यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 9
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - भुरिगतिशक्वरी
स्वरः - पञ्चमः
2
दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑दे गाय॒त्रेण॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वत् पृ॑थि॒व्याः स॒धस्था॑द॒ग्निं पु॑री॒ष्यमङ्गिर॒स्वदाभ॑र॒ त्रैष्टु॑भेन॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वत्॥९॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व᳕ इति॑ प्रऽस॒वे᳕। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒। गा॒य॒त्रेण॑। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्था॒दिति॑ स॒धऽस्था॑त्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। आ। भ॒र॒। त्रैष्टु॑भेन। त्रैस्तु॑भे॒नेति॒ त्रैऽस्तु॑भेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् ॥९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । आददे गायत्रेण च्छन्दसाङ्गिरस्वत्पृथिव्याः सधस्थादग्निं पुरीष्यमङ्गिरस्वदाभर त्रैष्टुभेन छन्दसाङ्गिरस्वत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। आ। ददे। गायत्रेण। छन्दसा। अङ्गिरस्वत्। पृथिव्याः। सधस्थादिति सधऽस्थात्। अग्निम्। पुरीष्यम्। अङ्गिरस्वत्। आ। भर। त्रैष्टुभेन। त्रैस्तुभेनेति त्रैऽस्तुभेन। छन्दसा। अङ्गिरस्वत्॥९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्या भूमितत्त्वादिभ्यो विद्युतं स्वीकुर्य्युरित्याह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! अहं यं त्वा देवस्य सवितुः प्रसवेऽअश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यामङ्गिरस्वदाददे, स त्वं गायत्रेण छन्दसा पृथिव्याः सधस्थादङ्गिरस्वत् त्रैष्टुभेन छन्दसाऽङ्गिरस्वत् पुरीष्यमग्निमाभर॥९॥
पदार्थः
(देवस्य) सूर्यादिजगतः प्रदीपकस्य (त्वा) त्वाम् (सवितुः) सर्वेषामैश्वर्य्यव्यवस्थां प्रति प्रेरकस्य (प्रसवे) निष्पन्नैश्वर्ये (अश्विनोः) प्राणोदानयोः (बाहुभ्याम्) बलाकर्षणाभ्याम् (पूष्णः) पुष्टिकर्त्र्या (हस्ताभ्याम्) धारणाकर्षणाभ्याम् (आ) (ददे) स्वीकरोमि (गायत्रेण) गायत्रीनिर्मितेनार्थेन (छन्दसा) (अङ्गिरस्वत्) अङ्गिरोभिरङ्गारैस्तुल्यम् (पृथिव्याः) (सधस्थात्) सहस्थानात् तलात् (अग्निम्) विद्युदादिस्वरूपम् (पुरीष्यम्) पुरीष उदके साधुम्। अत्र पॄ᳖धातोरौणादिक ईषन् किच्च। पुरीषमित्युदकनामसु पठितम्॥ (निघ॰१।१२) (अङ्गिरस्वत्) अङ्गिरोभिः प्राणैस्तुल्यम् (आ) (भर) धर (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुभा निर्मितेनार्थेन (छन्दसा) स्वच्छन्देन (अङ्गिरस्वत्) अङ्गिरोभिरङ्गैस्तुल्यम्। [अयं मन्त्रः शत॰६.३.१.३८ व्याख्यातः]॥९॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैरीश्वरसृष्टिगुणविदं विद्वांसं संसेव्य पृथिव्यादिस्थोऽग्निः स्वीकार्य्यः॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य भूमि आदि तत्त्वों से बिजुली का ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वन् पुरुष! मैं जिस (त्वा) आप को (देवस्य) सूर्य्य आदि सब जगत् के प्रकाश करने और (सवितुः) सबको ऐश्वर्यव्यवस्था के प्रति प्रेरित करने वाले के (प्रसवे) निष्पन्न ऐश्वर्य में (अश्विनोः) प्राण और उदान के (बाहुभ्याम्) बल और आकर्षण से तथा (पूष्णः) पुष्टिकारक बिजुली के (हस्ताभ्याम्) धारण और आकर्षण (अङ्गिरस्वत्) अंगारों के समान (आददे) ग्रहण करता हूँ सो आप (गायत्रेण) गायत्री मन्त्र से निकले (छन्दसा) आनन्ददायक अर्थ के साथ (पृथिव्याः) पृथिवी के (सधस्थात्) एक स्थान से (अङ्गिरस्वत्) प्राणों के तुल्य और (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् मन्त्र से निकले (छन्दसा) स्वतन्त्र अर्थ के साथ (अङ्गिरस्वत्) चिह्नों के सदृश (पुरीष्यम्) जल को उत्पन्न करने हारे (अग्निम्) बिजुली आदि तीन प्रकार के अग्नि को (आभर) धारण कीजिये॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर की सृष्टि के गुणों को जानने हारे विद्वान् की अच्छे प्रकार सेवा करके पृथिवी आदि पदार्थों में रहने वाले अग्नि को स्वीकार करें॥९॥
विषय
‘गायत्र-त्रैष्टुभ’ छन्द
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र के अनुसार अपना जीवन बनाने के लिए मैं ( त्वा ) = तुझे अर्थात् प्रत्येक पदार्थ को ( सवितुः देवस्य ) = सर्वोत्पादक दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभु की ( प्रसवे ) = अनुज्ञा में ( आददे ) = ग्रहण करता हूँ। न अतिमात्रा न अ-मात्रा में, अपितु यथोचित मात्रा में।
२. ( अश्विनोः बाहुभ्याम् ) = प्राणापान के प्रयत्न से मैं तेरा ग्रहण करता हूँ, अर्थात् बिना श्रम के मैं किसी वस्तु को लेना पाप समझता हूँ।
३. ( पूष्णो हस्ताभ्याम् ) = पूषा के हाथों से मैं तेरा ग्रहण करता हूँ, अर्थात् पोषण के दृष्टिकोण से ही मैं प्रत्येक वस्तु का स्वीकार करता हूँ। वस्तुओं के ग्रहण में ‘उपयोगिता’ न कि ‘स्वाद व सौन्दर्य’ मेरा मापक है, इसीलिए तो भोगों का शिकार नहीं होता।
४. ( गायत्रेण छन्दसा ) = [ गयाः प्राणाः, त्र रक्षण ] प्राण-रक्षण की इच्छा से ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस् की भाँति मैं इस संसार में चलता हूँ। जो व्यक्ति इन भौतिक वस्तुओं की कामना ‘प्राणरक्षण की उपयोगिता’ के विचार से करता है वह ( ‘अङ्गिरस्’ ) = रसमय अङ्गोंवाला, अर्थात् सदा लोच और लचक से युक्त अङ्गोंवाला बना रहता है—उसका शरीर सूखे काठ की तरह नहीं हो जाता। प्रभु कहते हैं कि ( पृथिव्याः ) = इस पृथिवी के ( सधस्थात् ) = [ सहस्थानात् ] मिलकर बैठने के स्थान से ( पुरीष्यम् ) = [ यः सुखं पृणाति स पुरीषः तत्र साधुम्—द० ] जीवन को सुखी बनानेवाले ( अग्निम् ) = अग्नि को ( आभर ) = तू हव्यद्रव्यों से आभृत कर ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरा की भाँति तू नियमितरूप से अग्निहोत्र करनेवाला बन। अग्निहोत्र करनेवाला व्यक्ति नीरोग बनकर बडे़ सुखी जीवनवाला होता है। उसके शरीर के सब अङ्ग नीरोगता के कारण रसमय बने रहते हैं।
५. ( त्रैष्टुभेन छन्दसा ) = अब तू ‘काम, क्रोध व लोभ’ तीनों को रोकने की इच्छा से ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस की भाँति बनने का प्रयत्न कर।
६. अङ्गिरा बनने के लिए ‘गायत्र’ व त्रैष्टुभ’ छन्द साधन रूप हैं। प्राणशक्ति की रक्षा की प्रबल कामना हममें हो तथा काम-क्रोध-लोभ को रोकने के लिए हमें प्रयत्नशाील होना चाहिए।
