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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गृत्समदः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३४
    1

    यस्याश्वा॑सः प्र॒दिशि॒ यस्य॒ गावो॒ यस्य॒ ग्रामा॒ यस्य॒ विश्वे॒ रथा॑सः। यः सूर्यं॒ य उ॒षसं॑ ज॒जान॒ यो अ॒पां ने॒ता स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । अश्वा॑स: । प्र॒ऽदिशि॑ । यस्य॑ । गाव॑: । यस्य॑ । ग्रामा॑: । यस्य॑ । विश्वे॑ । रथा॑स: ॥ य: । सूर्य॑म् । य: । उ॒षस॑म् । ज॒जान॑ । य:। अ॒पाम् । ने॒ता । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३३.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्याश्वासः प्रदिशि यस्य गावो यस्य ग्रामा यस्य विश्वे रथासः। यः सूर्यं य उषसं जजान यो अपां नेता स जनास इन्द्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । अश्वास: । प्रऽदिशि । यस्य । गाव: । यस्य । ग्रामा: । यस्य । विश्वे । रथास: ॥ य: । सूर्यम् । य: । उषसम् । जजान । य:। अपाम् । नेता । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३३.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्य) जिसकी (प्रदिशि) बड़ी आज्ञा में (अश्वासः) घोड़े, (यस्य) जिसकी [आज्ञा में] (गावः) गाय बैल आदि पशु, (यस्य) जिसकी [आज्ञा में] (ग्रामाः) गाम [मनुष्यसमूह] और (यस्य) जिसकी [आज्ञा में] (विश्वे) सब (रथासः) विहार करानेवाले पदार्थ हैं। (यः) जिसने (सूर्यम्) सूर्य को, (यः) जिसने (उषसम्) प्रभातवेला को (जजान) उत्पन्न किया है, और (यः) जो (अपाम्) जलों का (नेता) पहुँचानेवाला है, (जनासः) हे मनुष्यो ! (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमेश्वर] है ॥७॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा के अनन्त सामर्थ्य से सब उपकारी जीव और पदार्थ उत्पन्न हुए हैं, उस जगदीश्वर की उपासना करके मनुष्य उपकार करें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(यस्य) परमेश्वरस्य (अश्वासः) तुरङ्गाः (प्रदिशि) प्रकृष्टायामाज्ञायाम् (यस्य) (गावः) धेनुवृषभादयः पशवः (यस्य) (ग्रामाः) मनुष्यसमूहाः (यस्य) (विश्वे) (रथासः) विहारसाधनाः पदार्थाः (यः) (सूर्यम्) सवितृमण्डलम् (यः) (उषसम्) प्रत्यूषकालम् (जजान) उत्पादितवान् (यः) (अपाम्) जलानाम् (नेता) प्रापकः। अन्यद् गतम् ॥

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = ( यस्य ) = जिसकी  ( प्रदिशि ) = आज्ञा वा कृपा में  ( अश्वासः ) = घोड़े  ( यस्य ) = जिसकी आज्ञा व कृपा से  ( गाव: ) = गाय, बैल आदि पशु  ( यस्य ग्रामाः ) = जिसकी  आज्ञा में ग्राम और  ( यस्य विश्वे रथास: ) = जिसकी आज्ञा से सब विहार कराने हारे पदार्थ हैं  ( यः सूर्यम् ) = जो भगवान् सूर्य को  ( यः उषसम् ) = और प्रभात वेला को  ( जजान ) = उत्पन्न करता है  ( स:अपाम् नेता ) = जो प्रभु जलों का सर्वत्र पहुँचानेवाला है  ( जनास: ) = हे मनुष्यो !  ( स इन्द्रः ) = वह बड़े ऐश्वर्यवाला इन्द्र है । 

    भावार्थ

    भावार्थ = जिस परमात्मा ने घोड़े, गौएँ, रथ, ग्राम उत्पन्न किये और अपने प्रेमी पुत्रों को ये चीजें प्रदान कीं और जो प्रभु सूर्य और प्रभात वेला को बनानेवाला और जलों को जहाँ कहीं भी पहुँचानेवाला है हे मनुष्यो ! वह परमात्मा इन्द्र है।

