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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 20
    सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुब्गर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त

    अ॒न्तर्गर्भ॑श्चरति दे॒वता॒स्वाभू॑तो भू॒तः स उ॑ जायते॒ पुनः॑। स भू॒तो भव्यं॑ भवि॒ष्यत्पि॒ता पु॒त्रं प्र वि॑वेशा॒ शची॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्त: । गर्भ॑: । च॒र॒ति॒ । दे॒वता॑सु । आऽभू॑त: । भू॒त: । स: । ऊं॒ इति॑ । जा॒य॒ते॒ । पुन॑: । स: । भू॒त: । भव्य॑म् । भ॒वि॒ष्यत् । पि॒ता । पु॒त्रम् । प्र । वि॒वे॒श॒ । शची॑भि:॥६.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तर्गर्भश्चरति देवतास्वाभूतो भूतः स उ जायते पुनः। स भूतो भव्यं भविष्यत्पिता पुत्रं प्र विवेशा शचीभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्त: । गर्भ: । चरति । देवतासु । आऽभूत: । भूत: । स: । ऊं इति । जायते । पुन: । स: । भूत: । भव्यम् । भविष्यत् । पिता । पुत्रम् । प्र । विवेश । शचीभि:॥६.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 20

    पदार्थ -

    १. (देवतासु) = सूर्य, चन्द्र, विद्यत, अग्नि आदि सब देवों में (गर्भ:) = गर्भरूप होता हुआ (अन्त:चरति) = अन्दर विचरण करता है। (आभूतः) = समन्तात् व्याप्त हुआ-हुआ (भूत:) = [जातः] नित्य होता हुआ (स: उ) = वह प्राण ही (पुनः जायते) = उस-उस शरीर के साथ फिर उत्पन्न-सा होता है। २. (भूत:) = नित्य वर्तमान (स:) = यह प्राण (भूतम्) = भूतकालावच्छिन्न वस्तु को, (भविष्यत्) = भाविकालावच्छिन्न उत्पत्स्यमान वस्तु को (शचीभिः) = अपनी शक्तियों से (प्रविवेश)  इसप्रकार प्रविष्ट होता है, जैसेकि (पिता पुत्रम्) = पिता अपने पुत्र में अपने अवयवों से प्रविष्ट होता है। प्राण पिता है, यह उत्पन्न जगत् उसका पुत्र है। इसमें वह प्रविष्ट है।

    भावार्थ -

    सूर्यादि सब देवों में वह प्राणात्मा प्रभु प्रविष्ट हुए-हुए हैं, इसी से ये देव देवत्व को प्राप्त हुए हैं। भूत, भविष्यत् सभी वस्तुओं में प्रभु ही अपनी शक्तियों से प्रविष्ट हैं।

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