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यजुर्वेद अध्याय - 11

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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 30
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - दम्पती देवते छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    2

    शर्म॑ च॒ स्थो वर्म॑ च॒ स्थोऽछि॑द्रे बहु॒लेऽउ॒भे। व्यच॑स्वती॒ संव॑साथां भृ॒तम॒ग्निं पु॑री॒ष्यम्॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शर्म्म॑। च॒। स्थः॒। वर्म्म॑। च॒। स्थः॒। अछि॑द्रे॒ऽइत्यछि॑द्रे। ब॒हु॒लेऽइति॑ बहु॒ले। उ॒भेऽइत्यु॒भे। व्यच॑स्वती॒ऽइति॑ व्यच॑स्वती। सम्। व॒सा॒था॒म्। भृ॒तम्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म् ॥३० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शर्म च स्थो वर्म च स्थोच्छिद्रे बहुलेऽउभे । व्यचस्वती सँवसाथाम्भृतमग्निं पुरीष्यम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शर्म्म। च। स्थः। वर्म्म। च। स्थः। अछिद्रेऽइत्यछिद्रे। बहुलेऽइति बहुले। उभेऽइत्युभे। व्यचस्वतीऽइति व्यचस्वती। सम्। वसाथाम्। भृतम्। अग्निम्। पुरीष्यम्॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 30
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ स्त्रीपुरुषाभ्यां गृहे स्थित्वा किं साधनीयमित्याह॥

    अन्वयः

    हे स्त्रीपुरुषौ! युवां शर्म्म च प्राप्तौ स्थः वर्म्म चोभे बहुले व्यचस्वती अच्छिद्रे विद्युदन्तरिक्ष इव स्थः। तत्र गृहे पुरीष्यमग्निं गृहीत्वा संवसाथाम्॥३०॥

    पदार्थः

    (शर्म्म) गृहम् (च) तत्सामग्रीम् (स्थः) भवतः (वर्म्म) सर्वतो रक्षणम् (च) तत्सहायान् (स्थः) (अच्छिद्रे) अदोषे (बहुले) बहूनर्थान् लान्ति याभ्यां ते (उभे) द्वे (व्यचस्वती) सुखव्याप्तियुक्ते (सम्) (वसाथाम्) आच्छादयतम् (भृतम्) धृतम् (अग्निम्) (पुरीष्यम्) पालनेषु साधुम्। [अयं मन्त्रः शत॰६.३.४.१० व्याख्यातः]॥३०॥

    भावार्थः

    गृहस्थैर्ब्रह्मचर्येण सत्करणोपकरणक्रियाकुशलां विद्यां सङ्गृह्य बहुद्वाराणि सर्वर्त्तुसुखप्रदानि सर्वतोभिरक्षान्वितान्यग्न्यादिसाधनोपेतानि गृहाणि निर्माय तत्र सुखेन वसितव्यम्॥३०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब स्त्री और पुरुष घर में रह के क्या-क्या सिद्ध करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे स्त्रीपुरुषो! तुम दोनों (शर्म) गृहाश्रम (च) और उस की सामग्री को प्राप्त हुए (स्थः) हो (वर्म्म) सब ओर से रक्षा (च) और उस के सहायकारी पदार्थों को (उभे) दो (बहुले) बहुत अर्थों को ग्रहण करने हारे (व्यचस्वती) सुख की व्याप्ति से युक्त (अच्छिद्रे) निर्दोष बिजुली और अन्तरिक्ष के समान जिस घर में धर्म, अर्थ के कार्य्य (स्थः) हैं, उस घर में (भृतम्) पोषण करने हारे (पुरीष्यम्) रक्षा करने में उत्तम (अग्निम्) अग्नि को ग्रहण करके (संवसाथाम्) अच्छे प्रकार आच्छादन करके वसो॥३०॥

    भावार्थ

    गृहस्थ लोगों को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य के साथ सत्कार और उपकारपूर्वक क्रिया की कुशलता और विद्या का ग्रहण कर बहुत द्वारों से युक्त, सब ऋतुओं में सुखदायक, सब ओर की रक्षा और अग्नि आदि साधनों से युक्त घरों को बना के उन में सुखपूर्वक निवास करें॥३०॥

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    विषय

    गृत्समद पति-पत्नी

    पदार्थ

    जो पति-पत्नी अपने जीवन को प्रभु-स्तवनवाला बनाते हैं वे १. ( शर्म च स्थः ) = आनन्दमय जीवनवाले होते हैं [ शर्म = Happines ]। जैसे घर में मनुष्य आनन्दपूर्वक निवास करते हैं उसी प्रकार ये भी उस प्रभुरूप गृह में सानन्द रहते हैं। 

