अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
नम॑स्ते अस्त्वाय॒ते नमो॑ अस्तु पराय॒ते। नम॑स्ते प्राण॒ तिष्ठ॑त॒ आसी॑नायो॒त ते॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । ते॒ । अ॒स्तु॒ । आ॒ऽय॒ते । नम॑: । अ॒स्तु॒ । प॒रा॒ऽय॒ते । नम॑: । ते॒ । प्रा॒ण॒ । तिष्ठ॑ते । आसी॑नाय । उ॒त । ते॒ । नम॑: ॥६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते अस्त्वायते नमो अस्तु परायते। नमस्ते प्राण तिष्ठत आसीनायोत ते नमः ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । ते । अस्तु । आऽयते । नम: । अस्तु । पराऽयते । नम: । ते । प्राण । तिष्ठते । आसीनाय । उत । ते । नम: ॥६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 7
मन्त्रार्थ -
(प्राण ते आयते नमः अस्तु) हे प्राण तुझ अन्दर आते हुए के लिये स्वागत हो (परायतं नमः अस्तु) बाहर जाते हुए के लिये स्वागत हो (प्राण ते तिष्ठते नमः) हे प्राण ! तुझ अन्दर ठहरे हुए के लिए स्वागत हो (उत ते आसीनाय नम:) अपि च तुझ बाहिर फैले हुए के लिए स्वागत हो ।वृक्ष आदि स्थावरों के अन्दर सूक्ष्म गति से प्राण आता है और जाता है तथा वह अन्दर भी ठहरता है और उनके बाहिर भी कुछ काल ठहरता है सभी दशाओं में वह स्वागत करने योग्य है ॥ ७ ॥
विशेष - ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-
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