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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 25
    सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त

    ऊ॒र्ध्वः सु॒प्तेषु॑ जागार न॒नु ति॒र्यङ्नि प॑द्यते। न सु॒प्तम॑स्य सु॒प्तेष्वनु॑ शुश्राव॒ कश्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्व: । सु॒प्तेषु॑ । जा॒गा॒र॒ । न॒नु । ति॒र्यङ् । नि । प॒द्य॒ते॒ । न । सु॒प्तम् । अ॒स्‍य॒ । सु॒प्तेषु॑ । अनु॑ । शु॒श्रा॒व॒ । क: । च॒न ॥६.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वः सुप्तेषु जागार ननु तिर्यङ्नि पद्यते। न सुप्तमस्य सुप्तेष्वनु शुश्राव कश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्व: । सुप्तेषु । जागार । ननु । तिर्यङ् । नि । पद्यते । न । सुप्तम् । अस्‍य । सुप्तेषु । अनु । शुश्राव । क: । चन ॥६.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 25

    पदार्थ -

    १. वे प्राणात्मा प्रभु (सुमेषु) = निद्रापरवश प्राणियों में (ऊर्ध्व: जागार) = उत्थित हुए-हुए जाग रहे हैं। रक्षक के सोने का काम ही क्या? (ननु) = निश्चय से सब प्राणी तो (तिर्यङ् निपद्यते) = तिर्यम् अवस्थित हुए-हुए निद्रापरवश होकर सोते हैं, अत: रक्षकभूत आपने तो जागना ही है। २. प्राणियों के (सुप्तेषु) = निद्रापरवश हो जाने पर (अस्य) = उन शरीरों के मध्यवर्ती प्राणात्मा प्रभु के (सुप्तम्) = सोने को (कश्चन) = कोई भी (न अनुशुश्राव) = नहीं सुनता है। प्राणात्मा प्रभु कभी सोते नहीं।

     

    भावार्थ -

    सब प्राणी सो जाते हैं-सदा जागरित प्राणात्मा प्रभु रक्षा करते हैं, उनका सोना अप्रसिद्ध है।

     

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