यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 58
ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः
देवता - वसुरुद्रादित्यविश्वेदेवा देवताः
छन्दः - पूर्वाद्धस्य स्वराट्संकृतिः, उत्तरार्धस्याभिकृतिः
स्वरः - गान्धारः, ऋषभः
2
वस॑वस्त्वा कृण्वन्तु गाय॒त्रेण॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वासि॑ पृथि॒व्यसि धा॒रया॒ मयि॑ प्र॒जा रा॒यस्पोषं॑ गौप॒त्यꣳ सु॒वीर्य॑ꣳ सजा॒तान् यज॑मानाय रु॒द्रास्त्वा॑ कृण्वन्तु॒ त्रैष्टु॑भेन॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वास्य॒न्तरि॑क्षमसि धा॒रया॒ मयि॑ प्र॒जा रा॒यस्पोषं॑ गौप॒त्यꣳ सु॒वीर्य॑ꣳ सजा॒तान् यज॑मानायाऽऽदि॒त्यास्त्वा॑ कृण्वन्तु॒ जाग॑तेन॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वासि॒ द्यौर॑सि धा॒रया॒ मयि॑ प्र॒जा रा॒यस्पोषं॑ गौप॒त्यꣳ सु॒वीर्य॑ꣳ सजा॒तान् यज॑मानाय विश्वे॑ त्वा दे॒वाः वैश्वा॑न॒राः कृ॑ण्व॒न्त्वानु॑ष्टुभेन॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वासि॒ दिशो॑ऽसि धा॒रया॒ मयि॑ प्र॒जा रा॒यस्पोषं॑ गौप॒त्यꣳ सु॒वीर्य॑ꣳ सजा॒तान् यज॑मानाय॥५८॥
स्वर सहित पद पाठवस॑वः। त्वा॒। कृ॒ण्व॒न्तु॒। गा॒य॒त्रेण॑। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। अ॒सि॒। पृ॒थि॒वी। अ॒सि॒। धा॒रय॑। मयि॑। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। रा॒यः। पोष॑म्। गौ॒प॒त्यम्। सु॒वीर्य्य॒मिति॑ सु॒ऽवीर्य्य॑म्। स॒जा॒तानिति॑ सऽजा॒तान्। यज॑मानाय। रु॒द्राः। त्वा॒। कृ॒ण्व॒न्तु। त्रैष्टु॑भेन। त्रैस्तु॑भे॒नेति॒ त्रैऽस्तु॑भेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। अ॒सि॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। अ॒सि॒। धा॒रय॑। मयि॑। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। रा॒यः। पोष॑म्। गौ॒प॒त्यम्। सु॒वीर्य्य॒मिति॑ सु॒ऽवीर्य्य॑म्। स॒जा॒तानिति॑ सऽजा॒तान्। यज॑मानाय। आ॒दि॒त्याः। त्वा॒। कृ॒ण्व॒न्तु॒। जाग॑तेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। अ॒सि॒। द्यौः। अ॒सि॒। धा॒रय॑। मयि॑। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। रा॒यः। पोष॑म्। गौ॒प॒त्यम्। सु॒वीर्य॒मिति॑ सु॒वीर्य॑म्। स॒जा॒तानिति॑ सऽजा॒तान्। यज॑मानाय। विश्वे॑। त्वा॒। दे॒वाः। वै॒श्वा॒न॒राः। कृ॒ण्व॒न्तु॒। आनु॑ष्टुभेन। आनु॑स्तुभे॒नेत्यानु॑ऽस्तुभेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। अ॒सि॒। दिशः॑। अ॒सि॒। धा॒रय॑। मयि॑। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। रा॒यः। पोष॑म्। गौ॒प॒त्यम्। सु॒वीर्य॒मिति॑ सु॒ऽवीर्य॑म्। स॒जा॒तानिति॑ सऽजा॒तान्। यज॑मानाय ॥५८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वसवस्त्वा कृण्वन्तु गायत्रेण च्छन्दसाङ्गिरस्वद्धरुवासि पृथिव्यसि धारया मयि प्रजाँ रायस्पोषङ्गौपत्यँ सुवीर्यँ सजातान्यजमानाय रुद्रास्त्वा कृण्वन्तु त्रैष्टुभेन च्छन्दसाङ्गिरस्वद्धरुवास्यन्तरिक्षमसि धारया मयि प्रजाँ रायस्पोषङ्गौपत्यँ सुवीर्यँ सजातान्यजमानायादित्यास्त्वा कृण्वन्तु जागतेन च्छन्दसाङ्गिरस्वद्धरुवासि द्यौरसि धारया मयि प्रजाँ रायस्पोषङ्गौपत्यँ सुवीर्यँ सजातान्यजमानाय विश्वे त्वा देवा वैश्वानराः कृण्वन्त्वानुष्टुभेन छन्दसाङ्गिरस्वद्धरुवासि दिशोसि धारया मयि प्रजाँ रायस्पोषङ्गौपत्यँ सुवीर्यँ सजातान्यजमानाय ॥
स्वर रहित पद पाठ
वसवः। त्वा। कृण्वन्तु। गायत्रेण। छन्दसा। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवा। असि। पृथिवी। असि। धारय। मयि। प्रजामिति प्रऽजाम्। रायः। पोषम्। गौपत्यम्। सुवीर्य्यमिति सुऽवीर्य्यम्। सजातानिति सऽजातान्। यजमानाय। रुद्राः। त्वा। कृण्वन्तु। त्रैष्टुभेन। त्रैस्तुभेनेति त्रैऽस्तुभेन। छन्दसा। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवा। असि। अन्तरिक्षम्। असि। धारय। मयि। प्रजामिति प्रऽजाम्। रायः। पोषम्। गौपत्यम्। सुवीर्य्यमिति सुऽवीर्य्यम्। सजातानिति सऽजातान्। यजमानाय। आदित्याः। त्वा। कृण्वन्तु। जागतेन। छन्दसा। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवा। असि। द्यौः। असि। धारय। मयि। प्रजामिति प्रऽजाम्। रायः। पोषम्। गौपत्यम्। सुवीर्यमिति सुवीर्यम्। सजातानिति सऽजातान्। यजमानाय। विश्वे। त्वा। देवाः। वैश्वानराः। कृण्वन्तु। आनुष्टुभेन। आनुस्तुभेनेत्यानुऽस्तुभेन। छन्दसा। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवा। असि। दिशः। असि। धारय। मयि। प्रजामिति प्रऽजाम्। रायः। पोषम्। गौपत्यम्। सुवीर्यमिति सुऽवीर्यम्। सजातानिति सऽजातान्। यजमानाय॥