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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः छन्दः - साम्नी बृहती सूक्तम् - गौ सूक्त
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    विश्वं॑ वा॒युः स्व॒र्गो लो॒कः कृ॑ष्ण॒द्रं वि॒धर॑णी निवे॒ष्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्व॑म् । वा॒यु: । स्व॒:ऽग: । लो॒क: । कृ॒ष्ण॒ऽद्रम् । वि॒ऽधर॑णी । नि॒ऽवे॒ष्य: १।१२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वं वायुः स्वर्गो लोकः कृष्णद्रं विधरणी निवेष्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वम् । वायु: । स्व:ऽग: । लोक: । कृष्णऽद्रम् । विऽधरणी । निऽवेष्य: १।१२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सृष्टि की धारणविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    [सृष्टि में] (विश्वम्) व्यापनसामर्थ्य (वायुः) वायु, (कृष्णद्रम्) आकर्षण का वेग (स्वर्गः) सुखदायक (लोकः) घर, (विधरणी) विविध धारणशक्ति (निवेष्यः) सेना ठहरने के स्थान [के समान है] ॥४॥

    भावार्थ

    मन्त्र ३ के समान है ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(विश्वम्) व्यापनसामर्थ्यम् (वायुः) (स्वर्गः) सुखप्रापकः (लोकः) गृहम् (कृष्णद्रम्) कृषेर्वर्णे। उ० ३।४। कृष विलेखने-नक्+द्रु गतौ-ड प्रत्ययः। आकर्षणस्य द्रावो वेगः (विधरणी) विविधधारणशक्तिः (निवेष्यः) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। नि+विष्लृ व्याप्तौ-ण्यत्। सेनानिवासः। निवेशः ॥

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    विषय

    वायु से उपसद तक

    पदार्थ

    १. (वायुः विश्वम्) = वायु उसके सब अवयव हैं। (स्वर्ग: लोक:) = स्वर्गलोक (कृष्णद्रम्) = आकर्षक गति है [कृष्ण हु], विधरणी लोकों को पृथक्-पृथक् स्थापित करनेवाली शक्ति (निवेष्यः) = उसका बैठने का कूल्हा है। २. (श्येन:) = श्येनयाग (क्रोड:) = उसका गोद-भाग है, (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष (पाजस्यम्) = पेट है, (ब्रहस्पतिः ककुद्) = बृहस्पति उसका ककुद है। (बृहती:) = ये विशाल दिशाएँ (कीकसा:) = उसके गले के मोहरे हैं। ३. (देवानां पत्नी:) = 'सूर्या, इन्द्राणी, वरुणानी, अग्नाणी' आदि देवपलियाँ (पृष्टयः) = पृष्ठ के मोहरे, (उपसदः) = उपसद इष्टियाँ (पर्शवः) = उसकी पसलियाँ हैं।

    भावार्थ

    वेदवाणी में प्रभु के बनाये हुए वायु आदि पदार्थों के ज्ञान के साथ कर्तव्यभूत उपसद आदि इष्टियों का भी प्रतिपादन किया गया है।

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    भाषार्थ

    (विश्वम्) विशेषतया अन्तरिक्ष में गति करने वाली तथा बढ़ने [फैलने] वाली अन्तरिक्षस्थ वायु है (वायुः) गौ की श्वासोच्छ्वास की प्राणवायु है, (स्वर्गो लोकः) स्वर्ग लोक है (कृष्णद्रम् = कृष्णद्रुम्१) गहरे-हरे वृक्ष [गौ के लिये], (विधरणी) विस्तृत पृथिवी है (निवेष्यः) गौ के बैठने तथा विश्राम करने का स्थान [गोशाला]।

    टिप्पणी

    [विश्वम् = वि + श्वम् (टुओश्वि गतिवृद्ध्योः(भ्वादिः)। यथा “मातरिश्वा=मातरि [अन्तरिक्षे] + श्वयति गच्छति वर्द्धते वा (उणा० १।१५९। महर्षि दयानन्द)। विधरणी=वि + धरणी (the earth, आप्टे)।] [१. कृष्ण + द्रु (A tree) [वृक्ष] आप्टे।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cow: the Cosmic Metaphor

    Meaning

    The world of existence is the life breath, greenery of life is paradisal bliss, cosmic balance is the resting place at the centre.

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    Translation

    The world is his vital breath (vayuh), the world of eternal bliss (svarga) is his this world (krsnadra) are his tendons; the supporting earth is his back-bone.

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    Translation

    The whole is like its vital air, the heavenly region like its throat-pipe and the terrestrial region which separates the celestial region is the joint of its leg.

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    Translation

    The whole universe is life-breath. The throat is heavenly region. The earth is seating place

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(विश्वम्) व्यापनसामर्थ्यम् (वायुः) (स्वर्गः) सुखप्रापकः (लोकः) गृहम् (कृष्णद्रम्) कृषेर्वर्णे। उ० ३।४। कृष विलेखने-नक्+द्रु गतौ-ड प्रत्ययः। आकर्षणस्य द्रावो वेगः (विधरणी) विविधधारणशक्तिः (निवेष्यः) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। नि+विष्लृ व्याप्तौ-ण्यत्। सेनानिवासः। निवेशः ॥

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