्वम्) व्यापनसामर्थ्यम् (वायुः) (स्वर्गः) सुखप्रापकः (लोकः) गृहम् (कृष्णद्रम्) कृषेर्वर्णे। उ० ३।४। कृष विलेखने-नक्+द्रु गतौ-ड प्रत्ययः। आकर्षणस्य द्रावो वेगः (विधरणी) विविधधारणशक्तिः (निवेष्यः) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। नि+विष्लृ व्याप्तौ-ण्यत्। सेनानिवासः। निवेशः ॥
विषय
वायु से उपसद तक
पदार्थ
१. (वायुः विश्वम्) = वायु उसके सब अवयव हैं। (स्वर्ग: लोक:) = स्वर्गलोक (कृष्णद्रम्) = आकर्षक गति है [कृष्ण हु], विधरणी लोकों को पृथक्-पृथक् स्थापित करनेवाली शक्ति (निवेष्यः) = उसका बैठने का कूल्हा है। २. (श्येन:) = श्येनयाग (क्रोड:) = उसका गोद-भाग है, (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष (पाजस्यम्) = पेट है, (ब्रहस्पतिः ककुद्) = बृहस्पति उसका ककुद है। (बृहती:) = ये विशाल दिशाएँ (कीकसा:) = उसके गले के मोहरे हैं। ३. (देवानां पत्नी:) = 'सूर्या, इन्द्राणी, वरुणानी, अग्नाणी' आदि देवपलियाँ (पृष्टयः) = पृष्ठ के मोहरे, (उपसदः) = उपसद इष्टियाँ (पर्शवः) = उसकी पसलियाँ हैं।
भावार्थ
वेदवाणी में प्रभु के बनाये हुए वायु आदि पदार्थों के ज्ञान के साथ कर्तव्यभूत उपसद आदि इष्टियों का भी प्रतिपादन किया गया है।
भाषार्थ
(विश्वम्) विशेषतया अन्तरिक्ष में गति करने वाली तथा बढ़ने [फैलने] वाली अन्तरिक्षस्थ वायु है (वायुः) गौ की श्वासोच्छ्वास की प्राणवायु है, (स्वर्गो लोकः) स्वर्ग लोक है (कृष्णद्रम् = कृष्णद्रुम्१) गहरे-हरे वृक्ष [गौ के लिये], (विधरणी) विस्तृत पृथिवी है (निवेष्यः) गौ के बैठने तथा विश्राम करने का स्थान [गोशाला]।
टिप्पणी
[विश्वम् = वि + श्वम् (टुओश्वि गतिवृद्ध्योः(भ्वादिः)। यथा “मातरिश्वा=मातरि [अन्तरिक्षे] + श्वयति गच्छति वर्द्धते वा (उणा० १।१५९। महर्षि दयानन्द)। विधरणी=वि + धरणी (the earth, आप्टे)।] [१. कृष्ण + द्रु (A tree) [वृक्ष] आप्टे।]
इंग्लिश (4)
Subject
Cow: the Cosmic Metaphor
Meaning
The world of existence is the life breath, greenery of life is paradisal bliss, cosmic balance is the resting place at the centre.
Translation
The world is his vital breath (vayuh), the world of eternal bliss (svarga) is his this world (krsnadra) are his tendons; the supporting earth is his back-bone.
Translation
The whole is like its vital air, the heavenly region like its throat-pipe and the terrestrial region which separates the celestial region is the joint of its leg.
Translation
The whole universe is life-breath. The throat is heavenly region. The earth is seating place
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(विश्वम्) व्यापनसामर्थ्यम् (वायुः) (स्वर्गः) सुखप्रापकः (लोकः) गृहम् (कृष्णद्रम्) कृषेर्वर्णे। उ० ३।४। कृष विलेखने-नक्+द्रु गतौ-ड प्रत्ययः। आकर्षणस्य द्रावो वेगः (विधरणी) विविधधारणशक्तिः (निवेष्यः) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। नि+विष्लृ व्याप्तौ-ण्यत्। सेनानिवासः। निवेशः ॥
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