५८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्दम्पती किङ्कृत्वा किङ्कुर्य्यातामित्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे ब्रह्मचारिणि कुमारिके! या त्वमङ्गिरस्वद् ध्रुवासि पृथिव्यसि तां त्वा गायत्रेण छन्दसा वसवो मम स्त्रियं कृण्वन्तु। हे कुमार ब्रह्मचारिन्! यस्त्वङ्गिरस्वद् ध्रुवोऽसि भूमिवत् क्षमावानसि यं त्वा वसवो गायत्रेण छन्दसा मम पतिं कृण्वन्तु स त्वं मयि प्रजां रायस्पोषं गौपत्यं सुवीर्य्यं च धारय। आवां सजातान् संतानान् सर्वान् यजमानाय विद्याग्रहणार्थं समर्पयेव। हे स्त्रि! या त्वमङ्गिरस्वद् ध्रुवोऽस्यन्तरिक्षमसि तां त्वा रुद्रास्त्रैष्टुभेन छन्दसा मम पत्नीं कृण्वन्तु। हे वीर! यस्त्वङ्गिरस्वद् ध्रुवोऽस्यन्तरिक्षमसि यं त्वा रुद्रास्त्रैष्टुभेन छन्दसा मम स्वामिनं कृण्वन्तु। स त्वं मयि प्रजां रायस्पोषं गौपत्यं सुवीर्य्यं च धारय। आवां सजातान् सुशिक्ष्य वेदशिक्षाध्ययनाय यजमानाय प्रदद्याव। हे विदुषि! या त्वमङ्गिरस्वद् ध्रुवाऽसि द्यौरसि तां त्वादित्या जागतेन छन्दसा मम भार्य्यां कृण्वन्तु। हे विद्वन्! यस्त्वमङ्गिरस्वद् ध्रुवोऽसि द्यौरसि यं त्वादित्या जागतेन छन्दसा ममाधिष्ठातारः कृण्वन्तु। स त्वं मयि प्रजां रायस्पोषं गौपत्यं सुवीर्य्यं च धारय। आवां सजातान् जन्मतः सूपदिश्य सर्वविद्याग्रहणार्थं यजमानाय समर्प्पयेव। हे सुभगे! या त्वमङ्गिरस्वद् ध्रुवासि दिशोऽसि तां त्वा वैश्वानरा विश्वे देवा आनुष्टुभेन छन्दसा मदधीनां कृण्वन्तु। हे पुरुष! यस्त्वमङ्गिरस्वद् ध्रुवोऽसि दिशोऽसि यं त्वा वैश्वानरा विश्वेदेवा मदधीनं कृण्वन्तु, स त्वं मयि प्रजां रायस्पोषं गौपत्यं सुवीर्य्यं च धारय। आवां सूपदेशार्थं सजातान् यजमानाय समर्प्पयेव॥५८॥
पदार्थः
(वसवः) वसुसंज्ञका विद्वांसः (त्वा) त्वाम् (कृण्वन्तु) (गायत्रेण) वेदविहितेन (छन्दसा) (अङ्गिरस्वत्) धनञ्जयप्राणवत् (ध्रुवा) निश्चला (असि) (पृथिवी) पृथुसुखकारिणी (असि) (धारय) स्थापय अत्र अन्येषामपि दृश्यते [अष्टा॰६.३.१३७] इति दीर्घः। (मयि) त्वत्प्रीतायां पत्न्याम् (प्रजाम्) सुसन्तानम् (रायः) धनस्य (पोषम्) पुष्टिम् (गौपत्यम्) गोर्धेनोः पृथिव्या वाचो वा पतिस्तस्य भावम् (सुवीर्य्यम्) शोभनं च तद्वीर्य्यं च तत् (सजातान्) समानात् प्रादुर्भावादुत्पन्नान् (यजमानाय) विद्यासङ्गमयित्र आचार्य्याय (रुद्राः) रुद्रसंज्ञका विद्वांसः (त्वा) (कृण्वन्तु) (त्रैष्टुभेन) (छन्दसा) (अङ्गिरस्वत्) आकाशवत् (ध्रुवा) अक्षुब्धा (असि) (अन्तरिक्षम्) अक्षयप्रेमयुक्ता (असि) (धारय) (मयि) (प्रजाम्) सत्यबलधर्मयुक्ताम् (रायः) राजश्रियः (पोषम्) (गौपत्यम्) अध्यापकत्वम् (सुवीर्य्यम्) सुष्ठु पराक्रमम् (सजातान्) (यजमानाय) साङ्गोपाङ्गवेदाध्यापकाय (आदित्याः) पूर्णविद्याबलप्राप्त्या विपश्चितः (त्वा) (कृण्वन्तु) (जागतेन) (छन्दसा) (अङ्गिरस्वत्) (ध्रुवा) निष्कम्पा (असि) (द्यौः) सूर्य्य इव वर्त्तमानः (असि) (धारय) (मयि) (प्रजाम्) सुप्रजाताम् (रायः) चक्रवर्त्तिराज्यलक्ष्म्याः (पोषम्) (गौपत्यम्) सकलविद्याधिस्वामित्वम् (सुवीर्य्यम्) (सजातान्) (यजमानाय) क्रियाकौशलसहितानां सर्वासां विद्यानां प्रवक्त्रे (विश्वे) सर्वे (त्वा) (देवाः) उपदेशका विद्वांसः (वैश्वानराः) ये विश्वेषु नायकेषु राजन्ते (कृण्वन्तु) (आनुष्टुभेन) (छन्दसा) (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मप्राणवत् (ध्रुवा) सुस्थिरा (असि) (दिशः) सर्वासु दिक्षु व्याप्तकीर्त्तिः (असि) (धारय) (मयि) (प्रजाम्) (रायः) समग्रैश्वर्य्यस्य (पोषम्) (गौपत्यम्) वाक्चातुर्य्यम् (सुवीर्य्यम्) (सजातान्) (यजमानाय) सत्योपदेशकाय। [अयं मन्त्रः शत॰६.५.२.३ व्याख्यातः]॥५८॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यदा स्त्रीपुरुषौ परस्परं परीक्षां कृत्वाऽन्योन्यं दृढप्रीतौ स्याताम्। तदा वेदविधिना यज्ञं प्रतत्य वेदोक्तनियमान् स्वीकृत्य विवाहं विधाय धर्मेण संतानान्युत्पाद्य यावदष्टवार्षिकाः पुत्राः पुत्र्यश्च भवेयुस्तावन्मातापितरौ तान् सुशिक्षयेतामत ऊर्ध्वं ब्रह्मचर्य्यं ग्राहयित्वा विद्याध्ययनाय स्वगृहादतिदूरे आप्तानां विदुषां विदुषीणां च पाठशालासु प्रेषयेताम्। अत्र यावतो धनस्य व्ययः कर्त्तुं योग्योऽस्ति, तावन्तं कुर्य्याताम्, नहि संतानानां विद्यादानमन्तरा कश्चिदुपकारो धर्मश्चास्ति। तस्मादेतत् सततं समाचरेताम्॥५८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर स्त्री-पुरुष क्या करके क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे ब्रह्मचारिणी कुमारी स्त्री! जो तू (अङ्गिरस्वत्) धनञ्जय प्राणवायु के समतुल्य (ध्रुवा) निश्चल (असि) है और (पृथिव्यसि) विस्तृत सुख करने हारी है उस (त्वा) तुझ को (गायत्रेण) वेद में विधान किये (छन्दसा) गायत्री आदि छन्दों से (वसवः) चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य रखने वाले विद्वान् लोग मेरी स्त्री (कृण्वन्तु) करें। हे कुमार ब्रह्मचारी पुरुष! जो तू (अङ्गिरस्वत्) प्राणवायु के समान निश्चल है और (पृथिवी) पृथिवी के समान क्षमायुक्त (असि) है जिस (त्वा) तुझ को (वसवः) उक्त वसुसंज्ञक विद्वान् लोग (गायत्रेण) वेद में प्रतिपादन किये (छन्दसा) गायत्री आदि छन्दों से मेरा पति (कृण्वन्तु) करें। सो तू (मयि) अपनी प्रिय पत्नी मुझ में (प्रजाम्) सुन्दर सन्तानों (रायः) धन की (पोषम्) पुष्टि (गौपत्यम्) गौ, पृथिवी वा वाणी के स्वामीपन और (सुवीर्य्यम्) सुन्दर पराक्रम को (धारय) स्थापन कर। मैं तू दोनों (सजातान्) एक गर्भाशय से उत्पन्न हुए सब सन्तानों को (यजमानाय) विद्या देने हारे आचार्य्य को विद्या ग्रहण के लिये समर्पण करें। हे स्त्रि! जो तू (अङ्गिरस्वत्) आकाश के समान (ध्रुवा) निश्चल (असि) है और (अन्तरिक्षम्) अविनाशी प्रेमयुक्त (असि) है उस (त्वा) तुझको (रुद्राः) रुद्रसंज्ञक चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य सेवने हारे विद्वान् लोग (त्रैष्टुभेन) वेद में कहे हुए (छन्दसा) त्रिष्टुप् छन्द से मेरी स्त्री (कृण्वन्तु) करें। हे