अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 17
यः सोम॑कामो॒ हर्य॑श्वः सू॒रिर्यस्मा॒द्रेज॑न्ते॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। यो ज॒घान॒ शम्ब॑रं॒ यश्च॒ शुष्णं॒ य ए॑कवी॒रः स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । सोम॑ऽकाम॒: । हरि॑ऽअश्व: । सू॒रि: । यस्मा॑त् । रेज॑न्ते । भुव॑नानि । विश्वा॑ ॥ य: । ज॒घान॑ । शम्ब॑रम् । य: । च॒ । शुष्ण॑म् । य: । ए॒क॒ऽवी॒र: । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
यः सोमकामो हर्यश्वः सूरिर्यस्माद्रेजन्ते भुवनानि विश्वा। यो जघान शम्बरं यश्च शुष्णं य एकवीरः स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । सोमऽकाम: । हरिऽअश्व: । सूरि: । यस्मात् । रेजन्ते । भुवनानि । विश्वा ॥ य: । जघान । शम्बरम् । य: । च । शुष्णम् । य: । एकऽवीर: । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [परमेश्वर] (सोमकामः) ऐश्वर्य चाहनेवाला, (हर्यश्वः) मनुष्यों में व्यापक, (सूरिः) प्रेरक, विद्वान् है, (यस्मात्) जिससे (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक (रेजन्ते) थरथराते हैं। (यः) जो (शम्बरम्) मेघ में (च) और (यः) जो (शुष्णम्) सूर्य में (जघान) व्यापा है, (यः) जो (एकवीरः) एकवीर [अकेला शूर] है, (जनासः) हे मनुष्यो ! (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमेश्वर] है ॥॥१७॥
भावार्थ
सर्वव्यापक सर्वज्ञ परमात्मा परम ऐश्वर्यवान् होकर सब को ऐश्वर्यवान् बनाता है और जो एकवीर होकर सब संसार को नियम में रखता है, उस इष्ट देव की महिमा विचार कर हम ऐश्वर्य बढ़ावें ॥१७॥
टिप्पणी
१७−(यः) परमेश्वरः (सोमकामः) ऐश्वर्यं कामयमानः (हर्यश्वः) हरयो मनुष्याः-निघ०२।३+अशू व्याप्तौ-क्वन्। मनुष्येषु व्यापकः (सूरिः) अ०२।११।४। षू प्रेरणे-क्रि-उ०४।६४। प्रेरको विद्वान् (यस्मात्) परमेश्वरात् (रेजन्ते) रेजत इति भयवेपनयोः-निरु०३।२१। कम्पन्ते (भुवनानि) लोकाः (विश्वा) सर्वाणि (यः) (जघान) हन हिंसागत्योः-लिट्। जगाम। व्याप्तवान् (शम्बरम्) म०१२। मेघम्-निघ०१।१०। (यः) (च) (शुष्णम्) तृषिशुषिरसिभ्यः कित्। उ०३।१२। शुष शोषे-नप्रत्ययः, कित्। रसशोषकं सूर्यम् (यः) (एकवीरः) अ०१९।१३।२। अद्वितीयशूरः। अन्यद् गतम् ॥
पदार्थ
शब्दार्थ = ( यः ) = जो परमेश्वर ( सोमकाम: ) = सोम-ब्रह्मानन्द रस की कामना करनेवाले योगिजनों के अति प्रिय ( हर्यश्वः ) = मनुष्यों में व्यापक ( सूरि: ) = प्रेरक विद्वान् है ( यस्मात् ) = जिस परमात्मा से ( विश्वा ) = सब ( भुवनानि ) = लोक ( रेजन्ते ) = कांपते हैं ( यः ) = जो ( शम्बरम् ) = बादल में ( च ) = और ( य: ) = जो ( शुष्णम् ) = सूर्य में ( जघान ) = व्याप रहा है ( यः एकवीरः ) = जो अकेला शूरवीर है ( जनासः ) = हे मनुष्यो ! ( सः इन्द्रः ) = वह बड़े ऐश्वर्यवाला परमेश्वर है ।
भावार्थ
भावार्थ = जो परमेश्वर सर्वव्यापक सर्वज्ञ परमैश्वर्यवान् सब ऐश्वर्य का उत्पादक, ऐश्वर्य का दाता है और जो प्रभु आप एकवीर होकर सारे संसार को अपने नियम में चला रहा है, उस महासमर्थ जगत्पिता की कृपा से ही पुरुष ऐश्वर्य और सुख को प्राप्त हो सकता है ।
