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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
    सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त

    य॒दा प्रा॒णो अ॒भ्यव॑र्षीद्व॒र्षेण॑ पृथि॒वीं म॒हीम्। प॒शव॒स्तत्प्र मो॑दन्ते॒ महो॒ वै नो॑ भविष्यति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒दा । प्रा॒ण: । अ॒भि॒ऽअव॑र्षीत् । व॒र्षेण॑ । पृ॒थि॒वीम् । म॒हीम् । प॒शव॑: । तत् । प्र । मो॒द॒न्ते॒ । मह॑: । वै । न॒: । भ॒वि॒ष्य॒ति॒ ॥६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदा प्राणो अभ्यवर्षीद्वर्षेण पृथिवीं महीम्। पशवस्तत्प्र मोदन्ते महो वै नो भविष्यति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदा । प्राण: । अभिऽअवर्षीत् । वर्षेण । पृथिवीम् । महीम् । पशव: । तत् । प्र । मोदन्ते । मह: । वै । न: । भविष्यति ॥६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (यदा) = जब (प्राण:) = यह प्राणदाता मेघात्मा प्रभु (महीं पृथिवीम्) = इस महती विस्तीर्ण भूमि को (वर्षेण अभ्यवर्षीद्) = वृष्टि द्वारा अभितः सिक्त करता है, (तत्) = तब (पशवः प्रमोदन्ते) = सब पशु प्रसन्न होते हैं कि (न: महः भविष्यति) = हमारा तो अब उत्सव होगा। वृष्टि से पृथिवी पर सर्वत्र खूब सस्य उत्पन्न होंगे और उनके खाने से हमारा समुचित पोषण होगा।

    भावार्थ -

    वृष्टि से अन्न व अन्न से प्राणियों का जीवन होता है। इसप्रकार मेघध्वनि होने पर उज्ज्वल उत्सव की कल्पना करके सब पशु प्रसन्न होते हैं।

     

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