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यजुर्वेद अध्याय - 11

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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 70
    ऋषिः - सोमाहुतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः
    2

    द्र्व॑न्नः स॒र्पिरा॑सुतिः प्र॒त्नो होता॒ वरे॑ण्यः। सह॑सस्पु॒त्रोऽअद्भु॑तः॥७०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्र्व॑न्नः इति॒ द्रुऽअ॑न्नः। स॒र्पिरा॑सुति॒रिति॑ स॒र्पिःऽआ॑सुतिः। प्र॒त्नः। होता॑। वरे॑ण्यः। सह॑सः। पु॒त्रः। अद्भु॑तः ॥७० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    र्द्वन्नः सर्पिरासुतिः प्रत्नो होता वरेण्यः । सहसस्पुत्रोऽअद्भुतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    द्र्वन्नः इति द्रुऽअन्नः। सर्पिरासुतिरिति सर्पिःऽआसुतिः। प्रत्नः। होता। वरेण्यः। सहसः। पुत्रः। अद्भुतः॥७०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 70
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सा स्वभर्त्तारं प्रति कथं कथं संवदेतेत्याह॥

    अन्वयः

    हे पते! द्र्वन्नः सर्पिरासुतिः प्रत्नो होता वरेण्यः सहसस्पुत्रोऽद्भुतः त्वं स्वस्तयेऽस्मिन् यज्ञ उदिहि उदितो भव॥७०॥

    पदार्थः

    (द्र्वन्नः) द्रवो वृक्षादय ओषधयोऽन्नानि वा यस्य सः (सर्पिरासुतिः) सर्पिषो घृतादेरासुतिः सवनं यस्य सः (प्रत्नः) पुरातनः (होता) दाता ग्रहीता (वरेण्यः) स्वीकर्त्तुमर्हः (सहसः) बलवतः (पुत्रः) अपत्यम् (अद्भुतः) आश्चर्य्यगुणकर्मस्वभावः। [अयं मन्त्रः शत॰६.६.२.१४ व्याख्यातः]॥७०॥

    भावार्थः

    अत्र स्वस्तये अस्मिन् यज्ञ उदिहीति पदचतुष्टयं पूर्वतोऽनुवर्त्तते। कन्यया यस्य पिता कृतब्रह्मचर्यो बलवान् भवेद्, यः पुरुषार्थेन बहून्यन्नादीन्यर्जयितुं शक्नुयात्, पवित्रस्वभावः पुरुषो भवेत्, तेन साकं विवाहं कृत्वा सततं सुखं भोक्तव्यम्॥७०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह स्त्री अपने पति से कैसे-कैसे कहे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे पते! (द्र्वन्नः) वृक्षादि ओषधि ही जिन के अन्न हैं ऐसे (सर्पिरासुतिः) घृत आदि पदार्थों को शोधने वाले (प्रत्नः) सनातन (होता) देने-लेने हारे (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य (सहसः) बलवान् के (पुत्रः) पुत्र (अद्भुतः) आश्चर्य्य गुण, कर्म और स्वभाव से युक्त आप सुख होने के लिये इस गृहाश्रम के बीच शोभायमान हूजिये॥७०॥

    भावार्थ

    यहां पूर्व मन्त्र से (स्वस्तये) (अस्मिन्) (यज्ञे) (उदिहि) इन चार पदों की अनुवृत्ति आती है। कन्या को उचित है कि जिस का पिता ब्रह्मचर्य्य से बलवान् हो और जो पुरुषार्थ से बहुत अन्नादि पदार्थों को इकट्ठा कर सके, उस शुद्ध स्वभाव से युक्त पुरुष के साथ विवाह करके निरन्तर सुख भोगे॥७०॥

