अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
ऋषिः - आदित्य
देवता - त्र्यवसाना अष्टपदाधृति
छन्दः - ब्रह्मा
सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
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त्वं न॑इन्द्रो॒तिभिः॑ शि॒वाभिः॒ शन्त॑मो भव। आ॒रोहं॑स्त्रिदि॒वं दि॒वो गृ॑णा॒नःसोम॑पीतये प्रि॒यधा॑मा स्व॒स्तये॒ तवेद्वि॑ष्णो बहु॒धा वी॒र्याणि। त्वं नः॑पृणीहि प॒शुभि॑र्वि॒श्वरू॑पैः सु॒धायां॑ मा धेहि पर॒मे व्योमन् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । न॒: । इ॒न्द्र॒ । ऊ॒तिऽभि॑: । शि॒वाभि॑: । शम्ऽत॑म: । भ॒व॒ । आ॒ऽरोह॑न् । त्रि॒ऽदि॒वम् । दि॒व: । गृ॒णा॒न: । सोम॑ऽपीतये । प्रि॒यऽधा॑मा । स्व॒स्तये॑ । तव॑ । इत् । वि॒ष्णो॒ इति॑ । ब॒हु॒ऽधा । वी॒र्या᳡णि । त्वम् । न॒: । पृ॒णी॒हि॒ । प॒शुऽभि॑: । वि॒श्वऽरू॑पै: । सु॒ऽधाया॑म् । मा॒ । धे॒हि॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन ॥१.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नइन्द्रोतिभिः शिवाभिः शन्तमो भव। आरोहंस्त्रिदिवं दिवो गृणानःसोमपीतये प्रियधामा स्वस्तये तवेद्विष्णो बहुधा वीर्याणि। त्वं नःपृणीहि पशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । न: । इन्द्र । ऊतिऽभि: । शिवाभि: । शम्ऽतम: । भव । आऽरोहन् । त्रिऽदिवम् । दिव: । गृणान: । सोमऽपीतये । प्रियऽधामा । स्वस्तये । तव । इत् । विष्णो इति । बहुऽधा । वीर्याणि । त्वम् । न: । पृणीहि । पशुऽभि: । विश्वऽरूपै: । सुऽधायाम् । मा । धेहि । परमे । विऽओमन ॥१.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] (शिवाभिः) मङ्गलमय (ऊतिभिः) रक्षाओं के साथ (त्रिदिवम्) तीन [आय व्यय वृद्धि] व्यवहार में (आरोहन्) ऊँचा होता हुआ और (दिवः)व्यवहारों को (गृणानः) जताता हुआ (प्रियधामा) प्रिय पदवाला (त्वम्) तू (सोमपीतये) ऐश्वर्य की रक्षा के लिये [वा अमृत पीने के लिये] और (स्वस्तये)सुन्दर सत्ता [दशा] के लिये (नः) हम को (शन्तमः) अत्यन्त सुख देनेवाला (भव) हो, (विष्णो) हे विष्णु ! [सर्वव्यापक परमेश्वर] (तव इत्) तेरे ही... [मन्त्र ६]॥१०॥
भावार्थ
परमात्मा अपनी अपारमहिमा से प्राणियों के उनके पुरुषार्थ के अनुसार आय, व्यय और वृद्धिरूप फल देताहुआ अनेक व्यवहारों का उपदेश करता है, हे मनुष्यो ! उसी की उपासना से पुरुषार्थके साथ ऐश्वर्य बढ़ाकर अपनी दशा सुधारते रहो ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(त्वम्) (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (ऊतिभिः) रक्षाभिः (शिवाभिः) मङ्गलयुक्ताभिः (शन्तमः) सुखयितृतमः (भव) (आरोहन्) आरूढ उन्नतः सन् (त्रिदिवम्) अ० ९।५।१०। दिवुव्यवहारे-क। त्रयो दिवा आयव्ययवृद्धिरूपा यस्मिंस्तं व्यवहारम् (दिवः)व्यवहारान् (गृणानः) विज्ञापयन्। उपदिशन् (सोमपीतये) ऐश्वर्यरक्षणाय। अमृतपानाय (प्रियधामा) प्रियपदः। प्रियतेजाः (स्वस्तये) शोभनास्तित्वाय। सुदशाप्राप्तये।अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
प्रियधामा
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (त्वम्) = आप (न:) = हमारे लिए (शिवाभिः ऊतिभि:) = कल्याण कर रक्षणों के द्वारा (शन्तमः भव) = अत्यन्त शान्ति देनेवाले होओ। आपकी कृपा से मैं त्(रिदिवं आरोहम्) = 'प्रकृति, जीव व परमात्मा के त्रिविध ज्ञान का आरोहण करता हुआ-त्रिविध ज्ञान को प्राप्त करता हुआ (दिवः गृणान:) = प्रकाशमयी स्तुतिवाणियों का उच्चारण करता हुआ [दिव द्युतौ स्तुती] सोमपीतये-शरीर में सोम के पान के लिए समर्थ बनें और स्वस्तये-कल्याण के लिए प्रियधामा-प्रियतेजोंबाला होऊँ। २. हे विष्णो! आपके जो अनन्त पराक्रम हैं। शेष पूर्ववत् ।
