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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 26
    सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - बृहतीगर्भानुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त

    प्राण॒ मा मत्प॒र्यावृ॑तो॒ न मद॒न्यो भ॑विष्यसि। अ॒पां गर्भ॑मिव जी॒वसे॒ प्राण॑ ब॒ध्नामि॑ त्वा॒ मयि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्राण॑ । मा । मत् । प॒रि॒ऽआवृ॑त: । न । मत् । अ॒न्य: । भ॒वि॒ष्य॒सि॒ । अ॒पाम् । गर्भ॑म्ऽइव । जी॒वसे॑ । प्राण॑ । ब॒ध्नामि॑ । त्वा॒ । मयि॑ ॥६.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राण मा मत्पर्यावृतो न मदन्यो भविष्यसि। अपां गर्भमिव जीवसे प्राण बध्नामि त्वा मयि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राण । मा । मत् । परिऽआवृत: । न । मत् । अन्य: । भविष्यसि । अपाम् । गर्भम्ऽइव । जीवसे । प्राण । बध्नामि । त्वा । मयि ॥६.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 26

    मन्त्रार्थ -
    (प्राण मत्-मा पर्यावृतः) हे प्राण ! तु मुझसे मत पराङ्मुख होना (मत्· अन्यः न भविष्यसि) तू मेरे से अन्य-भिन्न न होगामैं तुझे अपना बनाये रहूंगा (प्राण! अपां गर्भमिव जीवसे मयि त्वा बध्नामि ) हे प्राण! ऋतुधर्म को प्राप्त नारियाँ "योषा वा आपः" (शतः १|१|१|१८) जैसे गर्भ को बान्धती हैं ऐसे में जीने के लिये अपने में तुझे बान्धता हूँ ॥२६॥

    विशेष - ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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