वीर पुरुष! जो तू आकाश के समान निश्चल है और दृढ़ प्रेम से युक्त है, जिस तुझ को चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य करने हारे विद्वान् लोग वेद में प्रतिपादन किये त्रिष्टुप् छन्द से मेरा स्वामी करें। वह तू (मयि) अपनी प्रिय पत्नी मुझ में (प्रजाम्) बल तथा सत्य धर्म से युक्त सन्तानों (रायः) राज्यलक्ष्मी की (पोषम्) पुष्टि (गौपत्यम्) पढ़ाने के अधिष्ठातृत्व और (सुवीर्य्यम्) अच्छे पराक्रम को (धारय) धारण कर मैं तू दोनों (सजातान्) एक उदर से उत्पन्न हुए सब सन्तानों को अच्छी शिक्षा देकर वेदविद्या की शिक्षा होने के लिये (यजमानाय) अङ्ग-उपाङ्गों के सहित वेद पढ़ाने हारे अध्यापक को देवें। हे विदुषी स्त्री! जो तू (अङ्गिरस्वत्) आकाश के समान (ध्रुवा) अचल (असि) है (द्यौः) सूर्य के सदृश प्रकाशमान (असि) है उस (त्वा) तुझ को (आदित्याः) अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य करके पूर्ण विद्या और बल की प्राप्ति से आप्त सत्यवादी धर्मात्मा विद्वान् लोग (जागतेन) वेद में कहे (छन्दसा) जगती छन्द से मेरी पत्नी (कृण्वन्तु) करें। हे विद्वान् पुरुष! जो तू आकाश के तुल्य दृढ़ और सूर्य्य के तुल्य तेजस्वी है, उस तुझ को अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य सेवने वाले पूर्ण विद्या से युक्त धर्मात्मा विद्वान् लोग वेदोक्त जगती छन्द से मेरा पति करें। वह तू (मयि) अपनी प्रिय भार्य्या मुझ में (प्रजाम्) शुभ गुणों से युक्त सन्तानों (रायः) चक्रवर्त्ति-राज्यलक्ष्मी को (पोषम्) पुष्टि (गौपत्यम्) संपूर्ण विद्या के स्वामीपन और (सुवीर्यम्) सुन्दर पराक्रम को (धारय) धारण कर। मैं तू दोनों (सजातान्) अपने सन्तानों को जन्म से उपदेश करके सब विद्या ग्रहण करने के लिये (यजमानाय) क्रिया-कौशल के सहित सब विद्याओं के पढ़ाने हारे आचार्य को समर्पण करें। हे सुन्दर ऐश्वर्य्ययुक्त पत्नि! जो तू (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मा प्राणवायु के समान (ध्रुवा) निश्चल (असि) है और (दिशः) सब दिशाओं में कीर्तिवाली (असि) है, उस तुझ को (वैश्वानराः) सब मनुष्यों में शोभायमान (विश्वे) सब (देवाः) उपदेशक विद्वान् लोग (आनुष्टुभेन) वेद में कहे (छन्दसा) अनुष्टुप् छन्द से मेरे आधीन (कृण्वन्तु) करें। हे पुरुष! जो तू सूत्रात्मा वायु के सदृश स्थित है (दिशः) सब दिशाओं में कीर्तिवाला (असि) है, जिस (त्वा) तुझ को सब प्रजा में शोभायमान सब विद्वान् लोग मेरे आधीन करें। सो आप (मयि) मुझ में (प्रजाम्) शुभलक्षणयुक्त सन्तानों (रायः) सब ऐश्वर्य्य की (पोषम्) पुष्टि (गौपत्यम्) वाणी की चतुराई और (सुवीर्य्यम्) सुन्दर पराक्रम को (धारय) धारण कर। मैं तू दोनों जने अच्छा उपदेश होने के लिये (सजातान्) अपने सन्तानों को (यजमानाय) सत्य के उपदेशक अध्यापक के समीप समर्पण करें॥५८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे की परीक्षा करके आपस में दृढ़ प्रीति वाले होवें, तब वेदोक्त रीति से यज्ञ का विस्तार और वेदोक्त नियमाऽनुसार विवाह करके धर्म से सन्तानों को उत्पन्न करें। जब तक कन्या और पुत्र आठ वर्ष के हों, तब तक माता-पिता उनको अच्छी शिक्षा देवें। इस के पीछे ब्रह्मचर्य्य धारण करा के विद्या पढ़ने के लिये अपने घर से बहुत दूर आप्त विद्वान् पुरुषों और आप्त विदुषी स्त्रियों की पाठशालाओं में भेज देवें। वहां पाठशाला में जितने धन का खर्च करना उचित हो उतना करें, क्योंकि सन्तानों को विद्यादान के विना कोई उपकार वा धर्म नहीं बन सकता। इसलिये इस का निरन्तर अनुष्ठान किया करें॥५८॥
विषय
पृथिवी - अन्तरिक्ष - द्यौः - दिशाः
पदार्थ
१. हे पत्नि! ( वसवः ) = उत्तम निवास देनेवाले, आयुर्वेद के विद्वान् आचार्य ( त्वा ) = तुझे ( गायत्रेण छन्दसा ) = प्राणरक्षण की इच्छा से [ गयाः प्राणाः, त्र = रक्षा ] ( अङ्गिरस्वद् ) = अङ्गिरा की भाँति, अर्थात् एक-एक अङ्ग में रसवाला ( कृण्वन्तु ) = करें, अर्थात् तू वसुओं के सम्पर्क में आकर आयुर्वेद को समझने के कारण सशक्त अङ्गोंवाली है, तेरा खान-पान प्राणशक्ति की रक्षा के दृष्टिकोण से होता है। ( ध्रुवा असि ) = तू इस पतिकुल में ध्रुव होकर रहनेवाली है। ( पृथिवी असि ) = विस्तृत हृदयान्तरिक्षवाली है। [ क ] ( मयि ) = मुझमें ( प्रजाम् ) = प्रजा को ( धारय ) = धारण कर, अर्थात् गृहस्थ में हम दोनों के प्रवेश का उद्देश्य उत्तम सन्तान का निर्माण ही हो। [ ख ] ( रायस्पोषम् ) [ धारय ] = धन के पोषण को धारण करनेवाली हो। यह धन का पोषण तेरी मितव्ययिता से ही तो होगा। तेरा सारा व्यवहार ‘समृद्धिकरण’ होना चाहिए। [ ग ] ( गौपत्यम् ) [ धारय ] = तू गौपत्य को धारण कर। तेरी सहायता से मैं गोपति बनूँ, घर में गौ रखनेवाला बनूँ अथवा ‘गावा इन्द्रियाणि’ इन्द्रियों का पति, जितेन्द्रिय बन सकूँ। [ घ ] ( सुवीर्यम् ) [ धारय ] = जितेन्द्रियता के द्वारा तू उत्तम वीर्य को मुझमें धारण कर। [ ङ ] ( यजमानाय ) = यज्ञ के स्वभाववाले मेरे लिए ( सजातान् ) = मेरे सजातों को भी, बिरादरी के लोगों को भी तू धारण कर। जब पति यज्ञ के स्वभाववाला होगा तो सबसे मेल-जोल के कारण उनका धारण [ खिलाना-पिलाना ] भी आवश्यक हो जाता है। २. ( रुद्राः ) = [ रोरूयमाणो द्रवति ] प्रभु-नाम के धारणपूर्वक वासनाओं को विनष्ट