अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 2
यः पृ॑थि॒वीं व्यथ॑माना॒मदृं॑ह॒द्यः पर्व॑ता॒न्प्रकु॑पिताँ॒ अर॑म्णात्। यो अ॒न्तरि॑क्षं विम॒मे वरी॑यो॒ यो द्या॒मस्त॑भ्ना॒त्स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । पृ॒थि॒वीम् । व्यथ॑मानाम् । अदृं॑हत् । य: । पर्व॑तान् । प्र । कु॑पितान् । अर॑म्णात् ॥ य: । अ॒न्तरि॑क्षम् । वि॒ऽम॒मे । वरी॑य: । य: । द्याम् । अस्त॑भ्नात् । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यः पृथिवीं व्यथमानामदृंहद्यः पर्वतान्प्रकुपिताँ अरम्णात्। यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तभ्नात्स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । पृथिवीम् । व्यथमानाम् । अदृंहत् । य: । पर्वतान् । प्र । कुपितान् । अरम्णात् ॥ य: । अन्तरिक्षम् । विऽममे । वरीय: । य: । द्याम् । अस्तभ्नात् । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३३.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जिस [परमेश्वर] ने (व्यथमानाम्) चलती हुई (पृथिवीम्) पृथिवी को (अदृंहत्) दृढ़ किया है, (यः) जिसने (प्रकुपितान्) कोप करते हुए (पर्वतान्) मेघों को (अरम्णात्) ठहराया है। (यः) जिसने (वरीयः) अधिक चौड़े (अन्तरिक्षम्) आकाश को (विममे) नाप डाला है, (यः) जिसने (द्याम्) सूर्य को (अस्तभ्नात्) खम्भे समान खड़ा किया है, (जनासः) हे मनुष्यो ! (सः) वह (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमेश्वर] है ॥२॥
भावार्थ
जो परमात्मा सूर्य के आकर्षण से पृथिवी को ठहराता, किरणों से खींचे हुए पानी को बरसाता, और आकाश के बीच सूर्य को खम्भे के समान बनाकर अनेक लोकों को उसके आकर्षण में सब ओर घुमाता है, उस परमेश्वर की उपासना से आत्मबल बढ़ाओ ॥२॥
टिप्पणी
२−(यः) परमेश्वरः (पृथिवीम्) विस्तीर्णां भूमिम् (व्यथमानाम्) चलन्तीम् (अदृंहत्) दृढीकृतवान्। सूर्यस्याकर्षणे धृतवान् (यः) (पर्वतान्) मेघान् (प्रकुपितान्) प्रक्रुद्धान् (अरम्णात्) रमु क्रीडायाम् श्नाप्रत्ययः, अन्तर्गतण्यर्थः। स्थापितवान् सूर्याकर्षणे (यः) (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (विममे) माङ् माने-लिट्। विशेषेण मानं कृतवान् (वरीयः) उरुतरम् (यः) (द्याम्) सूर्यमण्डलम् (अस्तभ्नात्) स्तम्भं यथा स्थापितवान्। अन्यद् गतम् ॥
विषय
सर्वाधार प्रभु
पदार्थ
१. (जनास:) = हे लोगो! (इन्द्रः सः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु वे हैं (यः) = जोकि (व्यथमानाम्) = भूकम्पादि से कम्पित होती हुई (पृथिवीम्) = पृथिवी को (अदुंहत्) = दृढ़ करते हैं। (य:) = जो (प्रकुपितान्) = मानो कुपित होकर लावा आदि के रूप में गर्म पदार्थों को बाहर फेंकते हुए (पर्वतान्) = पर्वतों को भी (अरम्णात्) = बड़ा रमणीय बना देते हैं। २. प्रभु वे हैं (य:) = जिन्होंने (अन्तरिक्षम्) = इस अन्तरिक्षलोक को (वरीय:) = अतिशयेन विशाल (विममे) = बनाया है और (य:) = जोकि (द्याम्) = द्युलोक को [नम्णस्य महा-अपने बल की महिमा से] (अस्तभ्नात्) = थामते हैं।
भावार्थ
प्रभु वे हैं जोकि पृथिवी को दृढ़, पर्वतों को रमणीय, अन्तरिक्ष को विशाल व द्युलोक को स्वस्थानस्थित बनाते हैं।
भाषार्थ
(यः) जिसने (व्यथमानाम्) व्यथित हुई (पृथिवीम्) पृथिवी को (अदृंहत्) दृढ़ किया, ठोस किया। (यः) जिसने (प्रकुपितान्) प्रकुपित हुए (पर्वतान्) पर्वतों को (अरम्णात्) शान्त किया। (यः) जिसने (वरीयः) सर्वाच्छादक महाविस्तारी (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (विममे) माप रखा है। (यः) जिसने (द्याम्) द्युलोक को (अस्तभ्नात्) थाम रखा है, (जनासः) हे सज्जनो! (सः) वह (इन्द्रः) परमेश्वर है।
टिप्पणी
[पृथिवी सूर्य से विभक्त हुई है। विभाग-काल में पृथिवी ऐसी ही दधकती-गैस रूप थी, जैसा कि सूर्य था, और अब भी है। शनैः-शनैः पृथिवी ठण्डी हुई और द्रवरूप की तरलावस्था में आई। और अधिक ठण्डी हुई तो पृथिवी तैल की सी या पिघले घी-की-सी कुछ घनावस्था में आई। इसी प्रकार शनैः शनैः अधिकाधिक घनावस्थाओं में से गुजरती हुई वर्तमान दृढ़ावस्था में आई। जबकि सूर्य अभी दधकती गैस रूप में प्रायः विद्यमान है। पृथिवी की तरलावस्था को मन्त्र में “व्यथमानाम्” शब्द द्वारा दर्शाया है। “व्यथ” का अर्थ होता है। “संचलनावस्था”। जबकि पृथिवी के घटक अवयव परस्पर एक-दूसरे के साथ सुदृढ़ रूप में बद्ध नहीं थे। जैसेकि समुद्रीय जल के घटक अवयव परस्पर एक-दूसरे के साथ सुदृढ़ सम्बद्ध नहीं हैं। पृथिवी की वर्तमानावस्था सुदृढ़ावस्था है, जिसे कि मन्त्र में कहा है—“येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा” (यजुः০ ३२.६)। जब पृथिवी तरलावस्था में या तैलावस्था में थी, तब पृथिवी पर पार्थिव-तरङ्गें ऊँची-ऊँची उठती थीं, जैसे कि जलीय-समुद्र में तरङ्गें उठती रहती हैं। ये पार्थिव-तरङ्गें पर्वतों के रूप में उठती रहीं, और ये तरङ्गमय-पर्वत पृथिवी के तरल द्रव में तैरते हुए अपना-अपना स्थान बदलते रहते थे। शनैः शनः पृथिवी ठण्डी होकर घनीभूत होती हुई, और पृथिवी के साथ-साथ पार्थिव-तरङ्गमय पर्वत भी ठण्डे होकर घनीभूत होते गये। इस घनीभूत अवस्था में भी इन पर्वतों से ज्वालाएँ उठती थीं, जैसे कि ज्वालामुखी पर्वतों में अब भी ज्वालाएँ उठती रहती हैं। इन पर्वतों की ऐसी अवस्थाओं को मन्त्र में “प्रकुपितान्” शब्द द्वारा सूचित किया है। और वर्तमान शान्त-शान्त अवस्था को “अरम्णात्” शब्द द्वारा दर्शाया है। “अरम्णात्” में “रम्” धातु का अर्थ “क्रीड़ा” भी है, जिसके द्वारा पार्थिव तरङ्गोंवाले पर्वतों की वह अवस्था भी सूचित की है जबकि ये तरङ्गित-पर्वत, द्रवरूप पृथिवी के स्तर पर, अपने स्थान बदलते रहते थे। यह भी उनकी क्रीड़ा थी।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
O people of the world, it is Indra, lord omnipotent, who establishes the moving earth in balance in orbit and silences the angry volcanoes and roaring clouds, who encompasses the vast skies and holds up the high heavens of light.(Such is Indra, universal energy.)
