अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
यस्ते॑ प्राणे॒दं वे॑द॒ यस्मिं॑श्चासि॒ प्रति॑ष्ठितः। सर्वे॒ तस्मै॑ ब॒लिं ह॑रान॒मुष्मिं॑ल्लो॒क उ॑त्त॒मे ॥
स्वर सहित पद पाठय:। ते॒ । प्रा॒ण॒ । इ॒दम् । वेद॑ । यस्मि॑न् । च॒ । असि॑ । प्रति॑ऽस्थित: । सर्वे॑ । तस्मै॑ । ब॒लिम् । ह॒रा॒न् । अ॒मुष्मि॑न् । लो॒के । उ॒त्ऽत॒मे ॥६.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते प्राणेदं वेद यस्मिंश्चासि प्रतिष्ठितः। सर्वे तस्मै बलिं हरानमुष्मिंल्लोक उत्तमे ॥
स्वर रहित पद पाठय:। ते । प्राण । इदम् । वेद । यस्मिन् । च । असि । प्रतिऽस्थित: । सर्वे । तस्मै । बलिम् । हरान् । अमुष्मिन् । लोके । उत्ऽतमे ॥६.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 18
मन्त्रार्थ -
(प्राण ते इदं वेद) हे प्राण तेरे इस महत्त्व को जो जानता है (यस्मिन् च प्रतिष्ठित:-असि) जिस सुप्रयोक्ता में प्रतिष्ठित हो जाता है (तस्मै सर्वे बलिं हरान्) उसके लिये सब फल लाभ समर्पित करते हैं। (मुष्मिन्-उत्तमे लोके) उस उत्कृष्ट मोक्ष के निमित्त-उसकी प्राप्ति के लिये ॥१८॥
विशेष - ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-
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