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यजुर्वेद अध्याय - 11

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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 72
    ऋषिः - वारुणिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
    2

    प॒र॒मस्याः॑ परा॒वतो॑ रो॒हिद॑श्वऽइ॒हाग॑हि। पु॒री॒ष्यः पुरुप्रि॒योऽग्ने॒ त्वं त॑रा॒ मृधः॑॥७२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒र॒मस्याः॑। प॒रा॒वत॒ इति॑ परा॒ऽवतः॑। रो॒हिद॑श्व॒ इति॑ रो॒हित्ऽअ॑श्वः। इ॒ह। आ। ग॒हि॒। पु॒री॒ष्यः᳖। पु॒रु॒प्रि॒य इति॑ पुरुऽप्रि॒यः। अग्ने॑। त्वम्। त॒र॒। मृधः॑ ॥७२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परमस्याः परावतो रोहिदश्वऽइहा गहि । पुरीष्यः पुरुप्रियोग्ने त्वन्तरा मृधः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    परमस्याः। परावत इति पराऽवतः। रोहिदश्व इति रोहित्ऽअश्वः। इह। आ। गहि। पुरीष्यः। पुरुप्रिय इति पुरुऽप्रियः। अग्ने। त्वम्। तर। मृधः॥७२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 72
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सा स्वस्वामिनं प्रति किं किमादिशेदित्याह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने पावक इव तेजस्विन् स्वामिन्! रोहिदश्वः पुरीष्यः पुरुप्रियस्त्वमिह परावतो देशात् परमस्याः कन्यायाः कीर्र्त्तिं श्रुत्वाऽऽगहि तया प्राप्तया सह मृघस्तर॥७२॥

    पदार्थः

    (परमस्याः) अनुत्तमगुणरूपशीलायाः (परावतः) दूरदेशात् (रोहिदश्वः) रोहितोऽग्न्यादयोऽश्वा वाहनानि यस्य सः (इह) (आ) (गहि) आगच्छ (पुरीष्यः) पुरीषेषु पालनेषु साधुः (पुरुप्रियः) पुरूणां बहूनां जनानां मध्ये प्रियः प्रीतः (अग्ने) अग्निप्रकाशवद्विज्ञानयुक्त (त्वम्) (तर) उल्लङ्घ। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अष्टा॰६.३.१३५] इति दीर्घः। (मृधः) परपदार्थभिकांक्षिणः शत्रून्। [अयं मन्त्रः शत॰६.६.३.४ व्याख्यातः]॥७२॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः स्वस्याः कन्यायाः पुत्रस्य वा समीपदेशे विवाहः कदाचिन्नैव कार्य्यः। यावद्दूरे विवाहः क्रियते तावदेवाऽधिकं सुखं जायते, निकटे कलह एव॥७२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह स्त्री अपने स्वामी से क्या-क्या कहे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) पावक के समान तेजस्विन् विज्ञानयुक्त पते! (रोहिदश्वः) अग्नि आदि पदार्थों से युक्त वाहनों से युक्त (पुरीष्यः) पालने में श्रेष्ठ (पुरुप्रियः) बहुत मनुष्यों की प्रीति रखने वाले (त्वम्) आप (इह) इस गृहाश्रम में (परावतः) दूर देश से (परमस्याः) अति उत्तम गुण, रूप और स्वभाव वाली कन्या की कीर्ति सुन के (आगहि) आइये और उस के साथ (मृधः) दूसरों के पदार्थों की आकांक्षा करने हारे शत्रुओं का (तर) तिरस्कार कीजिये॥७२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि अपनी कन्या वा पुत्र का समीप देश में विवाह कभी न करें। जितना ही दूर विवाह किया जावे, उतना ही अधिक सुख होवे, निकट करने में कलह ही होता है॥७२॥