भावार्थ
भावार्थ — मैं संसार में प्रभु की अनुज्ञा के अनुसार, यत्नपूर्वक, पोषण के दृष्टिकोण से वस्तुओं का ग्रहण करूँ। ‘प्राणशक्ति की रक्षा व काम-क्रोध-लोभ के वेग को रोकना’ मेरे जीवन का ध्येय हो। मैं ‘अङ्गिरस’ बनूँ। अङ्गिरस् की भाँति अग्निहोत्र करनेवाला बनूँ।
विषय
वज्र का वर्णन नर रत्न की प्राप्ति । पक्षान्तर में वाणी का वर्णन ।
भावार्थ
भा०--- हे वज्र ! हे वज्र धारक, राष्ट्र के बलधारिन् क्षत्रपते ! ( त्वा ) तुझको (सवितुः ) सूर्य के समान देव, राजा या परम विद्वान् के ( प्रसवे ) शासन में रह कर ( अश्विनोः बाहुभ्याम् ) प्राण और उदान स्त्री पुरुषों, राजा प्रजा के बाहुओं बाधक बलों से और( पूष्णः ) पोषणकारी राजा के ( हस्ताभ्याम् ) हाथों से ( द ) ग्रहण करता हूं । ( गायत्रेण छन्दसा ) गायत्र च्छन्द से,( अंगिरस्वत् ) अंगारों के समान जाज्वल्यमान (पुरीष्यम् अग्निम् ) पुरिष्य अग्नि को ( पृथिव्याः ) पृथिवी के आश्रय पर ( आभर ) प्राप्त कर और इसी प्रकार ( त्रैष्टुभेन छन्दसा ) त्रैष्टुभ छन्द से अंगारे के तुल्य अग्नि को स्वयं ( अंगिरस्वत्) अंगारों के समान विद्याप्रकाश से प्रकाशमान होकर ( आभर) प्राप्त करा ॥ शत० ६ । २ । ३ । ३८ । ३९ ॥ ( १ ) ( गायत्रेण छन्दसा अंगिरस्यत् पुरीष्यमग्निम् आभर ) - गायत्रौ- ऽयं भूलोकः । कौ० ८ । ९ ॥ इमे वै लोकाः गायत्रम् | तां० ७ । ३ । ९ ॥ यद् गायन्नत्रायत तद् गायत्रस्य गायत्रत्वम् । जै० उ० ३ । ३८ ॥ ४ ॥ अंगिरो हि अग्निः । श० १ । ४ । १ । ( पुरीष्यम्) पुरीष्य इति वै तमाहुर्य श्रियं गच्छति । श० २ । १ । १ । ७ ॥ पुरीषं वा इयं पृथिवी । श० १२ । ५ । २।५॥ यत् पुरीषं स इन्द्रः । ५ । १० । ४ । १ । ७ ॥ देवा: पुरीषम् । श० ८। ७ । ४ । १७ । प्रजाः पुरीषम् श० ९। ७ । १६ । पशवः पुरीषम् । अर्थात् ( गायत्रेण छन्दसा ) पृथिवीलोक अर्थात् उसके निवासियों के अपने अभिलाषा के द्वारा अथवा विद्वान् पुरुषों की अनुमति से ( पुरीष्यम् ) इन्द्रपद के योग्य, ऐश्वर्यवान्, प्रजा, पशु और विद्वानों के हितकारी ( अङ्गिरस्वत ) अग्नि और अंगारों के समान तेजस्वी पुरुष को ( आहर ) राजारूप से प्राप्त करा । कहां से प्राप्त करें ? ( पृथिव्या: सधस्थात् ) पृथिवी पर एकत्र निवास करनेवाले जन समुदाय में से ही । वह पुरुष किस प्रकार अग्नि के समान तेजस्वी रहे ? ( त्रष्टुभेन छन्दसा अंगिरस्वत् ) वज्रः त्रिष्टुप् । कौ० ३ । २१ । शत० ६ । ३ । २ । ३९ ॥ त्रिष्टुप् इन्द्रस्य वज्रः । ऐ० २ । २ ॥ वलं वै वीर्यं त्रिष्टुप् । कौ० ७ । २ ॥ त्रैष्टुभो वै राजन्यः । क्षत्रं त्रिष्टुप् । कौ० ३ ॥ ५ ॥ या राका सा त्रिष्टुप् । ऐ० ३ | ४७ | ४८ ॥ हे राजा वज्र, आयुधबल और राजशक्ति या पूर्णिमा के समान सर्वप्रिय, सर्वाङ्ग पूर्ण शासक शक्ति के (छन्दसा ) स्वरूप से ( अंगिरस्वत् ) अग्नि सूर्य और विद्युत् के समान तेजस्वी हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिः साध्वा वा ऋषयः। भुरिगति शक्करी । पञ्चमः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी ईश्वरनिर्मित सृष्टीचे गुण जाणणाऱ्या विद्वानांची सेवा करावी व पृथ्वी इत्यादी पदार्थातील अग्नीचा उपयोग जाणावा.
