अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
यो ह॒त्वाहि॒मरि॑णात्स॒प्त सिन्धू॒न्यो गा उ॒दाज॑दप॒धा व॒लस्य॑। यो अश्म॑नोर॒न्तर॒ग्निं ज॑जान सं॒वृक्स॒मत्सु॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ह॒त्वा । अहि॑म् । अरि॑णात् । स॒प्त । सिन्धू॑न् । य: । गा: । उ॒त्ऽआज॑त् । अ॒प॒ऽधा । व॒लस्य॑ ॥ य: । अश्म॑नो: । अ॒न्त: । अ॒ग्निम् । ज॒जान॑ । स॒म्ऽवृक् । स॒मत्ऽसु॑ । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो हत्वाहिमरिणात्सप्त सिन्धून्यो गा उदाजदपधा वलस्य। यो अश्मनोरन्तरग्निं जजान संवृक्समत्सु स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । हत्वा । अहिम् । अरिणात् । सप्त । सिन्धून् । य: । गा: । उत्ऽआजत् । अपऽधा । वलस्य ॥ य: । अश्मनो: । अन्त: । अग्निम् । जजान । सम्ऽवृक् । समत्ऽसु । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३३.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जिस [परमेश्वर] ने (अहिम्) सब ओर चलनेवाले मेघ में (हत्वा) व्यापकर (सप्त) सात (सिन्धून्) बहते हुए समुद्रों [अर्थात् भूर् भुवः आदि सात अवस्थावाले सब लोकों] को (अरिणात्) चलाया है, (वलस्य) बल [सामर्थ्य] के (अपधा) हर्ष से धारण करनेवाले (यः) जिसने (गाः) पृथिवियों को (उदाजत्) उत्तमता से चलाया है। (समत्सु) संग्रामों के बीच (संवृक्) शत्रुओं के रोकनेवाले (यः) जिसने (अश्मनोः) दो व्यापक मेघों वा पत्थरों के (अन्तः) बीच (अग्निम्) अग्नि [बिजुली] को (जजान) उत्पन्न किया है, (जनासः) हे मनुष्यो ! (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमेश्वर] है ॥३॥
भावार्थ
भूर्, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्य, सात लोक संसार की अवस्था विशेष हैं। परमेश्वर मेघ आदि पदार्थों और सात अवस्थावाले समस्त संसार में व्यापकर पृथिवी आदि लोकों को आकर्षण में रखकर, मेघ पाषाण आदि सब वस्तुओं में बिजुली धारण करके परमाणुओं के संयोग-वियोग से अनन्त रचना करता है, उसको जानकर मनुष्य वृद्धि करें ॥३॥
टिप्पणी
इस मन्त्र का मिलान करो-अथर्व-२०।९१।१२॥३−(यः) इन्द्रः (हत्वा) हन हिंसागत्योः। गत्वा। व्याप्य (अहिम्) आङि श्रिहनिभ्यां ह्रस्वश्च। उ०४।१३८। आङ्+हन हिंसागत्योः-इण्, डित्। आहन्तारम्। समन्ताद् गन्तारं मेघम्-निघ०१।१०। (अरिणात्) री गतिरेषणयोः-लङ्। अगमयत् (सप्त) सप्तसंख्याकान् (सिन्धून्) स्यन्दमानान् समुद्रान् इव भूर्भुवः स्वर्महो जनस्तपः सत्यमिति सप्तलोकान् संसारस्य अवस्थाविशेषान् (यः) (गाः) पृथिवीः (उदाजत्) अज गतिक्षेपणयोः-लङ्। उत्तमतया चालितवान् (अपधा) आतश्चोपसर्गे। ण०३।१।१३६। अप+दधातेः-कप्रत्ययः। सुपां सुलुक्०। पा०७।१।३९। विभक्तेर्डा। अपधः। हर्षेण धारकः (वलस्य) सामर्थ्यस्य (यः) (अश्मनोः) व्यापकयोर्मेघयोः पाषाणयोर्वा (अन्तः) मध्ये (अग्निम्) विद्युतम् (जजान) उत्पादयामास (संवृक्) वृजी वर्जने-क्विप्। संवर्जकः। शत्रूणां निवारकः (समत्सु) अ०२०।११।११। सङ्ग्रामेषु। अन्यद् गतम् ॥
विषय
सप्तसिन्धु प्रवहण
पदार्थ
