अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
अ॒भिवृ॑ष्टा॒ ओष॑धयः प्रा॒णेन॒ सम॑वादिरन्। आयु॒र्वै नः॒ प्राती॑तरः॒ सर्वा॑ नः सुर॒भीर॑कः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भिऽवृ॑ष्टा: । ओष॑धय: । प्रा॒णेन॑ । सम् । अ॒वा॒दि॒र॒न् । आयु॑: । वै । न॒: । प्र । अ॒ती॒त॒र॒: । सर्वा॑: । न॒: । सु॒र॒भी: । अ॒क॒: ॥६.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अभिवृष्टा ओषधयः प्राणेन समवादिरन्। आयुर्वै नः प्रातीतरः सर्वा नः सुरभीरकः ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽवृष्टा: । ओषधय: । प्राणेन । सम् । अवादिरन् । आयु: । वै । न: । प्र । अतीतर: । सर्वा: । न: । सुरभी: । अक: ॥६.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
विषय - ओषधियों का कृतज्ञता प्रकाशन
पदार्थ -
१. प्रभु ने ओषधियों के विकास के लिए वृष्टि की। ये (अभिवृष्टाः ओषधयः) = वृष्टिजल ने सिक्त हुई-हुई ओषधियाँ (प्राणेन समवादिन्) = प्राणात्मा प्रभु से संवाद करती हैं कि हे प्रभो! (वै) = निश्चय से तूने (न: आयु:) = हमारी आयु को (प्रातीतर:) = बढ़ाया है और (न सर्वा:) = हम सबको (सुरभी: अक:) = सुगन्धवाला किया है।
भावार्थ -
वे प्राणात्मा प्रभु ही मेघरूप से वृष्टि करके सब ओषधिओं को उत्पन्न करते हैं और इन्हें सुगन्ध से युक्त करते हैं।
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