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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 16
    सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त

    आ॑थर्व॒णीरा॑ङ्गिर॒सीर्दै॒वीर्म॑नुष्य॒जा उ॒त। ओष॑धयः॒ प्र जा॑यन्ते य॒दा त्वं प्रा॑ण॒ जिन्व॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒थ॒र्व॒णी: । आ॒ङ्गि॒र॒सी: । दैवी॑: । म॒नु॒ष्य॒ऽजा: । उ॒त । ओष॑धय: । प्र । जा॒य॒न्ते॒ । य॒दा । त्वम् । प्रा॒ण॒ । जिन्व॑सि ॥६.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आथर्वणीराङ्गिरसीर्दैवीर्मनुष्यजा उत। ओषधयः प्र जायन्ते यदा त्वं प्राण जिन्वसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आथर्वणी: । आङ्गिरसी: । दैवी: । मनुष्यऽजा: । उत । ओषधय: । प्र । जायन्ते । यदा । त्वम् । प्राण । जिन्वसि ॥६.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 16

    मन्त्रार्थ -
    (प्राण यदा त्वं जिन्वसि) हे प्राण जब तू अपनी प्राणनक्रिया से संसार को जल वर्षाकर तृप्त करता है तो (आथर्वणी: आङ्गिरसीः-देवीः-उत-मनुष्यजा:-ओषधयः प्रजायन्ते) अथर्वा जनों-योगियों जीवन्मुक्तों के हितकर, अङ्गिरसों-तेजस्वी ऋषियों के निमित्त, देवों विद्वानों के हितकर, मनुष्यजा:-मनुष्यों-साधारणजनों के निमित्त उत्पन्न हुई, अथवा मनुष्य-जन्तुमात्र से "मनुष्या वै जन्तवः" (शत० ७।३।१।३२) मनुष्य आदि जन्तुमात्र के मलमूत्र आदि खाद से उत्पन्न होने वाली गेहूं आदि, दैवी:-पृथिवीस्थ मिट्टी वृष्टि जल से होने वाले यव धान आदि मुनि-अन्न, आङ्गिरसी:-चन्द्र सूर्य किरणादि के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली फल वाली वनस्पति, आथर्वणी:वायु की प्रधानता से उत्पन्न होने वाली सोम आदि रसायन अनेक श्रोषधियां उत्पन्न होती हैं ॥१६॥

    विशेष - ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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