विषय
'एकवीर' इन्द्र
पदार्थ
१.(य:) = जो (सोमकाम:) = सोम को चाहते हैं-प्रभु की सर्वोपरि कामना यही है कि हम अपने अन्दर उत्पन्न होनेवाले इस सोम का रक्षण करें। (हर्यश्व:) = सब दुःखों का हरण करनेवाले इन्द्रियाश्वों को देनेवाले हैं। प्रभु-प्रदत्त कर्मेन्द्रियाँ व ज्ञानेन्द्रियाँ हमारे सब दु:खों का हरण करनेवाली हैं। (सूरि:) = वे प्रभु ज्ञानी हैं-ज्ञान के प्रभु है-ज्ञानस्वरूप हैं। (यस्मात्) = जिस प्रभु से (विश्वा भुवनानि) = सब भुवन (रेजन्ते) = चमकते हैं। 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति । २. (यः) = जो प्रभु (शम्बरम्) = शान्ति पर पर्दा डाल देनेवाली ईष्या को जघान नष्ट कर डालते हैं (च) = और (यः) = जो (शुष्णम्) = सब शक्तियों का शोषण कर डालनेवाले 'काम' को नष्ट करते हैं। इसप्रकार (यः) = जो (एकवीर:) = अद्वितीय वीर है, हे (जनास:) = लोगो! (स: इन्द्रः) = वे ही परमैश्वर्यशाली प्रभु इन्द्र' है।
भावार्थ
प्रभु हमसे चाहते हैं कि हम सोम का रक्षण करें। वे प्रभु हमें दु:खहारक इन्द्रियाँ देते हैं। वे सर्वज्ञ प्रभु ही सब भुवनों को दीप्त करते हैं। प्रभु ही हमें ईष्या व काम के संहार में समर्थ करते हैं।
भाषार्थ
(यः) जो (सोमकामः) भक्तिरस की कामना करता, या सौम्यप्रकृतिवाले उपासक की कामना करता, (हर्यश्वः) प्रत्याहार-सम्पन्न इन्द्रियाश्वों का स्वामी, तथा (सूरिः) सर्वप्रेरक है, (विश्वा भुवनानि) सब भुवन (यस्मात्) जिससे (रेजन्ते) भयभीत होकर काम्पते हैं, (यः) जिसने (शम्बरम्) वैद्युतवज्र-सम्पन्न मेघ का भी (जघान) हनन किया है, विनाश किया है, (यः) तथा जिसने (शुष्णम्) सुखा देनेवाले अर्थात् न बरसनेवाले मेघ का (जघान) हनन किया है, (यः) जो (एकवीरः) एकमात्र वीर है, (जनासः) हे प्रजाजनो! (सः इन्द्रः) वह परमेश्वर है।
टिप्पणी
[शम्बर=मेघ (निघं০ १.१०)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
He that loves the soma of love and peace, whom the sun rays radiate, who is great and wise, by whom all worlds of existence shine, blaze, and yet shake with awe, who breaks giant clouds of darkness and shatters mighty mountains, who is all potent and the sole one unique hero without a parallel, that is Indra.
Translation
He—who desires the emergence of world, who is pervading the men, who is inspire of good spirit, from whom all the living creatures tremble; who over powess cloud cousing waters in its fold, who dispels the cloud causing droughts and who is the sole hero—O men, is Indra.
Translation
He—who desires the emergence of world, who is pervading the men, who is inspire of good spirit, from whom all the living creatures tremble; who over powess cloud, cousing waters in its fold, who dispels the cloud causing droughts and who is the sole hero—O men, is Indra.