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    विषय

    वधू वर से

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र में दूर-दूर से आये हुए व्यक्तियों में से वधू एक का वरण करती है। यह निश्चित है कि वह औरों की अपेक्षा श्रेष्ठ रूपवाले ‘विरूप’ का ही वरण करेगी, अतः यह विरूप यहाँ ‘वारुणि’ हो जाता है। २. वधू वारुणि के विषय में कहती है कि यह ( परमस्याः परावतः ) = दूर-से-दूर देश से आया है। स्पष्ट है कि सम्बन्ध करने में ‘दूरी’ पहली सोचने योग्य बात है। समीपता में गुण-दोषों का पूर्व परिचय होने से उतना प्रेम नहीं बन पाता। इसी दृष्टि से ‘दुहिता’ की व्युत्पत्ति यास्क ‘दूरे हिता’ ही करते हैं। ३. ( रोहिदश्व ) = [ रुह = प्रादुर्भाव, अश्व = इन्द्रियाँ ] प्रादुर्भूत शक्ति-सम्पन्न इन्द्रियोंवाले वर! ( इह आगहि ) = आप इस घर में आओ। कन्या यह चाहती है कि उसके वरण के लिए ऐसे ही युवक आएँ जिन्होंने अपनी सब इन्द्रियों की शक्ति का उत्तम विकास किया है। वह उनमें से ही श्रेष्ठ का वरण करेगी। ४. ( पुरीष्यः ) = आप पालन-कर्म में उत्तम हो। पति बनने की यह भी आवश्यक योग्यता है कि वह कमानेवाला हो। जो धनार्जन नहीं कर सकता उसे गृहस्थ बनने का भी अधिकार नहीं है। ५. ( पुरुप्रियः ) = यह बड़ा या बहुतों का प्रिय हो। समाज में सभी को यह अच्छा लगे। यह किन्हीं का द्वेष्य न हो। यह झगड़ालू वृत्ति का न हो। ६. हे ( अग्ने ) = प्रगतिशील! ( त्वम् ) = तू ( मृधः ) = हमारा संहार करनेवाले ‘काम, क्रोध व लोभ’ को ( तर ) = तैर जा। पति के रूप में उसी का वरण करना चाहिए जो कामादि वासनाओं से ऊपर उठा हुआ हो।

    भावार्थ

    भावार्थ — पति की योग्यताएँ ये हैं— १. दूर का हो, नजदीकी रिश्तेदार व परिचित न हो। २. विकसित इन्द्रिय-शक्तियोंवाला हो। ३. पालन करने की योग्यता रखता हो। ४. प्रिय हो। ५. काम, क्रोध व लोभादि वासनाओं को तैरे हुए हो।

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    विषय

    अग्नि, पति और राजा का रूप से वर्णन।

    भावार्थ

    हे राजन् ! तू ( रोहिदश्वः ) लाल वर्ण के या वेगवान् अश्वों से युक्त होकर तू ( परमस्याः ) दूर से दूर के ( परावतः ) दूर देश से भी ( आ गहि ) यहां आकर प्राप्त हो । हे अग्ने ! शत्रुतापक राजन् ! तू ( पुरीष्य : ) समृद्धिमान् इन्द्रपद के योग्य, ( पुरुप्रियः ) बहुतसी प्रजाओं को प्रिय होकर ( त्वं मृधः ) शत्रु सेनाओं को ( तर ) विनाश कर । गृहपति पक्ष में - हे अग्नि के समान तेजस्विन्! पुरुष ! अग्नि आदि वाहन साधनों से सम्पन्न होकर ( परमस्याः कृते ) परम श्रेष्ठ स्त्री को प्राप्त करने के लिये ( परावतः ) दूर देश से भी ( इह आगहि ) यहाँ आ । और (मृधः तर ) शत्रुओं को विनाश कर ॥ शत० ६ । ६ । ३ । ४ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आरुणिर्ऋषिः । अग्निर्देवता । भुरिगुष्णिक् । ऋषभः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसाने आपल्या मुलाचा किंवा मुलीचा जवळच्या प्रदेशातील मुलामुलींबरोबर विवाह कधीही करू नये. जेवढा दूर विवाह केला तेवढे अधिक सुख होते. जवळ विवाह केल्यास कलहच निर्माण होतो.