करनेवाले ( त्वा ) = तुझे ( त्रैष्टुभेन छन्दसा ) = काम, क्रोध व लोभ को रोकने की इच्छा से ( अङ्गिरस्वत् ) = एक-एक अङ्ग में रसवाला ( कृण्वन्तु ) = करें। ( ध्रुवा असि ) = तू पतिकुल में ध्रुव होकर रहनेवाली है, ( अन्तरिक्षम् असि ) = सदा मध्यमार्ग पर चलनेवाली है। ( मयि ) = मुझमें ( प्रजां धारय ) = प्रजा को धारण कर, सन्तान को जन्म दे। ( रायस्पोषं गौपत्यं सुवीर्यम् ) = धन के पोषण को, जितेन्द्रियता को, उत्तम वीर्य को धारण कर। ( यजमानाय ) = मुझ यजमान के लिए ( सजातान् ) = सजातों को धारण कर। ३. ( आदित्याः ) = सूर्य के समान ज्योति को—ब्रह्म-ज्ञान को अपने अन्दर लेनेवाले आदित्य ब्रह्मचारी आचार्य तुझे ( जागतेन छन्दसा ) = जगती के हित की इच्छा से ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाला करें। ( ध्रुवा असि ) = तु ध्रुवा है। ( द्यौः असि ) = प्रकाशमय जीवनवाली है, क्रीड़ादि स्वभाववाली है, तत्त्व को समझने के कारण सब बातों को sportsman like spirit में लेनेवाली है। ( मयि प्रजां धारय ) = मुझमें सन्तान को धारण कर। ( रायस्पोषं गौपत्यं सुवीर्यम् ) = धन के पोषण को, जितेन्द्रियता को तथा उत्तम वीर्य को धारण कर। ( यजमानाय सजातान् ) [ धारय ] = मुझ यजमान के लिए मेरी बिरादरीवालों का उचित आतिथ्य करनेवाली बन। ४. ( विश्वे देवाः ) = सब देव, ( वैश्वानराः ) = जो सब मनुष्यों का हित करनेवाले हैं, वे ( त्वा ) = तुझे ( आनुष्टुभेन छन्दसा ) = अनुक्षण प्रभु-स्मरण की इच्छा से ( अङ्गिरस्वत् ) = सरस अङ्गोंवाला करें। ( ध्रुवा असि ) = तू ध्रुवा है। ( दिशः असि ) = तू उत्तम निर्देशोंवाली—उत्तम सलाह देनेवाली है। सभी आनेवाले लोगों को उचित निर्देश देनेवाली है। ( मयि प्रजां धारय ) = मुझमें सन्तान को धारण कर। ( रायस्पोषं गौपत्यं सुवीर्यम् ) = धन के पोषण को, जितेन्द्रियता को, उत्तम वीर्य को धारण कर। ( यजमानाय ) = मुझ यज्ञशील के लिए ( सजातान् ) = सब बिरादारीवालों का धारण कर।
भावार्थ
भावार्थ — पत्नी विशाल हृदयान्तरिक्षवाली, मध्यमार्ग पर चलनेवाली, प्रकाशमय जीवनवाली तथा सभी को उचित निर्देश देनेवाली हो।
विषय
वसु, रुद, आदित्य नामक विद्वानों और निवासियों शासकों, व्यापारियों के राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य ।
भावार्थ
गृहस्थ प्रकरण में हे स्त्रि ! तुझे ( वसवः ) राष्ट्र में वसने वाले विद्वान् पुरुष ( गायत्रेण छन्दसा ) गायत्र छन्द से ( अंगिरस्वत् ) शरीर में विद्यमान प्राण के समान मेरे हृदय या गृह में प्राण के समान प्रिय ( कृण्वन्तु ) बनावें । तू ( ध्रुवा असि ) गृहस्थ व्रत में अचल हो, ( पृथिवी असि ) पृथिवी के समान सबका आश्रय ( असि ) हो । ( मयि ) मेरे लिये (प्रजाम् ) सन्तान को अपने भीतर ( धारय) धारण कर (रायस्पोषं ) धनेश्वर्य की समृद्धि, ( गौपत्यम् ) गौ आदि पशुओं की सम्पत्ति और ( सुवीर्यं ) उत्तम वीर्य को ( धारय ) धारण कर और ( सजातान् ) समान बल वीर्य से उत्पन्न, अनुरूप पुत्रों और भाइयों को ( यजमानाय ) विद्या के प्रदान करने वाले आचार्य के अधीन कर । इसी प्रकार स्त्री भी वरण योग्य पति से कहे हे प्रियतम ! ( वसवः ) वसु नाम विद्वान् गण ( गायत्रेण छन्दसा ) वेदोपदिष्ट, प्राणों इन्द्रियों और वीर्यों की रक्षा के सुदृढ़ उपाय से तुझको ( अङ्गिरस्वत् कृण्वन्तु ) अग्नि के समान तेजस्वी और अंग या शरीर में रस के समान प्रवाहित होने वाले प्राणके समान प्रिय बना देवें । हे प्रियतम ! आप ( ध्रुवः पृथुः असि ) पर्वत के समान अचल और पृथ्वी के समान विशाल सर्वाश्रय हो । आप ( मयि ) मुझ अपनी प्रियतमा स्त्री में ( प्रजाम् ) प्रजा ( रायः पोषम् ) धन समृद्धि ( गौपत्यम् ) पशु सम्पत्ति (सुवीर्यम् ) उत्तम वीर्य ( धारय ) धारण कराओ और (सजातान् ) हम दोनों के समान वीर्य से उत्पन्न पुत्रों को ( यजमानाय ) विद्या के प्रदाता आचार्य विद्वान् पुरुष के अधीन रख । इसी प्रकार ( रुद्राः ) रुद्र नामक विद्वान् नैष्ठिक पुरुष ( त्रैष्टुभेन छन्दसा ) वेदोक्त त्रैष्टुभ छन्द से ( अङ्गिरस्वत् कृण्वन्तु ) ज्ञान और वीर्य से तेजस्वी बनावें । (आदित्याः ) आदित्य के समान तेजस्वी विद्वान् ( जागतेन छन्दसा ) जागत, अर्थात् लोकोपकारी वृत्ति की शिक्षा से तुझे ( अङ्गिरस्वत् ) ज्ञानवान्, तेजस्वी बनावें और वैश्वानराः ) समस्त नेता पुरुषों के नेताओं में भी उच्चपदों पर विराजमान ( विश्वे देवाः ) समस्त दानशील एवं दर्शनशील राजा और विद्वान् लोग ( आनुष्टुभेन छन्दसा अङ्गिरस्वत् कृण्वन्तु ) आनुष्टुभ छन्द से अर्थात् परस्पर एक दूसरे के अनुकूल व्यवस्था पूर्वक रहने की शिक्षा से सूत्रात्मक वायु के समान प्रिय बनावें (ध्रुवा असि० यजमानाय ३ इत्यादि ) पूर्ववत् । शत० ६ । ५ । २ । ३ - ६ ॥ राजपक्ष में- हे पृथिवी ! हे राजन् ! तुझको ( गायत्रेण छन्दसा ) गायत्रेणछन्द, अर्थात् ब्राह्मण बल से ( वसवः ) वसु नामक विद्वानगण (अंगिरस्वत् ) अग्नि सूर्य और वायु और आकाश के समान तेजस्वी बलवान् और व्यापक बनावें । ( रुद्राः) शत्रुओं को रुलाने में समर्थ वीर सैनिक ( त्रैष्टुभेन छन्दसा ) क्षात्रबल से तुझको तेजस्वी बनावें । (आदित्यैः ) आदान कुशल वैश्यगण तुझको वैश्यवल से तेजस्वी ऐश्वर्यवान् बनावें । ( वैश्वानराः ) समस्त प्रजा के नेता लोग ( आनुष्टुभेन छन्दसा ) परस्परा- नुकूल व्यवहार से युक्त श्रमी वर्ग के बलसे तुझे बलवान् बनावे | हे पृथिवी ! तू पृथिवी है। तू ( ध्रुवा असि ) ध्रुव, स्थिर है। तू ( मयि ) मुझ राष्ट्रपति के लिये ( प्रजां, रायःपोषम्, गौपत्यं, सुवीर्यं धारय ) प्रजा, धनैश्वर्य, पशु समृद्धि, उत्तम वीर्य को धारण कर । ( यजमानाय सजातान् ) मेरे समान बलशाली राजाओं को भी मुझ यज्ञशील राष्ट्रपति के अभ्युदय के लिये ( धारय) धारण कर ।
