अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 23
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
यो अ॒स्य वि॒श्वज॑न्मन॒ ईशे॒ विश्व॑स्य॒ चेष्ट॑तः। अन्ये॑षु क्षि॒प्रध॑न्वने॒ तस्मै॑ प्राण॒ नमो॑ऽस्तु ते ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्य । वि॒श्वऽज॑न्मन: । ईशे॑ । विश्व॑स्य । चेष्ट॑त: । अन्ये॑षु । क्षि॒प्रऽध॑न्वने । तस्मै॑ । प्रा॒ण॒ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । ते॒ ॥६.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्य विश्वजन्मन ईशे विश्वस्य चेष्टतः। अन्येषु क्षिप्रधन्वने तस्मै प्राण नमोऽस्तु ते ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्य । विश्वऽजन्मन: । ईशे । विश्वस्य । चेष्टत: । अन्येषु । क्षिप्रऽधन्वने । तस्मै । प्राण । नम: । अस्तु । ते ॥६.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 23
मन्त्रार्थ -
(अस्य चेटतः-विश्वजन्मनः-विश्वस्य यः-ईशे ) इस चेष्टा करते हुए-क्रियाशील, एवं सब प्राणिजन्म जिसके अन्दर होते हैं, ऐसे विश्व-जगत का जो स्वामित्व करता है (अन्येषु क्षिप्रधन्वने तस्मै) अन्य प्राणिभिन्न भौतिक पदार्थो चन्द्र शुक आदि पिण्डों में शीघ्रगति कारक हे समष्टि प्राण! उस तेरे लिये स्वागत हो॥२३॥
विशेष - ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-
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