विषय
मनुष्यांनी भूमी आदी तत्त्वांपासून विद्युतशक्ती ग्रहण करावी, पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वान पुरुष, मी याज्ञिकजन) (त्वा) तुम्हाला (देवस्य) सूर्य आदीद्वारे सर्व जगाला प्रकाशित करणार्या (सवितु:) सर्वांना ऐश्वर्यप्राप्तीसाठी प्रेरणा देणार्या परमेश्वराने (प्रसवे) उत्पन्न केलेल्या या ऐश्वर्यशाली जगामध्ये (अश्विनो) प्राणाच्या आणि उदानाच्या (बाहुभ्याम्) बल आणि आकर्षण शक्तीद्वारे तसेच (पूष्णो) पुष्टिकारक विद्युतेच्या (हस्ताभ्याम्) धारण व आकर्षणशक्तीद्वारे (अड्णिरस्वत्) निखार्याप्रमाणे (आददे) ग्रहण करतो (तुम्हा विद्वानांकडून/वैज्ञानिकांकडून प्राण, उदान आणि विद्युत, यांच्या आकर्षण, धारण आदी गुणांचे ज्ञान घेतो) तुम्ही (गायत्रेण) गायत्री मंत्राने निष्पन्न होणार्या (छन्दसा) आनन्ददायक अर्थाचे (पृथिब्या:) पृथ्वीच्या (सधस्थात्) एका स्थानावरून दुसर्या स्थानात जाणार्या (गतिशील) (अद्गिरस्वत्) प्राणाप्रमाणे प्रिय (अशा अग्नीला) आणि (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् मंत्राने निष्पन्न होणार्या (छन्दसा) स्वतंत्र अर्थातील (अड्गिरस्वत्) चिन्हांप्रमाणे (पुरीष्यम्) जल उत्पन्न करणार्या (अग्निम्) विद्युत आदी तीन प्रकारच्या अग्नीला (आभर) धारण करा. (गायत्री आणि त्रिष्टुप् छंदातील मंत्रांमध्ये तीन प्रकारच्या अग्नीच्या व जलविषयी जे सांगितले आहे, त्याचे अधिक ज्ञान मिळवा) ॥9॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. मनुष्यांना पहिजे की त्यांनी ईश्वराच्या सृष्टीतील गुण, (लाभ, उपयोग) आदींचे ज्ञान असणार्या (वा शोध लावणार्या) विद्वानांची (वैज्ञानिकांची चांगल्याप्रकारे सेवा व संगती करून पृथ्वी आदी पदार्थांत विद्यमान अग्नीला जाणावे (आणि त्यापासून लाभ घ्यावेत) ॥9॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O Vedic speech, in this world created by the Omniscient Lord, I with the forces of sun and moon and the pran and apan forces of the air, with the teachings of verses in Gayatri metre, accept thee dear as breath. O Vedic speech, bestow on me, from this alter knowledge, the benefactor of humanity. Grant me the strength of knowledge dear as breath, through verses in Trishtup metre.
Meaning
Man of knowledge and vision, I accept and welcome you as a man initiated by fire in this world of Savita’s creation along with the force and attraction of the energy of prana and the attraction and retention of the life-giving air. Take up the study of agni (heat and electricity) immanent in the earth and revealed in the gayatri verses, and discover and develop for us its energy value like that of prana, the breath of life. Discover the energy- potential of the waters revealed in the trishtubh verses, and develop it like the blazing ambers of fire.
