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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 15
    सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त

    प्रा॒णमा॑हुर्मात॒रिश्वा॑नं॒ वातो॑ ह प्रा॒ण उ॑च्यते। प्रा॒णे ह॑ भू॒तं भव्यं॑ च प्रा॒णे सर्वं॒ प्रति॑ष्ठितम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒णम् । आ॒हु॒: । मा॒त॒रिश्वा॑नम् । वात॑: । ह॒ । प्रा॒ण: । उ॒च्य॒ते॒ । प्रा॒णे । ह॒ । भू॒तम् । भव्य॑म् । च॒ । प्रा॒णे । सर्व॑म् । प्रति॑ऽस्थितम् ॥६.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणमाहुर्मातरिश्वानं वातो ह प्राण उच्यते। प्राणे ह भूतं भव्यं च प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राणम् । आहु: । मातरिश्वानम् । वात: । ह । प्राण: । उच्यते । प्राणे । ह । भूतम् । भव्यम् । च । प्राणे । सर्वम् । प्रतिऽस्थितम् ॥६.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 15

    मन्त्रार्थ -
    (प्राणं मातरिश्वानम्-आहुः) प्राण को मातरिश्वा-माता के अन्दर गर्भ में गति करने वाला-गति देने वाला कहा है (प्राण: ह वातः-उच्यते) प्राण निश्चय वात भी कहा है-गर्भस्थ तत्त्वों को चलाने वाला होने से (प्राणे ह भूतं भव्यं च प्राणे सर्व प्रतिष्ठितम्) प्राण में भूत-उत्पन्न भव्य-उत्पन्न होने वाला, प्राण में सब वर्तमान भी प्रतिष्ठित है ॥१५॥

    विशेष - ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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