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    विषय

    प्रभु के प्रशासन में

    पदार्थ

    १. हे (जनास:) = लोगो! (इन्द्रः स:) = परमैश्वर्यशाली प्रभु वे हैं, (यस्य) = जिनके (प्रदिशि) = प्रशासन में (अश्वास:) = हमारी कर्मेन्द्रियों कर्मों में व्याप्त होती हैं और (यस्य) = जिसके प्रशासन में ही गाव:-अर्थों की गमक ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान-प्राप्ति का कार्य करती हैं। (यस्य) = जिसके प्रशासन में ये (ग्रामा:) = प्राणसमूह अपना-अपना कार्य करते हैं और (यस्य) = जिसके प्रशासन में ही विश्वे सब (रथासः) = शरीर-रथ गति कर रहे हैं। 'भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया'। २, आधिदैविक जगत् में भी (यः) = जो (सूर्यम्) = सूर्य को (जजान) = प्रादुर्भूत करते है और (य:) = जो (उषसम्) = उषा को प्रकट करते हैं। सूर्यकिरणों द्वारा जलों का वाष्पीभवन करके, मेघनिर्माण द्वारा यः जो अपाम्-जलों के नेता प्राप्त करानेवाले हैं, वे प्रभु ही 'इन्द्र' है।

    भावार्थ

    प्रभु के प्रशासन में ही हमारी 'कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ, प्राणसमूह व शरीर-रथ' गति कर रहे हैं। आधिदैविक जगत् में भी प्रभु के प्रशासन में ही 'सूर्य, उषा व मेघ' आदि देव अपना-अपना कार्य करते हैं।

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    भाषार्थ

    (यस्य) जिसके (प्रदिशि) निर्देश में (अश्वासः) अश्व, तथा (यस्य) जिसके निर्देश में (गावः) गौ आदि पशु, (यस्य) जिसके निर्देश में (ग्रामाः) सैनिक समूह, तथा (यस्य) जिसके निर्देश में (विश्वे रथासः) सब रथारोही विद्यमान रहते है, (यः) जिसने (सूर्यम्) सूर्य को (यः) और जिसने (उषसम्) उषा को (जजान) पैदा किया है, (यः) जो (अपाम्) मेघों, नदियों, तथा समुद्र आदि जलों का (नेता) मार्गदर्शक है—(जनासः) हे सज्जनो! (सः इन्द्रः) वह परमेश्वर है।

    टिप्पणी

    [तथा अश्वासः=मन; गावः=इन्द्रियां; रथासः=शरीर-रथ; ग्रामाः=शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों के समूह है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    His are the waves of energy pervading in the directions and sub-directions of space. His are the horses and the cows, his the earths and the rays of light. His are the villages and all the chariots of the world. He creates the sun and the dawn, revealing them every day anew. He is the mover and guide of the waters and spatial energy. Such, O people, is Indra, universal energy.

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    Translation

    He—under whose excellent control are the horses, under whose control flourish the bouvine species, under whose control are the groups of cosmic objects, under whose supreme power remain all these bodies, who begets the sun, who begets the dawn and who is the Ieader of the worldly subjects— O men, is Indra.

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    Translation

    He—under whose excellent control are the horses, under whose control flourish, the bouvine species, under whose control are the groups of cosmic objects, under whose supreme power remain all these bodies, who begets the sun, who begets the dawn and who is the leader of the worldly subjects— O men, is Indra.

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    Translation

    O men, He is the Omnipotent God, under Whose control and discipline are the powerful spheres like the Sun and the fast-moving earths, the groups of sense-organs and all these means of pleasure like the bodies, etc. Who generates the Sun, the dawn. Who directs the working waters, oceans, the learned persons and intelligence.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(यस्य) परमेश्वरस्य (अश्वासः) तुरङ्गाः (प्रदिशि) प्रकृष्टायामाज्ञायाम् (यस्य) (गावः) धेनुवृषभादयः पशवः (यस्य) (ग्रामाः) मनुष्यसमूहाः (यस्य) (विश्वे) (रथासः) विहारसाधनाः पदार्थाः (यः) (सूर्यम्) सवितृमण्डलम् (यः) (उषसम्) प्रत्यूषकालम् (जजान) उत्पादितवान् (यः) (अपाम्) जलानाम् (नेता) प्रापकः। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (3)