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    विषय

    पत्नीने आपल्या पतीला काय सांगवे, पुढच्या मंत्रात याविषयी प्रतिपादन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ हे (अग्ने) पावकाप्रमाणे तेजस्वी हे विज्ञानवान पति, (रोहिदश्व:) अग्नी आदी पदार्थांनी (शक्ती वा ऊर्जाद्वारे) चालणार्‍या वाहनांनी (प्रवास करून) (पुरीष्य:) पालन करणार्‍यांत श्रेष्ठ आणि (पुरुप्रिय:) अनेकांविषयी स्नेहभाव असणारे (त्वम्) आपण (इह) या गृहाश्रमात (वधू राहत असलेल्या प्रदेशात) (परावत:) दूरवरच्या देशातून (परमस्या:) अत्यंत उत्तम गुण रुप आणि स्वभाव असलेल्या मुलीची (म्हणजे माझी) कीर्ती ऐकून (आगाहि) आला आहात. त्याचबरोबर आपण (मृध:) आता अन्यांच्या पदार्थां कामना करणार्‍या (स्वार्थी दुष्ट) शत्रूंचा (तर) तिरस्कार करा (परस्त्रीवर वाईट दृष्टीने पाहणार्‍याला योग्य शिक्षा द्या) ॥72॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी आपल्या मुलीचा वा मुलाचा विवाह जवळच्या देशात (स्थान, ग्राम वा नगरात) कदापि करू नये (मुलीला आपल्या गावापासून लाबंच्या गावी द्यावे आणि सून देखील दूरच्या प्रदेशाची करावी) कारण की मुलामुलीचा विवाहसंबंध जितक्या दूरच्या प्रदेशात केला जाईल, तितके अधिक सुख मिळते. जवळच्या गाव, प्रदेशाशी नाते जोडल्यास कलह वा कटकटी निर्माण होतात. ॥72॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned and dignified husband, lord of conveyances propelled by fire, excellent in affording protection, loved by many, come hitherward from the farthest distance, for marrying this beautiful renowned and well behaved girl, and overcome our foes along with her.

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    Meaning

    Agni, young man of excellence, best of social supporters, most loved of the people, come here from afar on a chariot of fire for this excellent girl, join her, and with her overcome the hurdles of your life.

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    Translation

    O Lord of red horses, come here from farthest distances. O adorable Lord, you are well-nourishing and loved by the multitude. May you overwhelm our enemies. (1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ সা স্বস্বামিনং প্রতি কিং কিমাদিশেদিত্যাহ ॥
    পুনঃ সেই স্ত্রী স্বীয় পতিকে কী কী বলিবে এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) পাবকসমান তেজস্বিন্ বিজ্ঞানযুক্ত পতে ! (রোহিদশ্বঃ) অগ্নি আদি পদার্থ সহ বাহনযুক্ত (পুরীষ্যঃ) পরিপালনে শ্রেষ্ঠ (পুরুপ্রিয়ঃ) বহু মনুষ্যের সহিত প্রীতিসম্পন্ন (ত্বম্) আপনি (ইহ) এই গৃহাশ্রমে (পরাবতঃ) দূর দেশ হইতে (পরমস্যাঃ) অতি উত্তম গুণ রূপ ও স্বভাবযুক্তা কন্যার কীর্ত্তি শ্রবণ করিয়া (আগহি) আসুন এবং সেই সঙ্গে (মৃধঃ) অন্যের বস্তুর আকাঙক্ষাকারী শত্রুদের (তর) তিরস্কার করুন ॥ ৭২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত স্বীয় কন্যা অথবা পুত্রের বিবাহ নিকটে কখনও করিবে না । যত দূরে বিবাহ করা হয়, ততই সুখ, নিকটে করিলে কলহ অবশ্যই হইয়া থাকে ॥ ৭২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    প॒র॒মস্যাঃ॑ পরা॒বতো॑ রো॒হিদ॑শ্বऽই॒হা গ॑হি ।
    পু॒রী॒ষ্যঃ᳖ পুরুপ্রি॒য়োऽগ্নে॒ ত্বং ত॑রা॒ মৃধঃ॑ ॥ ৭২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    পরমস্যা ইত্যস্য বারুণির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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