टिप्पणी
चतुर्थ्यर्थे सप्तमी ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिः साध्या वा ऋषयः।वसुरुद्रादित्यविश्वेदेवा देवता: । ( १,२ ) उत्कृतिः । षड्जः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपामालंकार आहे. स्त्री व पुरुष यांनी एकमेकांची परीक्षा करावी व आपापसात दृढ प्रेम उत्पन्न झाल्यास वेदोक्त रीतीने यज्ञाचा विस्तार करून वेदोक्त नियमांप्रमाणे विवाह करावा व धर्मपूर्वक संतानांना जन्म द्यावा. जेव्हा कन्या व पुत्र आठ आठ वर्षांचे होतील तेव्हा आई-वडिलांनी त्यांना चांगले शिक्षण द्यावे. त्यानंतर ब्रह्मचर्य धारण करून त्यांना विद्या शिकण्यासाठी घरांपासून दूर आप्त विद्वान स्त्री-पुरुषांच्या पाठशाळेत पाठवावे. पाठशाळेमध्ये जितके धन खर्च करणे योग्य आहे तितकेच खर्च करावे. कारण संतानासाठी विद्यादानाखेरीज कोणताही उपकार किंवा धर्म नसतो. म्हणून त्याचे निरंतर अनुष्ठान करावे.
विषय
यानंतर स्त्री-पुरुषांनी काय करून काय करावे (कोणते कर्म करून नंतर काय काय करावे) (कर्त्तव्यादी) - याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - ( या मंत्रात पति-पत्नीतील संवादाच्या रुपाने संवादात्मक शैलीमध्ये दोघांच्या कर्तव्यांविषयी विवेचन केले आहे) (विहापूर्वी एकमेकाची निवड करण्याविषयी वर्णन आहे)-(कुमार ब्रह्मचारी म्हणतो) हे ब्रह्मचारिणी कुमारी, तू (अंगिरस्वत्) धनंजय नामक प्राणवायूसामान (ध्रुवा) निश्चल (वा दृढनिश्चयी) (असि) आहेस आणि (पृथिव्यसि) सर्वथा अत्यंत सुखकारक आहेस, म्हणून (त्वा) तुला (गायत्रेण) वेदांमधे विद्यान केलेल्या (छन्दसा) गायत्री आदी छंदांद्वारा (रसव:) चोवीस वर्ष ब्रह्मचर्य धारण केलेल्या विद्वानांनी तुला माझी पत्नी (कृण्वन्तु) करावे (माझ्याशी तुझ्या विवाहाला मान्यता द्यावी) (कुमारी ब्रह्मचारिणी म्हणते-) ^1) हे कुमार ब्रह्मचारी, तू (अंगिरस्वत्) प्राणवायूप्रमाणे निश्चल आहेस आणि (पृथिवी) पृथ्वीप्रमाणे क्षमाशील (असि) आहेस, म्हणून (त्वा) तुला (वसव:) वसुसंज्ञक विद्वज्जनांनी (गायत्रेण) वेदात प्रतिपादित केलेल्या (छन्दसा) गायत्री आदी छंदांनी तुला माझा पती (कृण्वन्तु) करावे (मान्यता वा स्वीकृती द्यावी) ^2) पती झाल्यानंतर आता तू मयि) माझ्यात म्हणजे तुझ्या पत्नीद्वारे (प्रजाम्) सुंदर संतानांना (जन्म दे) (तसेच माझ्यासह) (शय:) धनाची (पोषम्) अधिकता आणि (गौपत्यम्) गौ, भूमी आणी मधुरवाणीचा स्वामी हो आणि (सुखीय्यम्) सुंदर पराक्रमाची (धारम) स्थापना कर (पराक्रम करून दाखव)^3) आता मी व तू दोघे (सजातान्) एक गर्भाशयातून उत्पन्न आपल्या सर्व संतानांना (तुझ्या माझ्या मुला-मुलीनां) (यममानाय) विद्या प्रदान करणार्या आचार्याकडे विद्याग्रहणासाठी पाठवू.^4) (पती म्हणतो हे पत्नी, तू (अड्निरस्वत्) आकाशाप्रमाणे (धु्रवा) निश्चल (असि) आहेस आणि (अन्तरिक्षम्) अमर प्रेमवती (असि) आहेस. अशा (त्वा) तुला (रुद्रा:) रुद्रसंज्ञक चव्वेचाळीस वर्षापर्यंत ब्रह्मचर्याचे पालन करणारे विद्वज्जन (त्रैष्टुभेन) वेदात वर्णिलेल्या त्रिष्टुप् छंदाद्वारे माझी पत्नी (कृष्णन्तु) करोत (वा आशीर्वाद देवोत).^5) (पत्नी म्हणते) हे वीर पुरुषा, तू आकाशाप्रमाणे निश्चल आहेस आणि माझ्यावर तुझे प्रेम दृढ आहे. तुला देखील चव्वेचाळीस वर्ष ब्रह्मचर्य पालन करणार्या विद्वानांनी वेदात प्रतियादित त्रिष्टुप् छंदाद्वारे माझा पती म्हणून मान्यता द्यावी (वा आशीर्वाद द्यावा.) असा तू (मयि) माझ्यासह म्हणजे तुझ्या प्रिय प्रत्नीसह (प्रजाम्) बल, सत्य आणि धर्म यांनी संयुक्त अशा संतानांना जन्म दे, (राय:) राज्यलक्ष्मी म्हणजे धनसंपत्तीची (पोषम्) पुष्टीवा आधिक्य होऊ दे, (मौपव्यम्) अध्यापनाचा स्वामी हो आणि (सुवीर्य्यम्) प्रशंसनीय पराक्रम (धारय) धारण कर. यानंतर मी व तू दोघे (सजातान्) एक गर्भातून उत्पन्न आपल्या सर्व संतानांना (सर्व भावंडाना) उत्तम विद्या-ज्ञान प्राप्त करण्यासाठी (यजमानाय) अंग-उपांगसहित वेद शिकविणार्या अध्यापकाला सोपवू. ^6) (पती म्हणतो) हे विदुषी पत्नी, तू (अंगिस्तचत्) आकाशाप्रमाणे (ध्रुवा) अचल (असि) आहेस आणि (द्यौ:) सूर्यासम प्रकाशमान (कीर्तिमान) (असि) आहेस. (त्वा) तुला (आदित्या:) अठ्ठेचाळीस वर्षापर्यंत ब्रह्मचर्य धारण करून पूर्ण विद्या व शक्ती प्राप्त केलेल्या आप्त आणि सत्यवादी धर्मात्मा विद्वज्जनांनी (जागतेन) वेदातील जगती छंदांनी तुला माझी पत्नी म्हणून मान्यता द्यावी.