Translation
At the impulsion of the impeller Lord, with arms of the healers and with hands of the nounsher, I take you up, O brilliant as fire, with the gayatri metre. Fetch the brilliant cow-dung fire, from the pit of the earth with the brilliant tristubh metre. (1)
Notes
According to the ritualists this mantra is addressed to abhri i. e. a spade, used for digging earth and clay for the con- struction of the altar. In the next mantra abhri is directly mentioned. Purisyam, पुरीषसम्बंधिनम्, made up with dung of cattle; cowdung fire. Also, पशवो वै पुरीष, the cattle are called purisa; а thing beneficial for cattle is purisya. Abhara, आहार; ह is changed to भ Iहृग्रहोर्भश्छंदसि (पाणिनि, VII 2. 32. वा 1). Angirasvat, अंगिरोभिस्तुल्यम् , like arigiras, i. e. burning char- coal; brilliant, glowing. Or, in the same manner as Айрігаѕа rsis had taken you out.
बंगाली (1)
विषय
মনুষ্যা ভূমিতত্ত্বাদিভ্যো বিদ্যুতং স্বীকুর্য়্যুরিত্যাহ ॥
মনুষ্য ভূমি ইত্যাদি তত্ত্বের সাহায্যে বিদ্যুৎ গ্রহণ করিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ পুরুষ ! আমি যে (ত্বা) আপনাকে (দেবস্য) সূর্য্যাদি সব জগতের প্রকাশক এবং (সবিতুঃ) সকলকে ঐশ্বর্য্য ব্যবস্থার প্রতি প্রেরক (প্রসবে) নিষ্পন্ন ঐশ্বর্য্যে (অশ্বিনোঃ) প্রাণ ও উদানের (বাহুভ্যাম্) বল ও আকর্ষণ দ্বারা তথা (পূষতঃ) পুষ্টিকারক বিদ্যুতের (হস্ত্যাভ্যাম্) ধারণ ও আকর্ষণ (অঙ্গিরস্বৎ) অঙ্গারের ন্যয় (আদদে) গ্রহণ করি । সুতরাং আপনি (গায়ত্রেণ) গায়ত্রী মন্ত্র হইতে বহির্গত (ছন্দসা) আনন্দদায়ক অর্থ সহ (পৃথিব্যাদি) পৃথিবীর (সধস্থাৎ) এক স্থান হইতে (অঙ্গিরস্বৎ) প্রাণতুল্য এবং (ত্রৈষ্টুভেন) ত্রিষ্টুপ্ মন্ত্র হইতে বহির্গত (ছন্দসা) স্বতন্ত্র অর্থ সহ (অঙ্গিরস্বৎ) চিহ্ন সদৃশ (পুরীষ্যম্) জলের উৎপাদক (অগ্নিম্) বিদ্যুৎ ইত্যাদি তিন প্রকার অগ্নিকে (আভর) ধারণ করুন ॥ ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদের উচিত যে, ঈশ্বরের সৃষ্টির গুণের জ্ঞাতা বিদ্বানের ভাল মত সেবা করিয়া পৃথিবী ইত্যাদিতে স্থিত অগ্নিকে স্বীকার করুক ॥ ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
দে॒বস্য॑ ত্বা সবি॒তুঃ প্র॑স॒বে᳕ऽশ্বিনো॑র্বা॒হুভ্যাং॑ পূ॒ষ্ণো হস্তা॑ভ্যাম্ । আ দ॑দে গায়॒ত্রেণ॒ ছন্দ॑সাঙ্গির॒স্বৎ পৃ॑থি॒ব্যাঃ স॒ধস্থা॑দ॒গ্নিং পু॑রী॒ষ্য᳖মঙ্গির॒স্বদাভ॑র॒ ত্রৈষ্টু॑ভেন॒ ছন্দ॑সাঙ্গির॒স্বৎ ॥ ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
দেবস্যেত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । সবিতা দেবতা । ভুরিগতিশক্বরী ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal