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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३४
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    येने॒मा विश्वा॒ च्यव॑ना कृ॒तानि॒ यो दासं॒ वर्ण॒मध॑रं॒ गुहाकः॑। श्व॒घ्नीव॒ यो जि॑गी॒वां ल॒क्षमाद॑द॒र्यः पु॒ष्टानि॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । इ॒मा । विश्वा॑ । च्यव॑ना । कृ॒तानि॑ । य: । दास॑म् । वर्ण॑म् । अध॑रम् । गुहा॑ । अक॒रित्यक॑: ॥ श्व॒घ्नीऽइ॑व । य: । जि॒गी॒वान् । ल॒क्षम् । आद॑त् । अ॒र्य: । पु॒ष्टानि॑ । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येनेमा विश्वा च्यवना कृतानि यो दासं वर्णमधरं गुहाकः। श्वघ्नीव यो जिगीवां लक्षमाददर्यः पुष्टानि स जनास इन्द्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । इमा । विश्वा । च्यवना । कृतानि । य: । दासम् । वर्णम् । अधरम् । गुहा । अकरित्यक: ॥ श्वघ्नीऽइव । य: । जिगीवान् । लक्षम् । आदत् । अर्य: । पुष्टानि । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (येन) जिस [परमेश्वर] करके (इमा) यह (विश्वा) सब (च्यवना) चलते हुए लोक (कृतानि) बनाये गये हैं, (यः) जिसने (दासम्) देने योग्य (वर्णम्) रूप को (गुहा) गुहा [गुप्त अवस्था] में (अधरम्) नीचे (अकः) किया है। (यः) जो, (इव) जैसे (श्वघ्नी) वृद्धि पानेवाला (जिगीवान्) विजयी पुरुष (लक्षम्) लक्ष्य [जीते पदार्थ] को, (अर्यः) वैरी के (पुष्टानि) बढ़े हुए धनों को (आदत्) ले लेता है, (जनासः) हे मनुष्यो ! (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमेश्वर] है ॥४॥

    भावार्थ

    जो सब घूमते हुए लोकों को बनाता है और पदार्थों के रूपों को बीज के भीतर छिपा रखता है और जो दुष्टों को दण्ड देता है, मनुष्य उस परमेश्वर के गुणों को ग्रहण करें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(येन) परमेश्वरेण (इमा) इमानि दृश्यमानानि (विश्वा) सर्वाणि (च्यवना) च्युङ् गतौ-ल्युट्। गच्छन्ति जगन्ति”। लोकान् (कृतानि) रचितानि (यः) (दासम्) दातव्यम् (वर्णम्) रूपम् (अधरम्) निम्नम् (गुहा) गुहायाम्। गुप्तावस्थायाम् (अकः) करोतेर्लुङ् छान्दसं रूपम्। अकार्षीत् (श्वघ्नी) अ०२०।१७।। श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ०१।१९। टुओश्वि गतिवृद्ध्योः-कनिन्+हन हिंसागत्योः-घञर्थे कप्रत्ययः। श्वघ्न-इति। शुनो वृद्धेर्घ्नः प्राप्तिर्यस्य सः। वृद्धिं गतः (इव) यथा (यः) (जिगीवान्) जि जये क्वसु, छान्दसो दीर्घः। विजयी पुरुषः (लक्षम्) लक्ष्यम्। जितपदार्थम् (आदत्) आदत्ते (अर्यः) षष्ठ्येकवचने छान्दसो यणादेशः। अरेः। शत्रोः (पुष्टानि) समृद्धानि धनानि। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    दासं वर्णम् अधरं गुहाकः

    पदार्थ

    १. (येन) = जिन्होंने (इमा विश्वा) = इन सब लोकों को (च्यवना) = अस्थिर-नश्वर (कृतानि) = बनाया है। दृढ़-से-दृढ़ भी लोक को प्रभु प्रलय के समय विदीर्ण कर देते हैं। (यः) = जो (दासं वर्णम्) = औरों का उपक्षय करनेवाले मानवसमूह को (अधरम्) = निचली योनियों में (गुहाक:) = संवृत ज्ञान की [गुह संवरणे] स्थिति में करते हैं, अर्थात् इन्हें पशु-पक्षियों व वृक्षादि स्थावर योनियों में जन्म देते हैं। यहाँ इनकी बुद्धि सुप्त-सी रहती है। ३. (य:) = जो (जिगीवान) = सदा विजयी प्रभु (अर्य:) = वैश्यवृत्तिवाले कृपण व्यक्ति की (पुष्टानि) = सम्पत्तियों को इसप्रकार (आदत्) = छीन लेते हैं, (इव) = जैसेकि (श्वघ्नी) = व्याध (लक्षम्) = अपने लक्ष्यभूत मृग आदि को ले-लेता है। हे (जनासः) = लोगो! (स:) = वे (कृपण) = धनहर्ता प्रभु ही (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली हैं।

    भावार्थ

    प्रभु वे हैं जो [क] इन दृढ़-से-दृढ़ लोकों का भी विदारण करनेवाले हैं [ख] औरों का उपक्षय करनेवालों को निचली योनियों में जन्म देते हैं। [ग] कृपणों के धनों का अपहरण कर लेते हैं।

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    भाषार्थ

    (येन) जिसने (इमा) इन (विश्वा) सब भुवनों को (च्यवना) गतिमान् तथा विनाशी (कृतानि) किया है, (यः) जिसने (वर्णम्) अन्तरिक्ष में आवरण डाले हुए (दासम्) उपक्षयकारी अर्थात् न बरसनेवाले मेघ को (अधरम्) नीचे की ओर बरसाकर (गुहा अकः) पृथिवी की गुफा में लीन कर दिया है, (श्वघ्नी इव) धन प्राप्ति की इच्छावाले व्यक्ति के समान (यः) जिसने (लक्षम्) लाखों प्रकार की सम्पत्तियों पर (जिगीवान्) विजय पाई है। (अर्यः) और जो स्वामी (पुष्टानि) धन से परिपुष्ट व्यक्तियों को भी (आदत्) अपने में लीन कर लेता है, उनका संहार कर देता है, (जनासः) हे सज्जनो! (सः) वह (इन्द्रः) परमेश्वर है।

    टिप्पणी

    [श्वघ्नी=स्वम् (धन)+हन् (गतौ, प्राप्तौ)। श्वघ्नी=स्वं हन्ति (निरु০ ५.४.२२)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Who makes all these moving objects of the moving world of existence, who conceives and fixes the emergent form deep in the cavern of the mind, who takes on the target like an unfailing hunter, all those in course of time which are created and nurtured by him: Such is Indra, O people of the world.

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    Translation

    He-by whom all these worlds are made to move, who in the sky casts down the over-whelming cloud, who like the victorious gambler gathering his winnings being the master of all controls the perceptible universe and gives nourishing means to all, O men, is Indrah.

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    Translation

    He-by whom all these worlds are made to move, who in the sky casts down the over-whelming cloud, who like the victorious gambler gathering his winnings being the master of all controls the perceptible universe and gives nourishing means to all, O men, is Indrah.

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    Translation

    O people, He is the All-Powerful Lord, by Whom all these worlds have been set in motion in their respective orbits. Who enthralls in the sky all this perishable universe; Who controls all the apparent creation, just as a gambler grapple all the money won by him or a hunter catches hold of the kill secured by him; Who showers all the nourishing things on the people.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(येन) परमेश्वरेण (इमा) इमानि दृश्यमानानि (विश्वा) सर्वाणि (च्यवना) च्युङ् गतौ-ल्युट्। गच्छन्ति जगन्ति”। लोकान् (कृतानि) रचितानि (यः) (दासम्) दातव्यम् (वर्णम्) रूपम् (अधरम्) निम्नम् (गुहा) गुहायाम्। गुप्तावस्थायाम् (अकः) करोतेर्लुङ् छान्दसं रूपम्। अकार्षीत् (श्वघ्नी) अ०२०।१७।। श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ०१।१९। टुओश्वि गतिवृद्ध्योः-कनिन्+हन हिंसागत्योः-घञर्थे कप्रत्ययः। श्वघ्न-इति। शुनो वृद्धेर्घ्नः प्राप्तिर्यस्य सः। वृद्धिं गतः (इव) यथा (यः) (जिगीवान्) जि जये क्वसु, छान्दसो दीर्घः। विजयी पुरुषः (लक्षम्) लक्ष्यम्। जितपदार्थम् (आदत्) आदत्ते (अर्यः) षष्ठ्येकवचने छान्दसो यणादेशः। अरेः। शत्रोः (पुष्टानि) समृद्धानि धनानि। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যেন) যেভাবে [পরমেশ্বর] (ইমা) এই (বিশ্বা) সকল (চ্যবনা) চলমান/গতিশীল লোক (কৃতানি) রচিত হয়েছে, (যঃ) যিনি (দাসম্) প্রদান যোগ্য (বর্ণম্) রূপকে (গুহা) গুহাতে [গুপ্ত অবস্থাতে] (অধরম্) নীচে (অকঃ) করেছেন। (যঃ) যিনি, (ইব) যেমন (শ্বঘ্নী) বৃদ্ধিপ্রাপ্ত (জিগীবান্) বিজয়ী পুরুষ (লক্ষম্) লক্ষ্য [বিজিত পদার্থকে], (অর্যঃ) শত্রুদের (পুষ্টানি) বর্ধমান ধন-সম্পদ (আদৎ) নিয়ে নেন, (জনাসঃ) হে মনুষ্যগণ ! (সঃ) তিনিই (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান পরমেশ্বর] ॥৪॥

    भावार्थ

    যিনি চলমান লোকসমূহকে রচনা করেন এবং পদার্থের রূপকে বীজের ভেতর লুকিয়ে রাখেন এবং যিনি দুষ্টদের শাস্তি দেন, মনুষ্য সেই পরমেশ্বরের গুণসমূহ গ্রহণ করবে/করুক॥৪॥

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    भाषार्थ

    (যেন) যিনি (ইমা) এই (বিশ্বা) সকল ভুবনকে (চ্যবনা) গতিমান্ তথা বিনাশী (কৃতানি) করেছেন, (যঃ) যিনি (বর্ণম্) অন্তরিক্ষে আবরণকারী (দাসম্) উপক্ষয়কারী অর্থাৎ অবর্ষিত মেঘকে (অধরম্) নীচের দিকে বর্ষিত করে (গুহা অকঃ) পৃথিবীর গুহায় লীন করেছেন, (শ্বঘ্নী ইব) ধন প্রাপ্তির কামনাকারী ব্যক্তির সমান (যঃ) যিনি (লক্ষম্) লক্ষ প্রকারের সম্পত্তির ওপর (জিগীবান্) বিজয় প্রাপ্ত হয়েছেন। (অর্যঃ) এবং যে স্বামী (পুষ্টানি) ধন দ্বারা পরিপুষ্ট ব্যক্তিদেরও (আদৎ) নিজের মধ্যে লীন করেন, তাঁদের সংহার করেন, (জনাসঃ) হে সজ্জনগণ! (সঃ) তিনি (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর।

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