^7) (पत्नी म्हणते) हे विद्वान पुरुष, (पती) तू आकाशाप्रमाणे दृढ व सूर्यासम तेजस्वी आहेत, तुला अठ्ठेचाळीस वर्ष ब्रह्मचर्य-पालन करणारे पूर्णविद्यावान धर्मात्मा जनांनी तू (मयि) वैदोन्त जराती छंदाद्वारे माझा पती म्हणून मान्यता द्यावी. तुझ्या प्रिय भार्येसह (प्रजाम्) शुभगुणयुक्त संतानांना जन्म द्यावा-तसेच (राय:) चक्रवर्ती राज्यलक्ष्मी (पोषम्) पुष्कळतेने मिळवून (गौपत्यम्) संपूर्ण विद्यांचे स्वामित्व आणि (सुवीर्यम्) प्रशंसनीय पराक्रम (धारय) धारण कर (उत्तम संतती, राज्य विद्या आणि पराक्रमाची स्वामी हो) मी व तू दोघे (सजातान्) आपल्या संततीला जन्मापासून उपदेश देऊन सर्व विद्याग्रहण करण्यासाठी (यजमानाय) क्रिया-कौशल्यासह सर्व विद्या विकविणार्या आचार्याकडे सोपवू. ^8) (पति म्हणतो) हे सुंदर आणि ऐश्वर्यवती पत्नी, तू (अड्गिरस्वत्) सूत्रात्मा प्राणावायूप्रमाणे (ध्रुवा) निश्चल (असि) आहेस. आणि (दिश:) सर्व दिशांमधे जिची कीर्ति आहे अशी (असि) आहेस. अशा तुला (वैश्वामरा:) मनुष्यांत शोभून दिसणारे (विश्वे) सर्व (देवा:) उपदेशक विद्वाजनंनानी (अनुष्टुभेन) वेदातील (छन्दसा) अनुष्टुप् छंदाने माझ्याअधीन (कृष्वन्तु) करावे. ^9) (पत्नी म्हणते) हे पुरुष (पती) तू सूत्रात्मा वायू-प्रमाणे स्थित आहेस आणि दिश:) सर्व दिशांमधे कीर्तिवान (असि) आहेस. (त्वा) तूला सर्वजनांत प्रकाशमान अशा विद्वज्जनांनी माझ्या अधीन करावे. आणि (मवि) माझ्यात वा माझ्यासह (प्रजाम्) सुलक्षणी संतानांना जन्म दे आणि (राय:) सर्व ऐश्वर्याचे (पोषम्) पूर्णत्व आणि गौपत्यम्) वाणीचे चातुर्य आणि (सुवीर्य्यम्) शोभम पराक्रम (धारय) धारणकर. मी व तू श्रेष्ठ उपदेश मिळण्याकरिता (सजातान्) आपल्या संततीला (मुला-मुलीला) यजमानाय) भत्योपदेशक अध्यापकाकडे सोपवावे. (गुरुकुलात अध्ययनासाठी पाठवावे) ॥58॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. ज्या स्त्री-पुरुषात एकमेकाची नीट परीक्षा करून ऐकमेकाविषयी दृढ प्रीतिभाव निर्माण झाला असेल, तेव्हा त्या दोघांनी वेदोक्त पद्धतीने यज्ञाचे आयोजन करून वेदोक्त नियमांनुसार विवाह करून धर्माप्रमाणे सन्तानें उत्पन्न करावीत. जेव्हां त्यांची मुलें, कन्या तसेच पुत्र, आठ वर्षाचे होतील, तेव्हा आईवडीलांनी त्यांना उत्तम विद्या-ज्ञान द्यावे. त्यानंतर मुलांना ब्रह्मचर्य धारण करवून विद्याध्ययनासाठी आपल्या घरापासून खूप दूर असलेल्या (गुरुकुलात) आप्त विद्वान पाठशाळेत मुलांना व आप्त विद्वान पाठशाळेत मुलीना पाठवून द्यावे. तिथे मुलांकरिता जेवढे धन व्यय करण्याची आवश्यकता वा नियम असेल, त्याप्रमाणे खर्च करावा. कारण की आपल्या मुलामुलीला विद्यादान देणे वा करविणे यासारखा उपकार वा धर्म इतर कोणताही नाही. म्हणून या विद्यादानाची व्यवस्था अवश्य करावी. ॥58॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned celibate young woman, thou art steady like air, and giver of happiness, may the learned Vasu Brahmcharis, with the teachings of Gayatri verses, as given in the Vedas, make thee my wife. O celibate young man, thou art steady like vital air, and full of forbearance like the earth, may the learned Vasu Brahmcharis, with the teachings of Gayatri verses as given in the Vedas, make thee my husband. Establish in me, thy wife, good progeny, abundant wealth, mastery of speech and land, and excellent valour. May we both handover the children born alike, to a learned teacher for acquiring knowledge. O learned celibate young woman, thou art stead-fast like the sky, and highly lovely, may the learned Rudra Brahmcharis, with the teachings of Trishtup verses as given in the Vedas, make thee my wife. O celibate young man, thou art steadfast like the sky, and full of love may Rudra Brahmcharis, with the teachings of Trishtup verses, as given in the Vedas, make thee my husband. May thou establish in me, virtuous children, abundant wealth, art of teaching, and excellent valour. May we both, hand over the children born of the same womb, to a learned teacher, the master of the Vedas, for learning the vedic lore from him. O learned celibate young woman, thou art steady like the sky, and brilliant like the sun. May the learned Aditya Brahmcharis, with the teachings of Jagati verses as given in the Vedas, make thee my wife. O celibate young man, thou art steadfast like the sky and brilliant like the sun. May the learned Aditya Brahmcharis, with the teachings of Jagati verses as given in the Vedas, make thee my husband. Establish in me good progeny, abundant wealth, full mastery of knowledge, and excellent valour. May we both hand over the children giving them instructions from their infancy, to a learned teacher, for receiving education. O beautiful and glorious wife, thou art steadfast like the vital air, and famous in all directions. May all the sages and preachers, with the teachings of Anushtup verses as given in the Vedas, entrust thee to my care. O husband, thou art steadfast like the vital air, and famous in all directions, may all the sages and teachers place thee in my charge. Establish in me, good progeny, abundant wealth, wisdom of speech, and excellent valour. May we both hand over our children for receiving education, to a learned teacher who preaches truth.