Translation
He who establishes fast and firm the staggering earth, who set at rest the agitated mountains, who measures out the vast firmament and supports, the heaven—O men, is Indra, Almighty Divinity.
Translation
He who establishes fast and firm the staggering earth, who set at rest the agitated mountains, who measures out the vast firmament and supports, the heaven—O men, is Indra, Almighty Divinity.
Translation
O people of the world, He is the Omnipotent Lord, Who makes the earth moving with such a high speed, firm in its orbit, Who calms the furious mountains (giving out red-hot lava), who measures and spreads out the vast mid-regions and Who supports the heavens.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(यः) परमेश्वरः (पृथिवीम्) विस्तीर्णां भूमिम् (व्यथमानाम्) चलन्तीम् (अदृंहत्) दृढीकृतवान्। सूर्यस्याकर्षणे धृतवान् (यः) (पर्वतान्) मेघान् (प्रकुपितान्) प्रक्रुद्धान् (अरम्णात्) रमु क्रीडायाम् श्नाप्रत्ययः, अन्तर्गतण्यर्थः। स्थापितवान् सूर्याकर्षणे (यः) (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (विममे) माङ् माने-लिट्। विशेषेण मानं कृतवान् (वरीयः) उरुतरम् (यः) (द्याम्) सूर्यमण्डलम् (अस्तभ्नात्) स्तम्भं यथा स्थापितवान्। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(যঃ) যে [পরমেশ্বর] (ব্যথমানাম্) চলন্ত (পৃথিবীম্) পৃথিবীকে (অদৃংহৎ) দৃঢ় করেছেন, (যঃ) যিনি (প্রকুপিতান্) প্রকুপিত (পর্বতান্) মেঘসমূহকে (অরম্ণাৎ) স্থির করেছেন। (যঃ) যিনি (বরীয়ঃ) অধিক বিস্তারিত (অন্তরিক্ষম্) আকাশকে (বিমমে) পরিমাপ করেছেন, (যঃ) যিনি (দ্যাম্) সূর্যকে (অস্তভ্নাৎ) স্তম্ভের ন্যায় স্থাপিত করেছেন, (জনাসঃ) হে মনুষ্যগণ ! (সঃ) তিনি (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান পরমেশ্বর] ॥২॥
भावार्थ
যে পরমাত্মা সূর্যের আকর্ষণ দ্বারা পৃথিবীকে স্থিত করেন, কিরণ দ্বারা আহরিত জল বর্ষণ করেন, এবং আকাশের মধ্যে সূর্যকে স্তম্ভের ন্যায় দৃঢ়রূপে স্থাপিত করে অনেক লোকসমূহকে সূর্যের আকর্ষণে সকল দিকে আবর্তন করান, সেই পরমেশ্বরের উপাসনা দ্বারা আত্মবল বৃদ্ধি করো ॥২॥
भाषार्थ
(যঃ) যিনি (ব্যথমানাম্) ব্যথিত (পৃথিবীম্) পৃথিবীকে (অদৃংহৎ) দৃঢ় করেছেন। (যঃ) যিনি (প্রকুপিতান্) প্রকুপিত (পর্বতান্) পর্বত-সমূহকে (অরম্ণাৎ) শান্ত করেছেন। (যঃ) যিনি (বরীয়ঃ) সর্বাচ্ছাদক মহাবিস্তারী (অন্তরিক্ষম্) অন্তরিক্ষকে (বিমমে) পরিমাপ করে রেখেছেন। (যঃ) যিনি (দ্যাম্) দ্যুলোক (অস্তভ্নাৎ) ধারণ করে রয়েছেন, (জনাসঃ) হে সজ্জনগণ! (সঃ) তিনি (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর।
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