अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - प्राण सूक्त
नम॑स्ते प्राण प्राण॒ते नमो॑ अस्त्वपान॒ते। प॑रा॒चीना॑य ते॒ नमः॑ प्रती॒चीना॑य ते॒ नमः॒ सर्व॑स्मै त इ॒दं नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । ते॒ । प्रा॒ण॒ । प्रा॒ण॒ते । नम॑: । अ॒स्तु॒ । अ॒पा॒न॒ते । प॒रा॒चीना॑य । ते॒ । नम॑: । प्र॒ती॒चीना॑य । ते॒ । नम॑: । सर्व॑स्मै । ते॒ । इ॒दम् । नम॑: ॥६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते प्राण प्राणते नमो अस्त्वपानते। पराचीनाय ते नमः प्रतीचीनाय ते नमः सर्वस्मै त इदं नमः ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । ते । प्राण । प्राणते । नम: । अस्तु । अपानते । पराचीनाय । ते । नम: । प्रतीचीनाय । ते । नम: । सर्वस्मै । ते । इदम् । नम: ॥६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 8
मन्त्रार्थ -
(प्राण ते प्राणते नमः-अपानते नमः-अस्तु) हे प्राण तुझ प्राण लेते हुए, - श्वास लेते हुए के लिये स्वागत हो तथा अपान छोड़ते हुए के लिये स्वागत हो (ते पराचीनाय नमः) तुझ परे जाते हुए शरीर से बाहिर जाते हुए के लिये स्वागत हो (ते प्रतीचीनाय नमः) तुझ शरीर के अन्दर समाए हुए के लिये स्वागत हो (ते सर्वस्मै इदं नमः) तुझ सब प्रकार के प्राण के लिये स्वागत हो, चाहे तू सामटिक प्राण हो वैयष्टिक प्राण हो उस तेरे लिये स्वागत हो ॥८॥
विशेष - ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-
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