Meaning
Virgin girl, firm and strong you are like the breath of vitality, blissful and generous as earth. May the teachers of the Vasu order of 24 years prepare you with the inspiring gayatri verses to be my wife and give you unto me. Bachelor youth, unshakeable as the vital air and tolerant as the earth, may the teachers of the Vasu order of 24 years prepare you with the inspiring gayatri verses to be my husband and give you unto me. Bless me with children, wealth of life, good health, economic prosperity, and honour and lustre. And the children would be for the yajamana, the teacher, for study. Young woman, you are firm like the sky, full of love like the space between earth and heaven. May the teachers of the Rudra order of 36 years prepare you with the trishtup verses to be my wife and give you unto me. Young man, you are firm like the sky, full of love like the space between earth and heaven. May the teachers of the Rudra order of 36 years prepare you with the trishtup verses to be my husband and give you unto me. Get me children, wealth of life, good health, economic prosperity, and social honour and lustre. And the children would be for the yajamana, the teacher, for study. Young and learned woman, you are inviolable like the light of the sun, brilliant and enlightening. May the teachers of the Aditya order of 48 years, with the jagati verses, give you unto me as wife. Young man of learning, you are firm and invincible like the light of the sun, brilliant in character and behaviour. May the teachers of the Aditya order of 48 years, with the jagati verses, give you unto me as husband. Give me children, world fame, good health, economic prosperity and brilliance of well-being. And the children would be for the yajamana, a brilliant teacher, for study Blessed girl, you are firm and strong as the universal spirit of life among living beings, darling of space in all the directions. May all the learned sages and brilliant leaders of the world, with the anushtup verses, give you unto me as wife. Blessed young man, firm and strong as the vital link of life among living beings, admired of everybody in all the directions, may all the learned sages and brilliant leaders of the world, with the anushtup verses, give you unto me as husband. Bless me with children, glory, health, economic prosperity and intellectual brilliance, and the pride of heroic motherhood. And the children would be for the yajamana, the teacher preceptor of truth, for study.
Translation
May the young workers (aged 24) make you shine with the gayatri metre. You are steady; you are the earth. Bless me the sacrificer, with progeny, riches and nourishment, ownership of cattle, plenty of strength and kinsmen. (1) May the adult workers, (aged 36) make you shine with the tristubh metre. You are steady; you are the mid-space. Bless me, the sacrificer, with progeny, riches and nourishment, ownership of cattle, plenty of strength and kinsmen. (2) May the mature workers (aged 48) make you shine with the jagati metre. You are steady; you are the heaven. Bless me, the sacrificer, with progeny, riches and nourishment, ownership of cattle, plenty of strength and kinsmen. (3) May all the bounties of Nature, benevolent to all men, make you shine with the anustup metre. You are Steady; you are the regions. Bless me, the sacrificer, with progeny, riches and nourishment, ownership of cattle, plenty of strength and kinsmen. (4)
Notes
Angirasvat krnvantu, make you shine like burning coals. Like Angiras (Mahidhara). Dhanafijaya, vital breath (Dayaà. ). Vasavah, according to legend, a group of deities, eight in number, associated with Indra and in the later texts with Agni. But Dayéinanda interprets them as young sages, aged upto 24 years. Rudrah, a group of deities, eleven in number, sons of Rudra. Adult sages, aged upto 36 years. (Daya. ). Adityah, a group of deities, twelve in number, sons of Aditi; Varuna is chief among them. Mature Sages aged upto 48 years (Daya. ). Gaupatyam, गोपतित्वम्, ownership of cattle. Sajatan, kins- men. А prayer bas been made to Earth, Mid-space, Heaven and the Regions for progeny, wealth and prosperity, plenty of cattle, virility and kinsmen.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্দম্পতী কিঙ্কৃত্বা কিঙ্কুর্য়্যাতামিত্যুপদিশ্যতে ।