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    विषय

    पति

    पदार्थ

    १. पत्नी पति से कहती है—तू ( द्रु+अन्नः ) = वनस्पति भोजनवाला है। तू वानस्पतिक भोजन ही करता है, मांस-भोजन नहीं। २. ( सर्पि: आसुतिः ) = घृत ही तेरा ( आसव ) = मद्य हो। घृत ही तुझे मद्य के समान आनन्द देनेवाला हो। ३. तू ( प्रत्न होता ) = पुराना होता हो, अर्थात् वंश-परम्परा से दानपूर्वक अदन करनेवाला हो। तुम्हारे कुल की रीति ही दानपूर्वक अदन करने की हो। पति जहाँ मद्य-मांस का सेवन करनेवाला न हो वहाँ सदा दानपूर्वक खानेवाला हो, अर्थात् यज्ञशेष का ही खानेवाला हो। ४. ( वरेण्यः ) = तू वरणीय हो। सभा-समाजादि में तुझे लोग प्रधानरूप से चुनें, अथवा तू उत्तम वरण करनेवाला हो, अर्थात् तू कभी ग़लत चुनाव न करे। परमात्मा व प्रकृति में से तू प्रकृति को न चुन [ धन व ज्ञान में धन तेरा चुनाव न हो जाए। प्रेय और श्रेय में कहीं तू प्रेय का वरण करनेवाला ‘मन्द’ न बन जाए ]। ५. ( सहसस्पुत्रः ) = तू बल का पुत्र हो, अर्थात् खूब बल-सम्पन्न हो। ६. ( अद्भुतः ) = तेरी उन्नति अभूतपूर्व हो। तू आश्चर्यरूप अनन्यसदृश हो।

    भावार्थ

    भावार्थ — आदर्श पति सौम्य भोजनोंवाला हो, मद्य-मांस से ऊपर उठा हुआ हो। दान की वृत्तिवाला हो। ठीक चुनाव करनेवाला हो। शक्ति का पुञ्ज बने और अभूतपूर्व उन्नति करनेवाला हो।

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    विषय

    वीर्यवान् पुरुष और पक्षान्तर में तेजस्वी का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( द्ववन्नः ) अग्नि जिस प्रकार काष्ठों को जलाता है वे ही उसके अन्न हैं । इसी प्रकार मनुष्य भी ( द्रवन्नः ) 'द्रु' ओषधि वनस्पतियों का आहार करने हारा है । ( सर्पिरासुतिः ) अग्नि जिस प्रकार घी से बढ़ता है इसी प्रकार तू भी घृत के सेवन से वृद्धि को प्राप्त होने वाला अथवा सर्पि, वीर्य को आसेचन करने में समर्थ है। वह (प्रत्नः ) सदा से ( वरेण्यः ) सदा स्वीकार करने योग्य, ( होता ) वीर्य आदि का आधानकर्त्ता, एवं पत्नी का ग्रहीता है। वह ( सहसः पुत्रः ) बल से उत्पन्न एवं बलवान् पुरुष से उत्पन्न पुत्र ( अद्भुतः ) आश्चर्यजनक गुण, कर्म, स्वभाव वाला होता है ॥ शत० ६ । ६ । २ । १४ ।। राजा के पक्ष में -- पृथिवी रूप उखा में राजा रूप अग्नि (द्रवन्नः ) काष्ठादि के जलाने वाले अग्नि के समान तेजस्वी, ( सर्पिरासुति: ) तेज से उत्पन्न ( प्रत्नः वरेण्यः होता ) सदा से वरण करने योग्य, सबका दाता, प्रतिग्रहीता (सहसः ) अपने बल पराक्रम से युक्त ( पुत्रः ) पुरुषों का दुःखों से त्राण करने में समर्थ ( अद्भुतः ) आश्चर्यकारी प्रतापवान् है । इसी प्रकार स्त्री रूप उखा में ओषधि वनस्पतियों का परिणाम भूत वीर्य, तेजोमय स्वीकार करने योग्य गर्भ में आहुतिप्रद है। वह बल से उत्पन्न आश्चर्यकारी है, जो पुत्र रूप से उत्पन्न होता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोमाहुतिर्भार्गव ऋषिः । अग्निर्देवता । विराड् गायत्री । षड्जः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    येथे पूर्वीच्या मंत्रातील (स्वस्तये) (अस्मिन) (यज्ञे) (उदिहि) या चार पदांची अनुवृत्ती झालेली आहे. ज्याचा पिता ब्रह्मचर्याने बलयुक्त असेल व जो आपल्या पुरुषार्थाने पुष्कळ अन्न वगैरे पदार्थ एकत्र करू शकेल. त्या चांगल्या स्वभावाच्या पुरुषाबरोबर विवाह करून सतत सुख भोगावे.

