यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 33
ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
2
तमु॑ त्वा द॒ध्यङ्ङृषिः॑ पु॒त्रऽई॑धे॒ऽअथ॑र्वणः। वृ॒त्र॒हणं॑ पुरन्द॒रम्॥३३॥
स्वर सहित पद पाठतम्। ऊ॒ इत्यूँ॑। त्वा॒। द॒ध्यङ्। ऋषिः॑। पु॒त्रः। ई॒धे॒। अथ॑र्वणः। वृ॒त्र॒हण॑म्। वृ॒त्र॒हन॒मिति॑ वृत्र॒ऽहन॑म्। पु॒र॒न्द॒रमिति॑ पुरम्ऽद॒रम् ॥३३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमु त्वा दध्यङ्ङृषिः पुत्र ईधेऽअथर्वणः । वृत्रहणम्पुरंदरम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
तम्। ऊ इत्यूँ। त्वा। दध्यङ्। ऋषिः। पुत्रः। ईधे। अथर्वणः। वृत्रहणम्। वृत्रहनमिति वृत्रऽहनम्। पुरन्दरमिति पुरम्ऽदरम्॥३३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे राजन्! यथाऽथवर्णः पुत्रो दध्यङ्ङृषिरु सकलविद्याविद् वृत्रहणं पुरन्दरमीधे, तथा तं त्वा सर्वे विद्वांसो विद्याविनयाभ्यां वर्द्धयन्तु॥३३॥
पदार्थः
(तम्) (उ) वितर्के (त्वा) त्वाम् (दध्यङ्) यो दधीन् सुखधारकानग्न्यादिपदार्थानञ्चति सः (ऋषिः) वेदार्थवित् (पुत्रः) पवित्रः शिष्यः (ईधे) प्रदीपयेत्। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेषु [अष्टा॰७.१.४१] इति तकारलोपः। (अथर्वणः) अहिंसकस्य विदुषः (वृत्रहणम्) यथा सूर्य्यो वृत्रं हन्ति तथा शत्रुहन्तारम् (पुरन्दरम्) यः शत्रूणां पुराणि दृणाति तम्। [अयं मन्त्रः शत॰६.४.२.३ व्याख्यातः]॥३३॥
भावार्थः
ये याश्च साङ्गोपाङ्गान् वेदानधीत्य विद्वांसो विदुष्यश्च भवेयुस्ते ताश्च राजपुत्रादीन् राजकन्यादींश्च विदुषो विदुषींश्च संपाद्य ताभिर्धर्मेण राजप्रजाव्यवहारान् कारयेयुः॥३३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे राजन्! जैसे (अथर्वणः) रक्षक विद्वान् का (पुत्रः) पवित्र शिष्य (दध्यङ्) सुखदायक अग्नि आदि पदार्थों को प्राप्त हुआ (ऋषिः) वेदार्थ जानने हारा (उ) तर्क-वितर्क के साथ सम्पूर्ण विद्याओं का वेत्ता जिस (वृत्रहणम्) सूर्य्य के समान शत्रुओं को मारने और (पुरन्दरम्) शत्रुओं के नगरों को नष्ट करने वाले आप को (ईधे) तेजस्वी करता है, वैसे (तम्, त्वा) उन आपको सब विद्वान् लोग विद्या और विनय से उन्नतियुक्त करें॥३३॥
भावार्थ
जो पुरुष वा स्त्री साङ्गोपाङ्ग सार्थक वेदों को पढ़ के विद्वान् वा विदुषी होवें, वे राजपुत्र और राजकन्याओं को विद्वान् और विदुषी करके उन से धर्मानुकूल राज्य तथा प्रजा का व्यवहार करवावें॥३३॥
विषय
दध्यङ् + ऋषिः + पुत्रः — इन्धन
पदार्थ
१. भरद्वाज ही कहते हैं कि ( तम् उ त्वा ) = निश्चय से उस आपको ( ईधे ) = अपने हृदय-कमल में [ पुष्कर में ] समिद्ध [ विकसित ] करता है। कौन? [ क ] ( दध्यङ् ) = निरन्तर ध्यान करनेवाला, दीर्घकाल तक, निरन्तर, आदरपूर्वक प्रभु से योग करता हुआ [ योगं युञ्जन् ], प्रतिदिन सन्ध्या करता हुआ। [ ख ] ( ऋषिः ) = तत्त्वद्रष्टा वस्तुओं की वास्तविकता का चिन्तन करनेवाला और परिणामतः उनमें न फँसनेवाला, [ ग ] ( पुत्रः ) = जो अपने को पवित्र करता है [ पुनाति ] और वासनाओं से अपने को बचाता है [ त्रायते ]।
२. कहाँ समिद्ध करता है ? ( अथर्वणः ) = डाँवाँडोल न होनेवाले मन में। प्रभु का दीपन हृदय में होता है, उस हृदय में जिसमें वासनाओं की लहरें नहीं उठती रहतीं। जो हृदय-समुद्र वासनाओं के तूप़ानों से क्षुब्ध नहीं है। क्षुब्ध हृदय-समुद्र में प्रभु-दर्शन नहीं होता।