    পদার্থ

    য়স্যাশ্বাসঃ প্রদিশি য়স্য গাবো য়স্য গ্রামা য়স্য বিশ্বে রথাসঃ।

    য়ঃ সূর্য়ং য় উপসং জজান য়ো অপাং নেতা স জনাস ইন্দ্রঃ ।।৭৯।।

    (অথর্ব ২০।৩৪।৭)

    পদার্থঃ (য়স্য) যাঁর (প্রদিশি) আজ্ঞা বা কৃপায় (অশ্বাসঃ) কর্মেন্দ্রিয় কর্মে নিযুক্ত হয়, (য়স্য) যাঁর আজ্ঞায় (গাবঃ) জ্ঞানেন্দ্রিয় জ্ঞান প্রাপ্ত করে, (য়স্য গ্রামা) যাঁর আজ্ঞায় প্রাণসমূহ আপন আপন কর্মে নিযুক্ত এবং (য়স্য বিশ্বে রথাসঃ) যাঁর আজ্ঞায় শরীররূপ রথ বিশ্বে কর্মশীল, (য়ঃ সূর্য়ম্) যে ভগবান সূর্যকে (য়ঃ উপসম্) এবং প্রভাত বেলাকে (জজান) উৎপন্ন করেন, (য়ঃ অপাম্ নেতা) যে ভগবান সর্বত্র জলের প্রেরণকারী; (জনাসঃ) হে মানুষ! (স ইন্দ্রঃ) তিনি মহান ঐশ্বর্যসম্পন্ন ইন্দ্র।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ যে পরমাত্মার কৃপায় আমাদের কর্মেন্দ্রিয়, জ্ঞানেন্দ্রিয় এবং শরীর নামক রথ গতিশীল বা নিজ নিজ কর্মে নিযুক্ত হয়, যে ভগবান সূর্য এবং প্রভাত বেলাকে সৃষ্টি করেছেন এবং জলকে যে কোন স্থানে প্রেরণ করেছেন, হে মানুষ! তিনিই পরমৈশ্বর্যসম্পন্ন পরমাত্মা ইন্দ্র ।।৭৯।।

     

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    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যস্য) যার (প্রদিশি) প্রকৃষ্ট আজ্ঞায় (অশ্বাসঃ) ঘোড়া, (যস্য) যার [আজ্ঞাতে](গাবঃ) গো মহিষাদি পশু, (যস্য) যার [আজ্ঞাতে] (গ্রামাঃ) গ্রাম [মনুষ্যসমূহ] এবং (যস্য) যার [আজ্ঞায়] (বিশ্বে) সকল (রথাসঃ) পরস্পরযুক্ত সক্ষম পদার্থ আছে। (যঃ) যিনি (সূর্যম্) সূর্যকে, (যঃ) যিনি (উষসম্) প্রভাত বেলা (জজান) উৎপন্ন করেছেন, এবং (যঃ) যিনি (অপাম্) জলে (নেতা) প্রেরণকারী, (জনাসঃ) হে মনুষ্যগন ! (সঃ) সেই (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম্ ঐশ্বর্যবান পরমেশ্বর]

    भावार्थ

    যে পরমাত্মার অনন্ত সামর্থ্যে সকল উপকারী জীব ও পদার্থ উৎপন্ন হয়েছে, সেই জগদীশ্বরের উপাসনা করে মনুষ্য উপকার করে/করুক ॥৭॥

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    भाषार्थ

    (যস্য) যার (প্রদিশি) নির্দেশে (অশ্বাসঃ) অশ্ব, তথা (যস্য) যার নির্দেশে (গাবঃ) গাভী আদি পশু, (যস্য) যার নির্দেশে (গ্রামাঃ) সৈনিক সমূহ, তথা (যস্য) যার নির্দেশে (বিশ্বে রথাসঃ) সকল রথারোহী বিদ্যমান থাকে, (যঃ) যিনি (সূর্যম্) সূর্য (যঃ) এবং যিনি (উষসম্) ঊষা (জজান) উৎপন্ন করেছেন, (যঃ) যিনি (অপাম্) মেঘ, নদী-সমূহ, তথা সমুদ্র আদি জলের (নেতা) মার্গদর্শক—(জনাসঃ) হে সজ্জনগণ! (সঃ ইন্দ্রঃ) তিনি পরমেশ্বর।

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