Translation
O men, He is the All-powerful God, Who is the Beloved of the yogis, immersed in deep-meditation, is Refulgent and Fast-moving, stirrer of all, getting energy from Whom, all the spheres of the universe are in constant motion. It is He, Who destroys the forces of darkness, and removes the drying up forces of higher, thirst and other handicaps. He is the sole source of bravery and courage.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१७−(यः) परमेश्वरः (सोमकामः) ऐश्वर्यं कामयमानः (हर्यश्वः) हरयो मनुष्याः-निघ०२।३+अशू व्याप्तौ-क्वन्। मनुष्येषु व्यापकः (सूरिः) अ०२।११।४। षू प्रेरणे-क्रि-उ०४।६४। प्रेरको विद्वान् (यस्मात्) परमेश्वरात् (रेजन्ते) रेजत इति भयवेपनयोः-निरु०३।२१। कम्पन्ते (भुवनानि) लोकाः (विश्वा) सर्वाणि (यः) (जघान) हन हिंसागत्योः-लिट्। जगाम। व्याप्तवान् (शम्बरम्) म०१२। मेघम्-निघ०१।१०। (यः) (च) (शुष्णम्) तृषिशुषिरसिभ्यः कित्। उ०३।१२। शुष शोषे-नप्रत्ययः, कित्। रसशोषकं सूर्यम् (यः) (एकवीरः) अ०१९।१३।२। अद्वितीयशूरः। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(যঃ) যে [পরমেশ্বর] (সোমকামঃ) ঐশ্বর্য কামনাকারী, (হর্যশ্বঃ) মনুষ্য মধ্যে ব্যাপক, (সূরিঃ) প্রেরক, বিদ্বান, (যস্মাৎ) যার দ্বারা (বিশ্বা) সকল (ভুবনানি) ভুবন (রেজন্তে) কম্পিত হয়। (যঃ) যিনি (শম্বরম্) মেঘ মধ্যে (চ) এবং (যঃ) যিনি (শুষ্ণম্) সূর্য মধ্যে (জঘান) ব্যাপ্ত, (যঃ) যিনি (একবীরঃ) একবীর [একমাত্র বীর], (জনাসঃ) হে মনুষ্যগণ! (সঃ) তিনিই (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরণ ঐশ্বর্যবান পরমেশ্বর] ॥১৭॥
भावार्थ
সর্বব্যাপক সর্বজ্ঞ পরমাত্মা পরম ঐশ্বর্যবান হয়ে সকলকে ঐশ্বর্যবান করেন এবং যিনি একবীর হয়ে সকল সংসারকে নিয়ম মধ্যে রাখেন, সেই ইষ্টদেবের মহিমা বিচার করে আমরা ঐশ্বর্য বৃদ্ধি করব ॥১৭॥
भाषार्थ
(যঃ) যিনি (সোমকামঃ) ভক্তিরস কামনাকারী, বা সৌম্যপ্রকৃতির উপাসকের কামনা করেন, (হর্যশ্বঃ) প্রত্যাহার-সম্পন্ন ইন্দ্রিয়াশ্বের স্বামী, তথা (সূরিঃ) সর্বপ্রেরক , (বিশ্বা ভুবনানি) সকল ভুবন (যস্মাৎ) যার থেকে (রেজন্তে) ভয়ভীত হয়ে কম্পিত হয়, (যঃ) যিনি (শম্বরম্) বৈদ্যুতবজ্র-সম্পন্ন মেঘেরও (জঘান) হনন করেছেন, বিনাশ করেছেন, (যঃ) তথা যিনি (শুষ্ণম্) শুষ্ককারী অর্থাৎ অবর্ষিত মেঘ (জঘান) হনন করেছেন, (যঃ) যিনি (একবীরঃ) একমাত্র বীর, (জনাসঃ) হে প্রজাগণ! (সঃ ইন্দ্রঃ) তিনি পরমেশ্বর।
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