३. किसको समिद्ध करता है ? उस प्रभु को जो [ क ] ( वृत्रहणम् ) = प्रभु-ज्ञान की आवरणभूत वासना को नष्ट करनेवाले हैं। [ ख ] ( पुरन्दरम् ) = शरीर, मन व बुद्धि में बनाये गये असुरों के अधिष्ठानों को नष्ट करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ — प्रभु-दर्शन उन्हें होता है जो ध्यानी, तत्त्वद्रष्टा, पवित्र व वासनाओं से अपना त्राण करनेवाले होते हैं। यह दर्शन वासनाओं से अनान्दोलित मन में होता है। दर्शन होने पर वासना विनष्ट हो जाती है, असुरों के किले भूमिसात् हो जाते हैं और हमारे ‘शरीर, मन व बुद्धि’ तीनों ही पवित्र हो जाते हैं।
विषय
दध्यङ् + ऋषिः + पुत्रः — इन्धन
पदार्थ
१. भरद्वाज ही कहते हैं कि ( तम् उ त्वा ) = निश्चय से उस आपको ( ईधे ) = अपने हृदय-कमल में [ पुष्कर में ] समिद्ध [ विकसित ] करता है। कौन? [ क ] ( दध्यङ् ) = निरन्तर ध्यान करनेवाला, दीर्घकाल तक, निरन्तर, आदरपूर्वक प्रभु से योग करता हुआ [ योगं युञ्जन् ], प्रतिदिन सन्ध्या करता हुआ। [ ख ] ( ऋषिः ) = तत्त्वद्रष्टा वस्तुओं की वास्तविकता का चिन्तन करनेवाला और परिणामतः उनमें न फँसनेवाला, [ ग ] ( पुत्रः ) = जो अपने को पवित्र करता है [ पुनाति ] और वासनाओं से अपने को बचाता है [ त्रायते ]।
२. कहाँ समिद्ध करता है ? ( अथर्वणः ) = डाँवाँडोल न होनेवाले मन में। प्रभु का दीपन हृदय में होता है, उस हृदय में जिसमें वासनाओं की लहरें नहीं उठती रहतीं। जो हृदय-समुद्र वासनाओं के तूप़ानों से क्षुब्ध नहीं है। क्षुब्ध हृदय-समुद्र में प्रभु-दर्शन नहीं होता।
३. किसको समिद्ध करता है ? उस प्रभु को जो [ क ] ( वृत्रहणम् ) = प्रभु-ज्ञान की आवरणभूत वासना को नष्ट करनेवाले हैं। [ ख ] ( पुरन्दरम् ) = शरीर, मन व बुद्धि में बनाये गये असुरों के अधिष्ठानों को नष्ट करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ — प्रभु-दर्शन उन्हें होता है जो ध्यानी, तत्त्वद्रष्टा, पवित्र व वासनाओं से अपना त्राण करनेवाले होते हैं। यह दर्शन वासनाओं से अनान्दोलित मन में होता है। दर्शन होने पर वासना विनष्ट हो जाती है, असुरों के किले भूमिसात् हो जाते हैं और हमारे ‘शरीर, मन व बुद्धि’ तीनों ही पवित्र हो जाते हैं।
विषय
वृत्रहन्ता नेता की शक्ति बुद्धि ।
भावार्थ
हे अग्ने ! तेजस्विन् ! राजन् ! ( तम् त्वा उ ) उस तुझको अथर्वण: ) अहिंसक, रक्षक विद्वान् का ( दध्यङ् ) प्रजा के धारण करने वाले समस्त साधनों को प्राप्त करने में समर्थ, ( पुत्रः) पुरुषों का त्राणकर्त्ता, ( वृत्रहणम् ) मेघों को सूर्य के समान शत्रु के हन्ता और ( पुरन्दरम् ) शत्रुओं के गढ़ तोड़ने में समर्थ तुझको ( ईधे) तेजस्वी, मन्यु और पराक्रम से प्रज्वलित करे ॥ शत० ६ । ४ । २ । ३३ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृत्रहन्ता नेता की शक्ति बुद्धि ।
मराठी (2)
भावार्थ
जे पुरुष व स्त्री वेदाचे सांगोपांग सफलतापूर्वक अध्ययन करून विद्वान व विदुषी बनतात त्यांनी राजपुत्र व राजकन्या यांना विद्वान व विदुषी करून त्यांच्याकडून धर्मानुकूल राज्य चालवून प्रजेची कामे करावीत.
विषय
पुढील मंत्रातही त्याच विषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे राजा, (अथर्वण:) सर्वांचा रक्षण करणार्या विद्वानाचा हा (पुत्र:) पवित्र शिष्य (दघ्यड्) सुखदायक अग्नी आदी पदार्थांचा ज्ञाता व भोक्ता झाला असून (ऋषि:) वेदवेत्ता झाला आहे, (उ) आणखी तर्क, वितर्कासह संपूर्ण विद्या (अग्निविद्या आदी) जाणणारा आहे, (वृत्रहणम्) सूर्य जसा अंधकाराचा नाश करतो, तसा शत्रूंचा नाश करणार्या आणि (पुरन्दरम्) शत्रूंच्या नगरांना उध्वस्त विनष्ट करणार्या आपणाला तो शिष्य (ईघे) तेजस्वी करीत आहे; (आपणांस अग्निविद्या, विवेकशक्ती व वेदविद्येचा उपदेश देत सहकार्य करीत आहे) शिष्याप्रमाणे अन्य सर्व विद्वानांनीदेखील आपणास विद्या व विनयभाव शिकवून उन्नतिमान करावे. ॥33॥
भावार्थ
भावार्थ - जे पुरुष वा ज्या स्त्रिया वेदांचे सांगोपांग व सार्थ अध्ययन करून विद्वान व विदुषी होतात, त्यांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी राजपुत्रांना व राजकन्यांना विद्यावान आणि विदुषी करावे. तसेच धर्मानुकूल राज्यशासन आणि धर्माप्रमाणे प्रजाकार्य करण्यासाठी त्यांना प्रवृत्त करावे ॥33॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O King, may the noble pupil of the harmless scholar, having mastered the comforts-giving objects like electricity, possessing the knowledge of the Vedas, and master of all sciences, make thee, the killer of foes, and breaker of their forts, shine.
Meaning
Then ‘Dadhyang’, man of science and technology, and son-like disciple of the man of vision and science, ‘Atharva’, further lights and develops you, Indra’, i. e. , electric energy, breaker of the clouds and shatterer of the hidden sources.
Translation
The thoughtful seers, and the resolute discoverers kindle the glory of yours, O fire-divine, the destroyer of formidable evils. (1)
Notes
Dadhyan, name of a seer, son of Atharvan. Vrtrahanam, slayer of vrtra, the evil.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ উক্ত বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে রাজন্ ! যেমন (অথর্বণঃ) রক্ষক বিদ্বানের (পুত্রঃ) পবিত্র শিষ্য (দধ্যঙ্) সুখদায়ক অগ্নি আদি পদার্থ প্রাপ্ত হইয়া (ঋষিঃ) বেদার্থের জ্ঞাতা (উ) তর্ক-বিতর্ক সহ সম্পূর্ণ বিদ্যাবেত্তা, যে (বৃত্রহণম্) সূর্য্যের ন্যায় শত্রুদিগকে নিধনকারী এবং (পুরন্দরম্) শত্রুদের নগরগুলিকে ধ্বংসকারী আপনাকে (ঈধে) তেজস্বী করে সেইরূপ (তম, ত্বা) আপনাকে সব বিদ্বান্ ব্যক্তিগণ বিদ্যা ও বিনয় দ্বারা উন্নতিযুক্ত করুক ॥ ৩৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে সব পুরুষ বা স্ত্রী সাঙ্গোপাঙ্গ সার্থক বেদাধ্যয়ন করিয়া বিদ্বান্ অথবা বিদুষী হইয়া থাকেন তাহারা রাজপুত ও রাজকন্যাদিগকে বিদ্বান্ ও বিদুষী করিয়া তাহাদিগের দ্বারা ধর্মানুকূল রাজ্য তথা প্রজার ব্যবহার করাইবেন ॥ ৩৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
তমু॑ ত্বা দ॒ধ্যঙ্ঙৃষিঃ॑ পু॒ত্রऽঈ॑ধে॒ऽঅথ॑র্বণঃ ।
বৃ॒ত্র॒হণং॑ পুরন্দ॒রম্ ॥ ৩৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তমু ত্বেত্যস্য ভারদ্বাজ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদ্গায়ত্রী ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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