    २. ( वर्म च स्थः ) = प्रभु ही इनका कवच हो जाता है। उस प्रभु से ऊपर-नीचे निहित [ ढके ] हुए ये व्यक्ति वासनाओं के आक्रमण से आक्रान्त नहीं होते। 

    ३. इसी का परिणाम है कि ( अछिद्रे ) = ये दोषरहित जीवनवाले होते हैं। 

    ४. ( उभे ) = ये दोनों पति-पत्नी ( बहुले ) = विशाल [ broad ] हृदयवाले होते हैं, ये अपनी मैं में बहुतों को समाविष्ट कर लेते हैं। अन्ततोगत्वा ये सारी पृथिवी को अपना परिवार ही समझते हैं। 

    ५. इस प्रकार ( व्यचस्वती ) = ये विस्तारवाले होते हैं। अपने को अधिक और अधिक फैलाते चलते हैं। 

    ६. ( संवसाथाम् ) = घर में मिलकर निवास करते हैं। इनके घर में कभी कलह व क्लेश नहीं होता। 

    ७. हो भी क्यों? क्योंकि ( पुरीष्यम् ) = सुखों के पूरण करनेवाले ( अग्निम् ) = अग्रेणी प्रभु को ( भृतम् ) = ये धारण करते हैं। ‘उस आनन्द के भण्डार प्रभु को धारण करो’ यही इनके जीवन का सूत्र होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — १. प्रभु के उपासक पति-पत्नी प्रभुरूप घर में ही निवास करते हैं। २. प्रभु ही इनका कवच होता है। ३. इसी से इनका जीवन दोषशून्य होता है। ४. इनकी ‘मैं’ में बहुतों का समावेश होता है। ५. ये विस्तारवाले होते हैं। ६. मिलकर रहते हैं। ७. आनन्दमय प्रभु को धारण करते हैं।

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    विषय

    राजा प्रजा का परस्पर सम्बन्ध ।

    भावार्थ

    हे स्त्री पुरुषो ! हे राजा और प्रजा, तुम दोनो ! ( शर्म च स्थः) एक दूसरे के सुखकारी गृह के समान आश्रयप्रद हो । ( वर्म च स्थः ) कवच के समान एक दूसरे को सब ओर से रक्षा करनेवाले हो । ( उभे ) तुम दोनों ( अछिद्रे ) छिद्र रहित और ( बहुले ) बहुत से पदार्थ एवं सुखों को प्राप्त करानेवाले, (व्यचस्वती ) एक दूसरे के लिये विशाल अवकाश वाले होकर ( संवसाधाम् ) एक दूसरे को अच्छी प्रकार वस्त्र के समान आच्छादित किये रहो, धारण किये रहो । और जिस प्रकार स्त्री पुरुष मिलकर वीर्य धारण करते और गर्भस्थ बालक की रक्षा और धारण पोषण करते हैं उसी प्रकार तुम दोनों राजवर्ग और प्रजावर्गो ! ( पुरीष्यम् अग्निम् ) पालन कार्यों में उत्तम अग्नि के समान तेजस्वी, ऐश्वर्यवान् पुरुष को ( भृतम् ) धारण करो, सुरक्षित और सुपुष्ट बनाये रक्खो॥ शत० ६ । ४ । १ । १०॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिः साध्या वा ऋषयः।कृष्णाजिनपुष्करपर्णे, दम्पती वा देवते । विराडार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    गृहस्थांनी ब्रह्मचर्यपूर्वक राहून सर्वांचा सत्कार करावा व सर्वांवर उपकार करावा. त्यांनी कर्मकुशल असावे. विद्येचे ग्रहण करावे व अशी घरे बनवावीत की ती सर्व ऋतूंमध्ये सुखदायक होतील. घरांना पुष्कळ दरवाजे असावेत. घरे अग्नी इत्यादी साधनांनी युक्त असावीत. सर्वांचे रक्षण होईल अशा घरात सुखाने निवास करावा.

