अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
यत्प्रा॒ण स्त॑नयि॒त्नुना॑भि॒क्रन्द॒त्योष॑धीः। प्र वी॑यन्ते॒ गर्भा॑न्दध॒तेऽथो॑ ब॒ह्वीर्वि जा॑यन्ते ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । प्रा॒ण: । स्त॒न॒यि॒त्नुना॑ । अ॒भि॒ऽक्रन्द॑ति । ओष॑धी: । प्र । वी॒य॒न्ते॒ । गर्भा॑न् । द॒ध॒ते॒ । अथो॒ इति॑ । ब॒ह्वी: । वि । जा॒य॒न्ते॒ ॥६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्प्राण स्तनयित्नुनाभिक्रन्दत्योषधीः। प्र वीयन्ते गर्भान्दधतेऽथो बह्वीर्वि जायन्ते ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । प्राण: । स्तनयित्नुना । अभिऽक्रन्दति । ओषधी: । प्र । वीयन्ते । गर्भान् । दधते । अथो इति । बह्वी: । वि । जायन्ते ॥६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
मन्त्रार्थ -
(प्राणः-यत् स्तनयित्नुना-ओषधीः-अभिक्रन्दति ) समष्टिप्राण जो गर्जना करने वाले रूप से ओषधियों के प्रति विविध रूप में जाता है (प्रवीयन्ते) वे प्रजनन धर्म को प्राप्त होती जाती हैं (गर्भान् दधते) गर्भो को धारण करती हैं (अथ बह्वीःविजायन्ते) अनन्तर वे बहुत उत्पन्न हो जाती हैं ॥३॥
विशेष - ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-
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