१. हे (जनासः) = लोगो! (इन्द्रः सः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु वे हैं (यः) = जो (अहिम्) = हमारा विनाश करनेवाली वासना का [आहन्ति] (हत्वा) = विनाश करके (समसिन्धून्) = दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँखें व मुखरूप सप्त ऋषियों से प्रवाहित किये जानेवाले सात [सर्पणशील] ज्ञान-प्रवाहों को (अरिणात्) = गतिमय करते हैं, और जो (वलस्य) = ज्ञान पर पर्दे के रूप में आ जानेवाली वासना के (अपधा) = [अप-धा] दूर स्थापन के द्वारा (गा:) = ज्ञान की वाणियों को (उद् आजत्) = उत्कर्षेण प्रेरित करते हैं। २. प्रभु वे हैं (य:) = जो (अश्मनोः अन्त:) = दो मेघों के अन्दर (अग्निम्) = विद्युत् रूप अग्नि को (जजान) = प्रादुर्भूत करते हैं। इसी प्रकार हमारे जीवनों में ज्ञान व श्रद्धारूप अश्माओं के बीच में कर्मरूप अग्नि को उत्पन्न करते हैं और (समत्सु) = वासना-संग्रामों में (संवृक्) = काम-क्रोध' आदि शत्रुओं का वर्जन करनेवाले हैं। इन प्रभु का ही स्मरण करें।
भावार्थ
प्रभु वासना-विनाश के द्वारा हमारे जीवनों में ज्ञानप्रवाहों को चलाते हैं। ज्ञान और श्रद्धा को उत्पन्न करके हमें कर्मशील बनाते हैं। काम-क्रोध आदि का विनाश करते हैं।
भाषार्थ
(यः) जिसने (अहिम्) मेघों का (हत्वा) हनन करके (सप्त सिन्धून्) सात प्रकार की स्यन्दनशील नदियों को (अरिणात्) काट बहाया है, (यः) जिसने (वलस्य) अन्तरिक्ष में आवरण डाले मेघ के (अपधा) रुके हुए (गाः) जलों को (उदाजत्) ऊपर अन्तरिक्ष से नीचे भूमि की ओर फैंका है, (यः) जिसने (अश्मनोः) फैले हुए दो मेघों के (अन्तः) बीच (अग्निम्) वैद्युताग्नि को (जजान) पैदा किया है, तथा जो (समत्सु) देवासुर-संग्रामों में (संवृक्) असुरों का सम्यक् वर्जन करता है—(जनासः) हे सज्जनो! (सः) वह (इन्द्रः) परमेश्वर है।
टिप्पणी
[अहि=मेघ (निघं০ १.१०)। अरिणात्=रि (गतौ, रेषणे)। गाः=जल (उणा০ कोष २.६७), वैदिक पुस्तकालय, अजमेर। अश्मा=मेघ (निघं০ १.१०) “अश्मनोः” में द्विवचन है। अन्तरिक्ष में धन और ऋण विद्युतों से समाविष्ट दो प्रकार के मेघ जब आपस में मिलते हैं, तब वैद्युताग्नि चमकती है। संवृक्=सम्+वृज् वर्जने। अपधा=पिहित।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
People of the world, it is Indra who breaks the cloud into showers and makes the seven rivers and seven seas flow, who makes the moving stars and planets such as earth and satellites such as moon dance around in order, who wields and controls the entire energy of the universe, who creates the fire at the centre of the stone and the cloud and controls the making and breaking of the elements in the cosmic dynamics.
Translation
He—who pervading the cloud brings into flow the seven water-streams, who removing the darkness of Vala the cloud releases the rays of sun, who creates fire (lightning) within clouds and who is dispeller of all obstacles in wordly battles O men is Indra.
Translation
He—who pervading the cloud brings into flow the seven water-streams, who removing the darkness of Vala the cloud releases the rays of sun, who creates fire (lightning) within clonds and who is dispeller of all obstacles in wordly battles O men is Indra.
Translation
O men, He is the Almighty God, Who pervading the everlasting primal matter, sets in motion the seven rivers, Who, removing the darkness of ignorance, reveals the rays of light of Vedic lore in the hearts of the primal sages. Who generates the Sun between the heavens and the earth, like the fire generated by the friction of two stones or aims; and Who removes all handicaps in the general behaviours of the people of the world.
