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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 12
    ऋषिः - गृत्समदः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३४
    1

    यः श॑म्ब॑रं प॒र्यत॑र॒त्कसी॑भि॒र्योऽचा॑रुका॒स्नापि॑बत्सु॒तस्य॑। अ॒न्तर्गि॒रौ यज॑मानं ब॒हुं जनं॒ यस्मि॒न्नामू॑र्छ॒त्स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । शम्ब॑रम् । परि॑ । अत॑र॒त् । क॑सीभि॒: । य: । अचा॑रु । का॒स्ना । अपि॑बत् । सु॒तस्य॑ ॥ अ॒न्त: । गि॒रौ । यज॑मानम् । ब॒हुम् । जन॒म् । यस्मि॑न् । आमू॑र्च्छ॒त् । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः शम्बरं पर्यतरत्कसीभिर्योऽचारुकास्नापिबत्सुतस्य। अन्तर्गिरौ यजमानं बहुं जनं यस्मिन्नामूर्छत्स जनास इन्द्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । शम्बरम् । परि । अतरत् । कसीभि: । य: । अचारु । कास्ना । अपिबत् । सुतस्य ॥ अन्त: । गिरौ । यजमानम् । बहुम् । जनम् । यस्मिन् । आमूर्च्छत् । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जिसने (शम्बरम्) मेघ [के समान उपकारी पुरुष] को (कसीभिः) ज्ञानों के साथ (परि) सब प्रकार (अतरत्) तराया है, (यः) जिस (अचारु) अचालु [निश्चल] ने (कास्ना) प्रकाश के साथ (सुतस्य) तत्त्व का (अपिबत्) पान कराया है। और [जिसने] (यस्मिन्) जिस (गिरौ अन्तः) तत्त्वज्ञान के भीतर (बहुम्) बहुत से (यजमानम्) यज्ञ करनेवाले (जनम्) लोगों को (आमूर्छत्) सब प्रकार बढ़ाया है, (जनासः) हे मनुष्यो (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमेश्वर] है ॥१२॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपकारी ज्ञानी पुरुषों को दुःख से पार करता और वैदिक तत्त्वों पर चलनेवालों को बढ़ाता है, हम उस परमेश्वर की भक्ति करें ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(यः) इन्द्रः (शम्बरम्) म०११–। मेघमिवोपकारिणम् (परि) सर्वतः (अतरत्) तृ तरणे-लङ्। पारं कृतवान् (कसीभिः) अवितॄस्तृतन्त्रिभ्य ईः। उ०३।१८। कस गतिशासनयोः-ईप्रत्ययः। कसतीति गतिकर्मा-निघ०२।१४। ज्ञानैः (यः) (अचारु) चर गतौ-उण्। विभक्तेर्लुक्। अचारुः। अचालुः। निश्चलः (कास्ना) रास्नासास्ना०। उ०३।१। कासृ शब्दे दीप्तौ च-नप्रत्ययः, टाप्, विभक्तेराकारः। कास्नया दीप्त्या (अपिबत्) अन्तर्गतण्यर्थः। पानमकारयत् (सुतस्य) निष्पादितस्य तत्त्वस्य (अन्तः) मध्ये (गिरौ) कॄगॄशृपृ०।४।१४३। गॄ विज्ञापने-इप्रत्ययः। तत्त्वज्ञाने (यजमानम्) (बहुम्) बहुसंख्याकम् (जनम्) मनुष्यसमूहम् (यस्मिन्) ज्ञाने (आमूर्छत्) आङ्+मूर्छा मोहसमुच्छ्राययोः-लङ्। समन्ताद् वर्धितवान्। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    'अचारुक-आस्ना'