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    विषय

    यानंतर त्या पत्नीने आपल्या पतीला काय व कसे सांगावे, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (पत्नी म्हणते) हे पति, (द्वन्हा:) वृक्ष आदी औषधीमात्र ज्यांचे अन्न आहे, (स्वास्थ्यकारक वृक्षांची फळें, कंदमुळे जे सेवन करतात) असे (सार्थिरासुति:) घृत आदी पदार्थांना शुद्ध करणारा (धृत तयार करताना त्यातील दोष दूर करणारा) (प्रत्न:) पुरातन जो (होता) आदान-प्रदान करण्याच्या स्वभाव असलेला आणि (वरेण्य:) वरणीय आहे अशा (सहस:) बलवान मनुष्याचा पुत्र होण्यासाठी (अशी कीर्ती मिळविण्यासाठी) (अद्भुत:) आश्चर्यकारक गुण, कर्म आणि स्वभाव असणारे आपण अधिक (सुख), (कीर्ती मिळविण्यासाठी) या गृहाश्रमात शोभायमान व्हा (अनेकाकरिता आदर्श गृहाश्रमी व्हा) ॥70॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या ठिकाणी पूर्वीच्या क्र. 69 या मंत्रातील ‘स्वस्तये’ ‘अस्मिन्’ ‘यज्ञे’ आणि ‘उद्दिहि’ या चार शब्दांची अनुवृत्ती आलेली आहे (या मंत्रातील व्याख्येसाठी हे चार शब्द आवश्यक म्हणून घेतले आहेत) मुलीसाठी उचित आहे की तिने अशा शुद्ध स्वभाव असलेल्या पुरुषाशी विवाह करावा की ज्याचा पिता ब्रह्मचर्य, धारणामुळे बलवान आहे (वा होता) तसेच ज्याने स्वपुरुषार्थाने पुष्कळ अन्नादी पदार्थांना संग्रह केला आहे. कारण की अशा बलवान व पुरुषार्थी पित्याच्या पुत्राशी विवाह केल्यानेच तिला जीवनात सुखी प्राप्ती होईल. ॥ 70॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O husband, fed on fruits of trees, and clarified butter, ever worthy of respect, giver and taker, the son of the strong, wonderful in qualities, deeds and temperament, be famous in this domestic life for enjoying happiness.

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    Meaning

    Noble young man, living on herbs and fruits for food, and the fragrance of distilled ghee from yajna for ‘drink’ (breathing), a yajnic of long standing, choice of the good, son of a bold and courageous man, wonderful of nature, character and performance, rise in this home yajna of the family for growth in peace and joy.

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    Translation

    How beautiful is this sacred fire, of which wood (fuel) is the food and butter the drink and which is the ancient one, the giver of gifts and is venerable. (1)

    Notes

    Drvannah, one whose food is wood, i. e. fire. Pratno hota, ancient invoker. Sahasasputrah, son of strength.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ সা স্বভর্ত্তারং প্রতি কথং কথং সংবদেতেত্যাহ ॥
    পুনঃ সেই স্ত্রী স্বীয় পতির নিকট কী কী বলিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে পতে ! (দ্র্বন্নঃ) বৃক্ষাদি ওষধিই যাহার অন্ন এইরকম (সর্পিরাসুতিঃ) ঘৃতাদি পদার্থের শোধক (প্রত্নঃ) সনাতন (হোতা) দাতা গ্রহীতা (বরেণ্যঃ) স্বীকার করিবার যোগ্য (সহসঃ) বলবানের (পুত্রঃ) পুত্র (অদ্ভুতঃ) আশ্চর্য্য গুণ-কর্ম ও স্বভাব যুক্ত আপনি সুখী হওয়ার জন্য এই গৃহাশ্রমের মধ্যে শোভায়মান হউন ॥ ৭০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এখানে পূর্ব মন্ত্র হইতে (স্বস্তয়ে) (অস্মিন্) (য়জ্ঞে) (উদিহি) এই চারি পদের অনুবৃত্তি আইসে । কন্যার উচিত যে, যাহার পিতা ব্রহ্মচর্য্য বলে বলীয়ান এবং যে পুরুষকার দ্বারা বহু অন্নাদি পদার্থ একত্রিত করিতে পারে সেই শুদ্ধ স্বভাবযুক্ত পুরুষ সহ বিবাহ করিয়া সর্বদা সুখ ভোগ করে ॥ ৭০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দ্র্ব॑ন্নঃ স॒র্পিরা॑সুতিঃ প্র॒ত্নো হোতা॒ বরে॑ণ্যঃ ।
    সহ॑সস্পু॒ত্রোऽঅদ্ভু॑তঃ ॥ ৭০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দ্র্বন্ন ইত্যস্য সোমাহুতির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাডগায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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