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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 4/ मन्त्र 9
    सूक्त - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त

    या ते॑ प्राण प्रि॒या त॒नूर्यो ते॑ प्राण॒ प्रेय॑सी। अथो॒ यद्भे॑ष॒जं तव॒ तस्य॑ नो धेहि जी॒वसे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । ते॒ । प्रा॒ण॒ । प्रि॒या । त॒नू: । यो इति॑ । ते॒ । प्रा॒ण॒ । प्रेय॑सी । अथो॒ इति॑ । यत् । भे॒ष॒जम् । तव॑ । तस्य॑ । न॒: । धे॒हि॒ । जी॒वसे॑ ॥६.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या ते प्राण प्रिया तनूर्यो ते प्राण प्रेयसी। अथो यद्भेषजं तव तस्य नो धेहि जीवसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । ते । प्राण । प्रिया । तनू: । यो इति । ते । प्राण । प्रेयसी । अथो इति । यत् । भेषजम् । तव । तस्य । न: । धेहि । जीवसे ॥६.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 9

    पदार्थ -

    १. प्राण का व्यापार ठीक से होने पर शरीर बड़ा सुन्दर बनता है-सुन्दर ही क्या इसकी स्थिति अत्यन्त सुन्दर होती है, अत: कहते हैं कि हे (प्राण) = प्राण! (या) = जो (ते) = तेरा (प्रिया तनू:) = स्वस्थ अतएव प्रीतिकर शरीर है, (या उ) = और जो निश्चय से, हे (प्राण) = प्राण! (ते प्रेयसी) = [तन:] तेरा अतिशयित प्रीति करनेवाला शरीर है (अथो) = और (यत्) = जो (तव भेषजम्) = तेरा औषधगुण है, (तस्य नः धेहि) = उसे हमारे लिए धारण कर, (जीवसे) = जिससे हम उत्तम जीवनवाले बनें। ।

    भावार्थ -

    प्रभुकृपा से हमें प्राणसाधना द्वारा वह प्राणशक्ति प्राप्त हो, जिससे कि हमारी तनू [शरीर] नीरोग व प्रिय [सुन्दर] बने।

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