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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः छन्दः - आसुरी गायत्री सूक्तम् - गौ सूक्त
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    दे॒वानां॒ पत्नीः॑ पृ॒ष्टय॑ उप॒सदः॒ पर्श॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वाना॑म् । पत्नी॑: । पृ॒ष्टय॑: । उ॒प॒ऽसद॑: । पर्श॑व: ॥१२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवानां पत्नीः पृष्टय उपसदः पर्शवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवानाम् । पत्नी: । पृष्टय: । उपऽसद: । पर्शव: ॥१२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 7; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    विषय

    सृष्टि की धारणविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    [सृष्टि में] (देवानाम्) दिव्यगुणवाले [अग्नि, वायु आदि] पदार्थों की (पत्नीः) पालनशक्तियाँ (पृष्टयः) पसलियों की हड्डियों, (उपसदः) सङ्ग रहनेवाली [अग्नि वायु की तन्मात्राएँ] (पर्शवः) पसलियों [के समान हैं] ॥६॥

    भावार्थ

    जैसे शरीर की मोटी हड्डियों में पसलियाँ लगी हैं, वैसे ही अग्नि आदि की स्थूल और सूक्ष्म अवस्था का सम्बन्ध सृष्टि के साथ है ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(देवानाम्) दिव्यगुणवतामग्निवाय्वादीनाम् (पत्नीः) अ० २।१२।१। पालनशक्तयः (पृष्टयः) अ० ४।३।६। पार्श्वास्थीनि (उपसदः) संगताः सूक्ष्मतन्मात्राः (पर्शवः) स्पृशेः श्वण्शुनौ पृ च। उ० ५।२७। स्पृश स्पर्शने−शुन्, धातोश्च पृ इत्यादेशः। पार्श्वाधःस्थास्थीनि ॥

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    विषय

    वायु से उपसद तक

    पदार्थ

    १. (वायुः विश्वम्) = वायु उसके सब अवयव हैं। (स्वर्ग: लोक:) = स्वर्गलोक (कृष्णद्रम्) = आकर्षक गति है [कृष्ण हु], विधरणी लोकों को पृथक्-पृथक् स्थापित करनेवाली शक्ति (निवेष्यः) = उसका बैठने का कूल्हा है। २. (श्येन:) = श्येनयाग (क्रोड:) = उसका गोद-भाग है, (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष (पाजस्यम्) = पेट है, (ब्रहस्पतिः ककुद्) = बृहस्पति उसका ककुद है। (बृहती:) = ये विशाल दिशाएँ (कीकसा:) = उसके गले के मोहरे हैं। ३. (देवानां पत्नी:) = 'सूर्या, इन्द्राणी, वरुणानी, अग्नाणी' आदि देवपलियाँ (पृष्टयः) = पृष्ठ के मोहरे, (उपसदः) = उपसद इष्टियाँ (पर्शवः) = उसकी पसलियाँ हैं।

    भावार्थ

    वेदवाणी में प्रभु के बनाये हुए वायु आदि पदार्थों के ज्ञान के साथ कर्तव्यभूत उपसद आदि इष्टियों का भी प्रतिपादन किया गया है।

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    भाषार्थ

    (देवानाम्) देवों की (पत्नीः) पत्नियां (पृष्टयः) गौ [बैल] की पीठ की अस्थियां हैं, (उपसदः) उपग्रह (पर्शवः) वक्षः स्थल की अस्थियां हैं।

    टिप्पणी

    [दिव्यगुणी-पतियों के लिये जैसे उन की पत्नियां आश्रय होती हैं वैसे बैल के पीठ की अस्थियां भारोद्वहन में आश्रय होती हैं। इस आश्रयरूपी साम्य द्वारा "देवानां पत्नी" को पृष्टयः कहा है। मन्त्र में "देवानां पत्नीः" द्वारा ब्रह्माण्ड की देवपत्नियां भी अभिप्रेत हैं, इन का वर्णन देखो (निरुक्त १२।४।४४) तथा (ऋ० ५।४६।७,८); यथा इन्द्राणी, अग्नायी, अश्विनी, रोदसी, वरुणानी। ये ब्रह्माण्ड की शक्तियां हैं जिन के द्वारा प्राणिजगत् का उपकार हो रहा है। गौ (बैल की पृष्टियां) अर्थात् पीठ की अस्थियां भी भारोद्वहन द्वारा प्राणिजगत् का उपकार करती हैं। 'उपसदः हैं उपग्रह, जोकि निज ग्रहों के समीप स्थित हुए उन की परिक्रमाएं करते हैं। (मन्त्र ५ मे बृहस्पति द्वारा ग्रह का वर्णन है, और मन्त्र ६ में उपसदः द्वारा उपग्रह का वर्णन हुआ है। उपग्रह का अभिप्राय है चन्द्रमा। चन्द्रमा शुक्लपक्ष में अष्टमी से पहिले, तथा कृष्णपक्ष में अष्टमी के पश्चात् षर्शु अर्थात् पसलियों के आकार का दृष्टिगोचर होता है। इस लिये इसे गौ की पसलियां कहा है। मन्त्रों में ब्रह्माण्ड के घटकों को गौ के अवयवों के रूप में वर्णित किया है। इस अभिप्राय से कहा है कि "एतद् वै विश्वरूपं सर्वरूपं गोरूपम् (२५) अर्थात् यह विश्व गोरूप है, गौ का रूप है]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cow: the Cosmic Metaphor

    Meaning

    The powers that sustain the forces of nature are ribs of the back, planets are ribs of the chest.

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    Translation

    The mistresses of the bounties of Nature are his side-bones; upasada ceremonies are his ribs.

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    Translation

    Devapatnyah, the physical forces of the worldly objects are like the back-bones while Upasad yajna are the ribs.

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    Translation

    The rearing forces of fire and air are the back-bones, the subtle elements of fire and air are the ribs.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(देवानाम्) दिव्यगुणवतामग्निवाय्वादीनाम् (पत्नीः) अ० २।१२।१। पालनशक्तयः (पृष्टयः) अ० ४।३।६। पार्श्वास्थीनि (उपसदः) संगताः सूक्ष्मतन्मात्राः (पर्शवः) स्पृशेः श्वण्शुनौ पृ च। उ० ५।२७। स्पृश स्पर्शने−शुन्, धातोश्च पृ इत्यादेशः। पार्श्वाधःस्थास्थीनि ॥

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