পুনঃ স্ত্রীপুরুষ কী করিয়া কী করিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে ব্রহ্মচারিণী কুমারী স্ত্রী ! তুমি (অঙ্গিরস্বৎ) ধনঞ্জয় প্রাণবায়ুর সমতুল্য (ধ্রুবা) নিশ্চল (অসি) হও এবং (পৃথিব্যসি) বিস্তৃত সুখকারিণী সেই (ত্বা) তোমাকে (গায়ত্রেণ) বেদে বিধান কৃত (ছন্দসা) গায়ত্রী আদি ছন্দ দ্বারা (বসবঃ) চব্বিশ বর্ষ ব্রহ্মচর্য্য রক্ষাকারী বিদ্বান্গণ আমার স্ত্রী (কৃণ্বন্তু) করুন । হে কুমার ব্রহ্মচারী পুরুষ ! তুমি (অঙ্গিরস্বৎ) প্রাণবায়ুর সমান নিশ্চল এবং (পৃথিবী) পৃথিবীর ন্যায় ক্ষমাযুক্ত (অসি) হও, (ত্বা) তোমাকে (নসবঃ) উক্ত বসুসংজ্ঞক বিদ্বান্গণ (গায়ত্রেণ) বেদে প্রতিপাদিত (ছন্দসা) গায়ত্রী আদি ছন্দ দ্বারা আমার পতি (কৃণ্বন্তু) করুন । সুতরাং তুমি (ময়ি) স্বীয় প্রিয় পত্নী আমাতে (প্রজাম্) সুন্দর সন্তান (রায়ঃ) ধনের (পোষম্) পুষ্টি (গৌপত্যম্) গৌ, পৃথিবী বা বাণীর স্বামিত্ব এবং (সুবীর্য়্যম্) সুন্দর পরাক্রম (ধারয়) স্থাপন কর । আমি তোমাদের উভয়কে (সজাতান্) এক গর্ভাশয় হইতে উৎপন্ন সব সন্তানদিগকে (য়জমানায়) বিদ্যা প্রদানকারী আচার্য্যকে বিদ্যা গ্রহণ হেতু সমর্পণ করি । হে স্ত্রী! তুমি (অঙ্গিরস্বৎ) আকাশবৎ (ধ্রুবা) নিশ্চল (অসি) হও এবং (অন্তরিক্ষম্) অবিনাশী প্রেমযুক্ত (অসি) হও সেই (ত্বা) তোমাকে (রুদ্রাঃ) রুদ্রসংজ্ঞক চুয়াল্লিশ বর্ষ ব্রহ্মচর্য্য সেবনকারী বিদ্বান্গণ! (ত্রৈষ্টুভেন) বেদে কথিত (ছন্দসা) ত্রিষ্টুপ্ছন্দ দ্বারা আমার স্ত্রী (কৃণ্বন্তু) করুন । হে বীরপুরুষ ! তুমি আকাশের ন্যায় নিশ্চল এবং দৃঢ় প্রেমযুক্ত, তোমাকে চুয়াল্লিশ বৎসর পর্য্যন্ত ব্রহ্মচর্য্য পালনকারী বিদ্বান্গণ বেদে প্রতিপাদিত ত্রিষ্টুপ্ছন্দ দ্বারা আমার স্বামী করুন । সেই তুমি (ময়ি) তোমার নিজ প্রিয় পত্নী আমাতে (প্রজাম্) বল তথা সত্য ধর্ম দ্বারা যুক্ত সন্তানগণ (রায়ঃ) রাজলক্ষ্মীর (পোষম্) পুষ্টি (গৌপত্যম্) পড়াইবার অধিষ্ঠাতৃত্ব এবং (সুবীর্য়্যম্) সম্যক্ পরাক্রম (ধারয়) ধারণ কর । আমি তুমি উভয়ে (সজাতান্) এক উদর হইতে উৎপন্ন সব সন্তানদিগকে সুশিক্ষা প্রদান করিয়া বেদবিদ্যার শিক্ষা দেবার জন্য (য়জমানায়) অঙ্গ-উপাঙ্গ সহিত বেদ অধ্যাপনকারী অধ্যাপককে প্রদান করিব । হে বিদুষী স্ত্রী ! তুমি (অঙ্গিরস্বৎ) আকাশবৎ (ধ্রুবা) অচলা (অসি) হও (দ্যৌঃ) সূর্য্যসদৃশ প্রকাশমানা (অসি) হও, সেই (ত্বা) তোমাকে (আদিত্যাঃ) আটচল্লিশ বর্ষ পর্যন্ত ব্রহ্মচর্য্য পালন করিয়া পূর্ণ বিদ্যা এবং বল প্রাপ্তিপূর্বক আপ্ত সত্যবাদী ধর্মাত্মা বিদ্বান্গণ (জাগতেন) বেদে বর্ণিত (ছন্দসা) জগতী ছন্দ দ্বারা আমার পত্নী (কণ্বন্তু) করুন । হে বিদ্বান্ পুরুষ ! তুমি আকাশসদৃশ দৃঢ় এবং সূর্য্যসদৃশ তেজস্বী, সেই তোমাকে আটচল্লিশ বর্ষ পর্য্যন্ত ব্রহ্মচর্য্য সেবনকারী পূর্ণবিদ্যাযুক্ত ধর্মাত্মা বিদ্বান্গণ বেদোক্ত জগতী ছন্দ দ্বারা আমার পতি করুন । সেই তুমি (ময়ি) স্বীয় প্রিয় ভার্য্যা আমাতে (প্রজাম্) শুভ গুণযুক্ত সন্তানগণ (রায়ঃ) চক্রবর্ত্তী-রাজলক্ষ্মীকে (পোষম্) পুষ্টি (গৌপত্যম্) সম্পূর্ণ বিদ্যার স্বামীত্ব এবং (সবীর্য়ম্) সুন্দর পরাক্রম (ধারয়) ধারণ কর । আমি তুমি উভয়ে (সজাতান্) স্বীয় সন্তানদিগকে জন্ম হইতে উপদেশ করিয়া সকল বিদ্যা গ্রহণ করিবার জন্য (য়জমানায়) ক্রিয়া-কৌশল সহিত সর্ব বিদ্যা অধ্যাপনকারী আচার্য্যকে সমর্পণ করি । হে সুন্দর ঐশ্বর্য্যযুক্ত পত্নি! তুমি (অঙ্গিরস্বৎ) সূত্রাত্মা প্রাণবায়ুর সমান (ধ্রুবা) নিশ্চল (অসি) হও এবং (দিশঃ) সর্ব দিশায় কীর্ত্তিস্থাপন কারিণী (অসি) হও । সেই তোমাকে (বৈশ্বানরাঃ) সকল মনুষ্যমধ্যে শোভায়মান (বিশ্বে) সকল (দেবাঃ) উপদেশ বিদ্বান্গণ (আনুষ্টভেন) বেদে বর্ণিত (ছন্দসা) অনুষ্টুপ্ছন্দ দ্বারা আমার অধীন (কৃণ্বন্তু) করুন । হে পুরুষ! তুমি সূত্রাত্মা বায়ু সদৃশ স্থিত (দিশঃ) সর্ব দিশায় কীর্ত্তিযুক্ত (অসি) হও (ত্বা) তোমাকে সকল প্রজাগণ মধ্যে সর্ব বিদ্বান্গণ আমার অধীন করুন । সুতরাং তুমি (ময়ি) আমাতে (প্রজাম্) শুভলক্ষণযুক্ত সন্তানগণ (রায়ঃ) সব ঐশ্বর্য্যের (পোষম্) পুষ্টি (গৌপত্যম্) বাণীর চাতুর্য্য এবং (সুবীর্য্যম্) সুন্দর পরাক্রমকে (ধারয়) ধারণ কর । আমি তুমি উভয়ে সুউপদিষ্ট হইবার জন্য (সজাতান্) স্বীয় সন্তানদিগকে (য়জমানায়) সত্যের উপদেশক অধ্যাপকের সমীপ সমর্পণ করি ॥ ৫৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যখন স্ত্রী-পুরুষ একে অন্যের পরীক্ষা করিয়া পারস্পরিক দৃঢ় প্রীতি সম্পন্ন হইবে, তখন বেদোক্ত রীতিপূর্বক যজ্ঞের বিস্তার এবং বেদোক্ত নিয়মানুসার বিবাহ করিয়া ধর্ম সহ সন্তান উৎপন্ন করিবে । পুত্র কন্যার অষ্টম বর্ষ পর্য্যন্ত মাতা-পিতা তাহাদের সুশিক্ষা প্রদান করিবে । ইহার পরে ব্রহ্মচর্য্য ধারণ করাইয়া বিদ্যাধ্যয়ন করিবার জন্য স্বীয় গৃহ হইতে অনেক দূরে আপ্ত বিদ্বান্ এবং আপ্ত বিদুষী স্ত্রীদের পাঠশালায় প্রেরণ করিবে । সেই পাঠশালায় যতখানি ব্যয় হেতু অর্থের প্রয়োজন হয়, ততখানি করিবে কেননা সন্তানদিগের বিদ্যাদান ব্যতীত কোন উপকার বা ধর্ম হইতে পারে না । এইজন্য ইহার সর্বদা অনুষ্ঠান করিতে থাকিবে ॥ ৫৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
বস॑বস্ত্বা কৃণ্বন্তু গায়॒ত্রেণ॒ ছন্দ॑সাऽঙ্গির॒স্বদ্ ধ্রু॒বাসি॑ পৃথি॒ব্য᳖সি ধা॒রয়া॒ ময়ি॑ প্র॒জাᳬं রা॒য়স্পোষং॑ গৌপ॒ত্যꣳ সু॒বীর্য়॑ꣳ সজা॒তান্ য়জ॑মানায় রু॒দ্রাস্ত্বা॑ কৃণ্বন্তু॒ ত্রৈষ্টু॑ভেন॒ ছন্দ॑সাऽঙ্গির॒স্বদ্ ধ্রু॒বাস্য॒ন্তরি॑ক্ষমসি ধা॒রয়া॒ ময়ি॑ প্র॒জাᳬं রা॒য়স্পোষং॑ গৌপ॒ত্যꣳ সু॒বীর্য়॑ꣳ সজা॒তান্ য়জ॑মানায়াऽऽদি॒ত্যাস্ত্বা॑ কৃণ্বন্তু॒ জাগ॑তেন॒ ছন্দ॑সাऽঙ্গির॒স্বদ্ ধ্রু॒বাসি॒ দ্যৌর॑সি ধা॒রয়া॒ ময়ি॑ প্র॒জাᳬं রা॒য়স্পোষং॑ গৌপ॒ত্যꣳ সু॒বীর্য়॑ꣳ সজা॒তান্ য়জ॑মানায় বিশ্বে॑ ত্বা দে॒বাঃ বৈশ্বা॑ন॒রাঃ কৃ॑ণ্ব॒ন্ত্বানু॑ষ্টুভেন॒ ছন্দ॑সাऽঙ্গির॒স্বদ্ ধ্রু॒বাসি॒ দিশো॑ऽসি ধা॒রয়া॒ ময়ি॑ প্র॒জাᳬं রা॒য়স্পোষং॑ গৌপ॒ত্যꣳ সু॒বীর্য়॑ꣳ সজা॒তান্ য়জ॑মানায় ॥ ৫৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
বসবস্ত্বেত্যস্য সিন্ধুদ্বীপ ঋষিঃ । বসুরুদ্রাদিত্যবিশ্বেদেবা দেবতাঃ । বসবস্ত্বেতি পূর্বাদ্ধস্য স্বরাট্সংকৃতিশ্ছন্দঃ । আদিত্যস্ত্বেত্যুত্তরার্ধস্য ভুরিগভিকৃতিশ্ছন্দঃ ।
পূর্বার্ধস্য গান্ধারঃ স্বরঃ । উত্তরার্ধস্য ঋষভঃ স্বরঃ ॥
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