अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
य॒दा प्रा॒णो अ॒भ्यव॑र्षीद्व॒र्षेण॑ पृथि॒वीं म॒हीम्। प॒शव॒स्तत्प्र मो॑दन्ते॒ महो॒ वै नो॑ भविष्यति ॥
स्वर सहित पद पाठय॒दा । प्रा॒ण: । अ॒भि॒ऽअव॑र्षीत् । व॒र्षेण॑ । पृ॒थि॒वीम् । म॒हीम् । प॒शव॑: । तत् । प्र । मो॒द॒न्ते॒ । मह॑: । वै । न॒: । भ॒वि॒ष्य॒ति॒ ॥६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यदा प्राणो अभ्यवर्षीद्वर्षेण पृथिवीं महीम्। पशवस्तत्प्र मोदन्ते महो वै नो भविष्यति ॥
स्वर रहित पद पाठयदा । प्राण: । अभिऽअवर्षीत् । वर्षेण । पृथिवीम् । महीम् । पशव: । तत् । प्र । मोदन्ते । मह: । वै । न: । भविष्यति ॥६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 5
मन्त्रार्थ -
(यदा प्राणः वर्षेण महीं पृथिवीम् अभ्यवर्षीत्) जब समष्टिप्राण वर्षा द्वारा महती पृथिवी को सींच देता है (तत् पशवः प्रमोदन्ते नः वै महः भविष्यति) पशु प्रमोदित होते हैं, निश्चय हमारे लिये महत्-बहुत खाने योग्य होगा ॥५॥
विशेष - ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-
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