अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः
देवता - प्राणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - प्राण सूक्त
यत्प्रा॒ण स्त॑नयि॒त्नुना॑भि॒क्रन्द॒त्योष॑धीः। प्र वी॑यन्ते॒ गर्भा॑न्दध॒तेऽथो॑ ब॒ह्वीर्वि जा॑यन्ते ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । प्रा॒ण: । स्त॒न॒यि॒त्नुना॑ । अ॒भि॒ऽक्रन्द॑ति । ओष॑धी: । प्र । वी॒य॒न्ते॒ । गर्भा॑न् । द॒ध॒ते॒ । अथो॒ इति॑ । ब॒ह्वी: । वि । जा॒य॒न्ते॒ ॥६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्प्राण स्तनयित्नुनाभिक्रन्दत्योषधीः। प्र वीयन्ते गर्भान्दधतेऽथो बह्वीर्वि जायन्ते ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । प्राण: । स्तनयित्नुना । अभिऽक्रन्दति । ओषधी: । प्र । वीयन्ते । गर्भान् । दधते । अथो इति । बह्वी: । वि । जायन्ते ॥६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
विषय - सूर्यात्मा प्रभु
पदार्थ -
१. (यत्) = [यदा] जब (प्राण:) = जगत् प्राणभूत सूर्यात्मक देव (स्तनयितना) = मेघध्वनि से (ओषधी: अभिक्रन्दति-व्रीहि) = यवादि ग्राम्य व आरण्य लताओं के प्रति शब्द करता है, तब वे ओषधियाँ (प्रवीयन्ते) = प्राणाभिक्रन्दनमात्र से ही गर्भ को ग्रहण करती हैं-प्रजननाभिमुख होती हैं। वर्षाऋतु सब ओषधियों के गर्भग्रहण का काल है ही, तब ये ओषधियों (गर्भान् दधते) = गों को धारण करती हैं। (अथो) = तदनन्तर (बह्वि) = बहुत प्रकारोंवाली (विजायन्ते) = उत्पन्न होती हैं।
भावार्थ -
सुर्य व मेघ आदि में प्राणरूप से स्थित प्रभु मानो ओषधियों का लक्ष्य करके मेघध्वनि से शब्द करते हैं। तब प्रजननाभिमुख हुई-हुई ये ओषधियाँ गर्भग्रहण करती हैं और विविधरूपों में प्रादुर्भूत हो जाती हैं।
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