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (कसीभिः) = गतिशीलताओं के द्वारा-निरन्तर कर्म में लगे रहने के द्वारा (शम्बरं) = शान्ति के विनाशक ईष्या नामक असुर को (पर्यतरत्) = [पर्यतारयत् सा०] पार करने में तैर जाने में हमें समर्थ करता है। प्रभु हमें निरन्तर क्रियाओं में प्रेरित करके ईष्या से ऊपर उठाते हैं। अकर्मण्य लोग ही ईर्ष्या-द्वेष में फँसते हैं। २. वे प्रभु ही वस्तुत: (अचारुक-आस्ना) = सदा न चरते रहनेवाले मुख से (सुतस्य अपिबत्) = उत्पन्न हुए-हुए सोम का पान करते हैं। प्रभु उपासक को जिला के संयम के द्वारा सोम के रक्षण के योग्य बनाते हैं। भोजन का संयम हमें ब्रह्मचर्य पालन में समर्थ करता है। ३. (यस्मिन्) = जिस सोम का रक्षण होने पर (गिरौ अन्त:) = [आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः] आचार्य गर्भ [गिरि गुरु] के अन्दर निवास करते हुए (यजमानम्) = देवपूजन करते हुए-बड़ों का आदर करते हुए (बहुं जनम्) = बहुत लोगों को जो (आमूर्छत्) = [Strengthens] शक्ति देता है, हे (जनास:) = लोगो! (सः इन्द्रः) = वही परमैश्वर्यशाली प्रभु है। आचार्यकुल में निवास करते हुए विनीत ब्रह्मचारियों को प्रभु ही वृद्धि प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    क्रियाशील बनाकर प्रभु हमें ईया से ऊपर उठाते हैं। जिला-संयम के द्वारा सोम रक्षण के योग्य बनाते हैं। आचार्यकुलवासी ब्रह्मचारियों को प्रभु ही उन्नति प्राप्त कराते हैं।

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    भाषार्थ

    (यस्मिन् गिरौ अन्तः) जिस पर्वत में रहनेवाले (यजमानम्) उपासकों को, (बहुं जनम्) तथा अन्य बहुत जनों को, शम्बर ने (आमूर्छत्) जल को रोके रखने के कारण मूर्छित कर रखा था, उस (शम्बरम्) हिमपर्वत को (यः) जिसने (कसीभिः) जल को निष्कासित करनेवाली, (अचारुकास्ना) तथा अचर अर्थात् अचल, स्थिररूप में पड़नेवाली सौर-रश्मियों द्वारा (पर्यतरत्) काट दिया। और परिणाम में (सुतस्य) शम्बर से प्रकट हुए जल को (अपिबत्) पिलाया—(जनासः) हे प्रजाजनो (सः इन्द्रः) वह परमेश्वर है।

    टिप्पणी

    [(शम्बरम्) water and mountain (आपटे)। चारु=चरतेः। अचारु=अचल, अर्थात् ग्रीष्मऋतु में शम्बर पर जब सूर्य की किरणें स्थिररूप में पड़ती हैं, तब शम्बर का जल पिघल कर वह निकलता है, और पर्वतवासी जलपान करते हैं। कास्या=कास् दीप्तौ (आपटे)=प्रदीप्त और रश्मियों द्वारा। अपिबत्=अन्तर्भावित णिच् ।] अथवा—मन्त्र ११; १२ का अभिप्राय निम्नलिखित भी सम्भव है। जिसने शासन करनेवाले, तथा गुरु के अरुचिकर मौखिक सदुपदेशों द्वारा, शान्तिव्रतधारी ब्रह्मचारी को पूर्णतया तैरा दिया, और उसे आनन्दरस पिला दिया, तथा जिस पर्वत में अभ्यास करते हुए नाना उपासक-जनों को उसने समाधिनिद्रा में मूर्छित सा कर दिया, वह परमेश्वर है। [अचारुकास्ना=अचारुक+आस्ना=(मुखेन)। कसीभिः=कस् (शासने)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    O people, know that omnipotent Indra who, with terrible strikes of thunder, breaks the dark giant cloud and releases. He also blesses the yajamana and the people at large in whose innermost heart of peace and love he pervades. Such is Indra, gracious and mighty.

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    Translation

    He—who through His moving forces (Kasi) makes the cloud float, who with his permanent refulgence preserve the created: world and who Is whose (his own) control even inside the mountain supports the man doing pious deeds and other people O men, is Indra.

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    Translation

    He—who through His moving forces (Kasi) makes the cloud float, who with his permanent refulgence preserve the created world and who Is whose (his own) control even inside the mountain supports the man doing pious deeds and other people O men, is Indra.