Footnote
Seven rivers: Mahatattva, Ahankar, and five Tanmatras or seven smashthi vital breaths.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
इस मन्त्र का मिलान करो-अथर्व-२०।९१।१२॥३−(यः) इन्द्रः (हत्वा) हन हिंसागत्योः। गत्वा। व्याप्य (अहिम्) आङि श्रिहनिभ्यां ह्रस्वश्च। उ०४।१३८। आङ्+हन हिंसागत्योः-इण्, डित्। आहन्तारम्। समन्ताद् गन्तारं मेघम्-निघ०१।१०। (अरिणात्) री गतिरेषणयोः-लङ्। अगमयत् (सप्त) सप्तसंख्याकान् (सिन्धून्) स्यन्दमानान् समुद्रान् इव भूर्भुवः स्वर्महो जनस्तपः सत्यमिति सप्तलोकान् संसारस्य अवस्थाविशेषान् (यः) (गाः) पृथिवीः (उदाजत्) अज गतिक्षेपणयोः-लङ्। उत्तमतया चालितवान् (अपधा) आतश्चोपसर्गे। ण०३।१।१३६। अप+दधातेः-कप्रत्ययः। सुपां सुलुक्०। पा०७।१।३९। विभक्तेर्डा। अपधः। हर्षेण धारकः (वलस्य) सामर्थ्यस्य (यः) (अश्मनोः) व्यापकयोर्मेघयोः पाषाणयोर्वा (अन्तः) मध्ये (अग्निम्) विद्युतम् (जजान) उत्पादयामास (संवृक्) वृजी वर्जने-क्विप्। संवर्जकः। शत्रूणां निवारकः (समत्सु) अ०२०।११।११। सङ्ग्रामेषु। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(যঃ) যে [পরমেশ্বর] (অহিম্) সকল দিকে গতিশীল মেঘের মধ্যে (হত্বা) ব্যাপ্ত হয়ে (সপ্ত) সাত (সিন্ধূন্) প্রবাহমান সমুদ্র [অর্থাৎ ভূ র্ভুবঃ আদি সাত অবস্থাবিশিষ্ট সকল লোক] (অরিণাৎ) চালনা করেছেন, (বলস্য) বল [সামর্থ্য]এর (অপধা) আনন্দে ধারণকারী (যঃ) যিনি (গাঃ) পৃথিব্যাদি লোকসমূহকে (উদাজৎ) উত্তমতাপূর্বক চালনা করেছেন। (সমৎসু) সংগ্রামে (সম্বৃক্) শত্রুদের প্রতিহতকারী (যঃ) যিনি (অশ্মনোঃ) দুই ব্যাপক মেঘ বা পাথরের (অন্তঃ) মাঝে (অগ্নিম্) অগ্নি [বিদ্যুৎ] (জজান) উৎপন্ন করেছেন, (জনাসঃ) হে মনুষ্যগণ ! (সঃ) তিনিই (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান পরমেশ্বর] ॥৩॥
भावार्थ
ভূর্, ভুবঃ, স্বঃ, মহঃ, জনঃ, তপঃ, সত্য, সাত লোক সংসারের অবস্থা বিশেষ। পরমেশ্বর মেঘআদি পদার্থ এবং সাত অবস্থাসম্পন্ন সমস্ত সংসারে ব্যাপ্ত হয়ে পৃথিবীআদিলোক সমূহকে আকর্ষণে রেখে, মেঘ পাষাণআদি সব বস্তু মধ্যে বিদুৎ ধারণ করে পরমাণুর সংযোগ-বিয়োগ দ্বারা অনন্ত রচনা করেন, তাঁকে জেনে মনুষ্য বর্ধিত হয় ॥৩॥ এই মন্ত্র মেলাও-২০।৯১।১২।৩
भाषार्थ
(যঃ) যিনি (অহিম্) মেঘ-সমূহের (হত্বা) হনন করে (সপ্ত সিন্ধূন্) সাত প্রকারের স্যন্দনশীল/প্রবাহমান নদী-সমূহকে (অরিণাৎ) কেটে প্রবাহিত করেছেন, (যঃ) যিনি (বলস্য) অন্তরিক্ষ আবরণকারী মেঘের (অপধা) স্তব্ধ/রুদ্ধ/নিরুদ্ধ (গাঃ) জলকে (উদাজৎ) উপরের অন্তরিক্ষ থেকে নীচে ভূমির দিকে নিক্ষেপ করেছেন, (যঃ) যিনি (অশ্মনোঃ) বিস্তারিত দুই মেঘের (অন্তঃ) মাঝখানে (অগ্নিম্) বৈদ্যুতাগ্নি (জজান) উৎপন্ন করেছেন, তথা যিনি (সমৎসু) দেবাসুর-সংগ্রামে (সম্বৃক্) অসুরদের সম্যক্ বর্জন করেন—(জনাসঃ) হে সজ্জনগণ! (সঃ) তিনি (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর।
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