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यजुर्वेद अध्याय - 11

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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 45
    ऋषिः - त्रित ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् पथ्या बृहती छन्द स्वरः - मध्यमः
    3

    शि॒वो भ॑व प्र॒जाभ्यो॒ मानु॑षीभ्य॒स्त्वम॑ङ्गिरः। मा द्यावा॑पृथि॒वीऽअ॒भि शो॑ची॒र्मान्तरि॑क्षं॒ मा वन॒स्पती॑न्॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शि॒वः। भ॒व॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒जाऽभ्यः॑। मानु॑षीभ्यः। त्वम्। अ॒ङ्गि॒रः॒। मा। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। अ॒भि। शो॒चीः॒। मा। अ॒न्तरि॑क्षम्। मा। वन॒स्पती॑न् ॥४५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिवो भव प्रजाभ्यो मानुषीभ्यस्त्वमङ्गिरः । मा द्यावापृथिवी अभि शोचीर्मान्तरिक्षम्मा वनस्पतीन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शिवः। भव। प्रजाभ्य इति प्रजाऽभ्यः। मानुषीभ्यः। त्वम्। अङ्गिरः। मा। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। अभि। शोचीः। मा। अन्तरिक्षम्। मा। वनस्पतीन्॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 45
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तैः प्रजासु कथं वर्त्तितव्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे अङ्गिरः! त्वं मानुषीभ्यः प्रजाभ्यः शिवो भव, द्यावापृथिवी माभिशोचीरन्तरिक्षं माभिशोचीर्वनस्पतीन् माभिशोचीः॥४५॥

    पदार्थः

    (शिवः) कल्याणकरो मङ्गलमयः (भव) (प्रजाभ्यः) प्रसिद्धाभ्यः (मानुषीभ्यः) मनुष्यादिभ्यः (त्वम्) (अङ्गिरः) प्राण इव प्रिय (मा) निषेधे (द्यावापृथिवी) विद्युद्भूमी (अभि) आभ्यन्तरे (शोचीः) शोकं कुर्य्याः (मा) (अन्तरिक्षम्) अवकाशम् (मा) (वनस्पतीन्) वटादीन्। [अयं मन्त्रः शत॰६.४.४.४ व्याख्यातः]॥४५॥

    भावार्थः

    सन्तानैः प्रजाः प्रति मङ्गलाचरणेन भूत्वा पृथिव्यादीनां मध्ये निश्शोकैः स्थातव्यम्। किन्त्वेषां रक्षां विधायोपकारायोत्साहतया प्रयतितव्यम्॥४५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उन को प्रजा में कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अङ्गिरः) प्राणों के समान प्रिय सुसन्तान! (त्वम्) तू (मानुषीभ्यः) मनुष्य आदि (प्रजाभ्यः) प्रसिद्ध प्रजाओं के लिये (शिवः) कल्याणकारी मङ्गलमय (भव) हो (द्यावापृथिवी) बिजुली और भूमि के विषय में (मा) मत (अभिशोचीः) अति शोच कर (अन्तरिक्षम्) अवकाश के विषय में (मा) मत शोच कर और (वनस्पतीन्) वट आदि वनस्पतियों का (मा) शोच मत कर॥४५॥

    भावार्थ

    सुसन्तानों को चाहिये कि प्रजा के प्रति मङ्गलाचारी हो के पृथिवी आदि पदार्थों के विषय में शोकरहित होवें, किन्तु इन सब पदार्थों की रक्षा विधान कर उपकार के लिये उत्साह के साथ प्रयत्न करें॥४५॥

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    विषय

    कल्याण-अहिंसा

    पदार्थ

    १. हे ( अङ्गिरः ) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में रसवाले! ( त्वम् ) = तू ( मानुषीभ्यः प्रजाभ्यः ) = मानव प्रजाओं के लिए ( शिवः भव ) = कल्याण करनेवाला हो। तेरा सारा व्यवहार ऐसा हो जिससे औरों का कल्याण-ही-कल्याण हो, अकल्याण नहीं। तू औरों का घात-पात करनेवाला न होकर औरों की रक्षा करनेवाला बन। 

    २. तू ( द्यावापृथिवी ) = द्युलोक व पृथिवीलोक को मा ( अभिशोचीः ) = मत सन्तप्त कर मा ( अन्तरिक्षम् ) = अन्तरिक्ष को सन्तप्त मत कर, अर्थात् तीनों लोकों में रहनेवाले किसी भी प्राणी को तू दुःखी मत कर। तुझसे सभी का कल्याण ही हो। 

    ३. प्राणियों की बात तो दूर तू ( मा वनस्पतीन् ) = वनस्पतियों की भी हिंसा मत कर। ओषध्यास्ते मूलं मा हिंसिषम् = इस उपदेश के अनुसार ओषधि के मूल को विच्छिन्न करनेवाला न बन। इनके लोम-नखरूप फल-फूलों का ही प्रयोग करनेवाला बन। 

    भावार्थ

    भावार्थ — त्रित [ काम, क्रोध, लोभ-विजयी ] का जीवन लोक-कल्याण के लिए ही होता है, अकल्याण के लिए नहीं।