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    Translation

    O men, He is the Almighty God, Who suppresses the darkness of ignorance by His light of knowledge; Who saps up this creation by His terrible mouth of destruction, and under Whom many sacrificing people are elevated to the highest position of mukti, just as a person rises to the highest level among the mountains.

    Footnote

    The verse is not found in Rig, V. God being formless, has no organ like the mouth. It is a figurative language here. This sukta can be applied to the king as ‘Indra’.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(यः) इन्द्रः (शम्बरम्) म०११–। मेघमिवोपकारिणम् (परि) सर्वतः (अतरत्) तृ तरणे-लङ्। पारं कृतवान् (कसीभिः) अवितॄस्तृतन्त्रिभ्य ईः। उ०३।१८। कस गतिशासनयोः-ईप्रत्ययः। कसतीति गतिकर्मा-निघ०२।१४। ज्ञानैः (यः) (अचारु) चर गतौ-उण्। विभक्तेर्लुक्। अचारुः। अचालुः। निश्चलः (कास्ना) रास्नासास्ना०। उ०३।१। कासृ शब्दे दीप्तौ च-नप्रत्ययः, टाप्, विभक्तेराकारः। कास्नया दीप्त्या (अपिबत्) अन्तर्गतण्यर्थः। पानमकारयत् (सुतस्य) निष्पादितस्य तत्त्वस्य (अन्तः) मध्ये (गिरौ) कॄगॄशृपृ०।४।१४३। गॄ विज्ञापने-इप्रत्ययः। तत्त्वज्ञाने (यजमानम्) (बहुम्) बहुसंख्याकम् (जनम्) मनुष्यसमूहम् (यस्मिन्) ज्ञाने (आमूर्छत्) आङ्+मूर्छा मोहसमुच्छ्राययोः-लङ्। समन्ताद् वर्धितवान्। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যঃ) যিনি (শম্বরম্) মেঘ [এর ন্যায় উপকারী পুরুষ] কে (কসীভিঃ) জ্ঞানের সহিত (পরি) সকল প্রকারে (অতরৎ) পার করেছেন, (যঃ) যে (অচারু) অচালু [নিশ্চল] (কাস্না) প্রকাশ সহিত (সুতস্য) তত্ত্ব (অপিবৎ) পান করিয়েছেন। এবং [যিনি] (যস্মিন্) যে (গিরৌ অন্তঃ) তত্ত্বজ্ঞানের ভীতর (বহুম্) বহু (যজমানম্) যজ্ঞকারী (জনম্) লোকেদের (আমূর্ছৎ) সকল প্রকারে বর্ধিত করেছেন, (জনাসঃ) হে মনুষ্যগণ (সঃ) তিনি (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান পরমেশ্বর] ॥১২॥

    भावार्थ

    পরমাত্মা উপকারী জ্ঞানী পুরুষদের দুঃখ থেকে পার করেন এবং বৈদিক তত্ত্বানুসরণকারীদের বর্ধিত করেন, আমরা সেই পরমেশ্বরের প্রতি ভক্তি করি ॥১২॥

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    भाषार्थ

    (যস্মিন্ গিরৌ অন্তঃ) যে পর্বতে অবস্থানকারী (যজমানম্) উপাসকদের, (বহুং জনম্) তথা অন্য বহু জনকে, শম্বর (আমূর্ছৎ) জল রোধ করার কারণে মূর্ছিত করে রেখেছিল, সেই (শম্বরম্) হিমপর্বতকে (যঃ) যে (কসীভিঃ) জল কো নিষ্কাসিত করনেবালী, (অচারুকাস্না) তথা অচর অর্থাৎ অচল, স্থিররূপে বিকিরিত সৌর-রশ্মি দ্বারা (পর্যতরৎ) কর্তন করেছেন। এবং পরিণামস্বরূপ (সুতস্য) শম্বর থেকে প্রকটিত জল (অপিবৎ) পান করিয়েছেন—(জনাসঃ) হে প্রজাগণ (সঃ ইন্দ্রঃ) তিনি পরমেশ্বর।

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