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    विषय

    missing

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे गृहाश्रमी स्त्रीपुरुषहो, (पति-पत्नी) तुम्हा दोघांना (शर्म) हे घर व गृहाश्रम (च) आणि त्यासाठी आवश्यक सर्व सामग्री (अन्न, जल, आच्छादनादी) प्राप्त झालेली आहे. (वर्म) सर्वधा सुखकारक अशा त्या पदार्थांचा (उभे) तुम्ही दोघे (बहुले) अनेक समृद्धी देणारी आणि (व्यचस्वती) सुखदायक अशा (अच्छिद्रे) दोषरहित विद्युतशक्तीच्या साहाय्याने (उपयोग करा) तसेच तुमच्या ज्या घरात अंतरिक्षाप्रमाणे धर्म आणि अर्थ यांसाठी कार्य या व्यवहार (स्थ:) होत आहेत, त्या घरात (भृतम्) भरपूर पोषण देणार्‍या आणि (पुरीष्यम्) रक्षण करण्यात सर्वोत्तम अशा (अग्निम्) अग्नीचे ग्रहण करून (संवसाथाम्) चांगल्याप्रकारे आच्छादन करून (उत्तम छत अथवा पांघरूण आदीची व्यवस्था करून) त्या घरात निश्चितपणे निवास करा ॥30॥

    भावार्थ

    भावार्थ - गृहस्थजनांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी ब्रह्मचर्याचे पालन करीत (ऋतुगामी वा संततीकामी होऊन) (अतिथींचा) योग्य सत्कार व (दीन-दुबळ्यांवर) उपकार करीत, कौशल्यपूर्वक कार्य आणि विद्याग्रहण करावे. तसेच अशा घरांची निर्मिती करावी की ज्यात अनेक दार असावेत, जे सर्व ऋतूंत सुखकारक आणि सर्वदिशांतून रक्षण करण्यात समर्थ असून अग्नी आदी साधनांनी युक्त असावेत ॥30॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O wife and husband, ye have entered the domestic life with all its responsibilities, like the two faultless objects which are full of comforts, fit for service in many ways. There are in your house deeds of virtue and worldly gain, which are the props of your domestic life. Dwell peacefully in that house, making full use of the nourishing and protecting electricity.

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    Meaning

    Man and wife, both of you live together in a comfortable home of peace and plenty, safety and security, in a state of abundance and uninterrupted happiness. Live together a long age with yajna which, well-maintained, is the best guardian-source of conjugal bliss.

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    Translation

    Sheltering place both of you are and аге an armour without a hole as well as wide- spread. Being extensive, cover well the cow-dung fire and keep it up. (1)

    Notes

    According to Dayānanda this mantra 15 addressed to man and woman. He interprets अग्नि as विद्युत्, electricity. Purisyam, beneficial for animals.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ স্ত্রীপুরুষাভ্যাং গৃহে স্থিত্বা কিং সাধনীয়মিত্যাহ ॥
    এখন স্ত্রী ও পুরুষ গৃহে স্থিত থাকিয়া কী কী সাধন করিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইযাছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে স্ত্রীপুরুষগণ ! তোমরা উভয়ে (শর্ম) গৃহাশ্রম (চ) এবং তাহার সামগ্রী প্রাপ্ত (স্থঃ) হইয়াছ (বর্ম) সব দিক দিয়া রক্ষা (চ) এবং তাহার সাহায্যকারী পদার্থদিগকে (উভে) দাও । (বহুলে) বহু অর্থ গ্রহণকারী (ব্যচস্বতী) সুখের ব্যাপ্তিযুক্ত (অচ্ছিদ্রে) নির্দোষ বিদ্যুৎ ও অন্তরিক্ষ সদৃশ যে গৃহে ধর্মও অর্থের কার্য্য (স্থঃ) হয়, সেই গৃহে (ভৃতম্) পুষ্টিকারক (পুরীষ্যম্) রক্ষা করিতে উত্তম (অগ্নিম্) অগ্নি গ্রহণ করিয়া (সংবসাথাম্) সম্যক্ প্রকার আচ্ছাদন করিয়া বসবাস কর ॥ ৩০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- গৃহস্থ লোকদিগের উচিত যে, ব্রহ্মচর্য্য সহ সৎকার ও উপকারপূর্বক ক্রিয়ার কুশলতা এবং বিদ্যার গ্রহণ করিয়া বহু দ্বারযুক্ত, সকল ঋতুতে সুখদায়ক, সব দিকের রক্ষা এবং অগ্নি ইত্যাদি সাধন দ্বারা যুক্ত গৃহ নির্মাণ করাইয়া তন্মধ্যে সুখপূর্বক নিবাস করিবে ॥ ৩০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    শর্ম॑ চ॒ স্থো বর্ম॑ চ॒ স্থোऽছি॑দ্রে বহু॒লেऽউ॒ভে ।
    ব্যচ॑স্বতী॒ সং ব॑সাথাং ভৃ॒তম॒গ্নিং পু॑রী॒ষ্য᳖ম্ ॥ ৩০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    শর্ম চেত্যস্য গৃৎসমদ ঋষিঃ । দম্পতী দেবতে । বিরাডার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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