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    विषय

    अश्व और राजा का दृढ ऐश्वर्यवान् आशुकारी होना।

    भावार्थ

    हे ( अङ्गिरः ) हे सूर्य के समान तेजस्विन्! हे प्राण के समान प्रिय विद्वन् ! ( त्वम् ) तू ( मानुषीभ्यः प्रजाभ्यः ) मानव प्रजाओं के लिये ( शिवः भव) कल्याणकारी हो । तू ( द्यावापृथिवी ) आकाश और पृथिवी, इन दोनों के बीच के प्राणियों को ( मा अभिशोची: ) संतप्त मत कर । ( अन्तरिक्षम् मा ) अन्तरिक्षस्थ प्राणियों को भी मत सता । ( वनस्पतीन् मा ) वनस्पतियों को भी कष्ट मत दे, व्यर्थ नाश मतकर ॥ शत० ६ । ४ ॥ ४ ॥४॥

    टिप्पणी

    ० `रासभस्पत्वा`० इति काण्व० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिः साध्या वा ऋषयः।अग्निदेवता । विराट् पथ्या बृहती । मध्यमः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    उत्तम संतानांनी नेहमी लोकांचे कल्याण करावे. भूमी व पदार्थांबाबत अधिक दुःख करू नये. मात्र सर्व पदार्थांचे रक्षण करून जनकल्याणासाठी उत्साहाने प्रयत्न करावा.

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    विषय

    संतानांनी इतरांशी (मनुष्य आदी प्राण्यांशी) कसे वागावे, पुढील मंत्रात हा विषय कथित आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (माता-पित्याचे वचन) हे (अड्गिर:) प्राणप्रिय संतान (पुत्र व पुत्री) तू (मानुषीभ्य:) मनुष्य आदी (प्रजाभ्य:) प्राण्यांकरिता (शिव:) कल्याणकारी, मंगलकारी (भव) हो. तू (द्यावा पृथिवी) विद्युत आणि भूमी यांविषयी (मा) (अभिशोची:) अति शोक करू नकोस आणि (वनस्पतीन्) वड आदी वृक्ष वनस्पतीविषयी शोक करू नकोस. (विद्युत, भूमी, आकाश आणि वृक्षवनस्पती तुला तुझ्या मंगलकारी मानव-कल्याणाकरिता भरपूर उपलब्ध आहेत. ते तुझ्या उपयोगी पडतील. त्यावस्तू कशा मिळतील याची चिंता करू नकोस. निसर्ग मोठा दाता आहे) ॥45॥

    भावार्थ

    भावार्थ - उत्तम संतानांचे कर्त्तव्य आहे की त्यांनी सर्व प्राण्यांप्रती मंगलकारी कार्य करावे आणि पृथ्वी आदी पदार्थांविषयी शोक करू नये. पण त्याचबरोबर या सर्व पदार्थांचे रक्षण करून सर्वोपकाराकरिता उत्साहपूर्वक यत्न करावेत. ॥45॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O beloved son, be propitious to creatures of the human race. Weep not for the objects between the heaven and earth, in airs mid region, and for trees.

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    Meaning

    Sonny, dear as my breath of life, be good to the people, to all human creations. Damage not the earth and the environment, pollute not the sky, do not desecrate the heavens. Do not destroy the trees and the forests.

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    Translation

    О radiant one, be gracious to your human creatures. Do not scorch the heaven and earth, nor the mid-space, nor the vegetation. (1)

    Notes

    Mā abhi Socih, do not scorch, or overheat them.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তৈঃ প্রজাসু কথং বর্ত্তিতব্যমিত্যাহ ॥
    পুনঃ তাহাদের প্রজাদের সহিত কীরূপ ব্যবহার করা উচিত এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অঙ্গিরঃ) প্রাণসদৃশ প্রিয় সুসন্তান ! (ত্বম্) তুমি (মানুষীভ্যঃ) মনুষ্যাদি (প্রজাভ্যঃ) প্রসিদ্ধ প্রজাদিগের জন্য (শিবঃ) কল্যাণকারী মঙ্গলময় (ভব) হও । (দ্যাবাপৃথিবী) বিদ্যুৎ এবং ভূমির বিষয়ে (মা) না (অভিশোচীঃ) অত্যন্ত চিন্তা করিও (অন্তরিক্ষম্) শূন্য সম্পর্কে (মা) চিন্তা করিও না এবং (বনস্পতীন্) বটাদি বনস্পতির (মা) চিন্তা করিও না ॥ ৪৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- সুসন্তানদিগের উচিত যে, প্রজার প্রতি মঙ্গলাচারী হইয়া পৃথিব্যাদি পদার্থ বিষয়ে শোকরহিত হইবে কিন্তু এই সকল পদার্থের রক্ষা বিধান করিয়া উপকার হেতু উৎসাহ সহ প্রচেষ্টা করিও ॥ ৪৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    শি॒বো ভ॑ব প্র॒জাভ্যো॒ মানু॑ষীভ্য॒স্ত্বম॑ঙ্গিরঃ ।
    মা দ্যাবা॑পৃথি॒বীऽঅ॒ভি শো॑চী॒র্মান্তরি॑ক্ষং॒ মা বন॒স্পতী॑ন্ ॥ ৪৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    শিব ইত্যস্য চিত্র ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাট্ পথ্যা বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যম স্বরঃ ॥

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