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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 17
    सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त

    य॒दा प्रा॒णो अ॒भ्यव॑र्षीद्व॒र्षेण॑ पृथि॒वीं म॒हीम्। ओष॑धयः॒ प्र जा॑य॒न्तेऽथो॒ याः काश्च॑ वी॒रुधः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒दा । प्रा॒ण: । अ॒भि॒ऽअव॑र्षीत् । व॒र्षेण॑ । पृ॒थि॒वीम् । म॒हीम् । ओष॑धय: । प्र । जा॒य॒न्ते॒ । अथो॒ इति॑ । या: । का: । च॒ । वी॒रुध॑: ॥६.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदा प्राणो अभ्यवर्षीद्वर्षेण पृथिवीं महीम्। ओषधयः प्र जायन्तेऽथो याः काश्च वीरुधः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदा । प्राण: । अभिऽअवर्षीत् । वर्षेण । पृथिवीम् । महीम् । ओषधय: । प्र । जायन्ते । अथो इति । या: । का: । च । वीरुध: ॥६.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 17

    मन्त्रार्थ -
    (यदा प्राणः-अभ्यवर्षीत् वर्षेण महीं पृथिवीम् जबकि प्राण ने वर्षा से महती पृथिवी को सींच दिया तो (ओषधयः-अथ याः काः-च वीरुधः प्रजायन्ते ) प्रोषधियां और जो कोई भी 'लताएँ हैं वे भी उत्पन्न हो जाती हैं ॥१७॥

    विशेष - ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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