भावार्थ
हमें प्रभु के कल्याणकर रक्षण प्राप्त हों। हम त्रिविध ज्ञान को प्राप्त करते हुए, ज्ञानपूर्वक स्तुति-शब्दों का उच्चारण करते हुए शरीर में सोम का रक्षण करें और प्रिय तेजोंवाले बनकर कल्याण प्राप्त करें।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे परमैश्वर्य सम्पन्न परमेश्वर ! (त्वम्) तू (शिवाभिः) कल्याण कारिणी (ऊतिभिः) निज रक्षाओं के द्वारा (नः) हमें (शंतमः) अत्यधिक शान्ति देने वाला (भव) बन। (प्रिय धामा) जिस का तेज प्रिय है, या जिसे दिव् का स्थान प्रिय है ऐसा तू (दिवः) दिव् अर्थात् मस्तिष्क के (त्रिदिवम्) तीनों द्योतमान हिस्सो पर (आरोहन्)१ आरोहण करता हुआ, (स्वस्तये) हमारे कल्याण के लिये (सोमपीतये) सोमपानार्थ (गृणानः भव) हमें उपदेश देता हुआ बन। (तवेद् विष्णो)२… शेष अर्थ पूर्ववत् [मन्त्र ६]।
टिप्पणी
[प्रियधामा= प्रियं धाम यस्य यस्मै वा सः। धाम = तेज तथा स्थान। दिवः = मस्तिष्क के (मन्त्र ८ की व्याख्या), त्रिदिवम् = मस्तिष्क के तीन दिव् अर्थात् ज्योतिर्मय भाग। ज्ञान का साधन है मस्तिष्क। इस लिये इसे दिवम् कहा है। दिव्= द्युति, ज्ञानद्युति। मस्तिष्क के तीन विभाग = (१) Cerebellum or Small Brain, जिसे लघु मस्तिष्क कहते हैं। (२) Cerebrum or Large Brain, जिसे बृहत्-मस्तिष्क कहते हैं। इस बृहत्-मस्तिष्क के दो विभाग हैं, दक्षिण गोलार्ध तथा वाम गोलार्ध। बृहत्-मस्तिष्क में आज्ञाचक्र तथा सहस्रार चक्र होते हैं। सह-स्रारचक्र में परमेश्वरीय ज्योति का दर्शन होता है। सोमपीतये = सोमरस अर्थात् वीर्य के पान के लिये, ऊर्ध्वरेताः होने के लिये। सोम =वीर्य (अथर्व० १४।१।१-५)। आध्यात्मिक उन्नति के लिये वीर्य रक्षा और कामवासनाओं का परित्याग आवश्यक है। इसीलिए "श्रद्धावीर्य स्मृति समाधि प्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्" (योग १।२०) में वीर्य को असम्प्रज्ञातसमाधि का उपाय कहा है] [१. परमेश्वर प्रथम हृदय में, तत्पश्चात् आज्ञाचक्र के तृतीयनेत्र में, पुनः मस्तिष्कस्थ सहस्रारचक्र में प्रकट होता हुआ मानो क्रमशः आरोहण करता है। २. मन्त्र में आदित्य अर्थात् सूर्य परक अर्थ की ओर भी निर्देश है। सूर्य विष्णु है, यतः वह किरणों द्वारा व्याप्त है (विष्लृ व्याप्तौ)। सूर्य प्रातः काल, पूर्व दिशा के क्षितिज से ऊपर की ओर, आरोहण करता है। द्युलोक के भी तीन भाग हैं। एक क्रान्तिवृत्त, या रविमार्ग जिसे कि Ecliptic कहते हैं, तथा इस क्रान्तिवृत्त के उत्तर का भाग, तथा दक्षिण का भाग। इस प्रकार " त्रिदिवं दिवः" का कथन सूर्य के सम्बन्ध में भी यथार्थ है। सूर्य और सौर-परिवार यद्यपि क्रान्तिवृत्त में ही गति करता है, तथापि सूर्य निज किरणों द्वारा द्युलोक के तीनों भागों में व्याप्त होता है। सूर्य अर्थ में "सोमपीतये" का अर्थ है "जलपान" के लिये। सूर्य उदित हो कर समुद्र आदि के जलों का पान करता है। सूर्य पक्ष में "सुधा" का अर्थ है, जल, मधु तथा नानाविधरस। सुधा = Honey of flowers; juice, water (आप्टे)।]
विषय
अभ्युदय की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (इन्द्र) इन्द्र ! एैश्वर्यवन् ! साक्षात् दृश्यमाण आत्मन् (त्वं) तू (नः) हमारे लिये (शिवाभिः) कल्याणकारी (ऊतिभिः) रक्षा करने वाली शक्तियों से (शंतमः भव) अति अधिक कल्याणकारी हो। हे आत्मन् ! तू (त्रिदिवं) अति तीर्णतम, परम लोक को (आरोहन्) चढ़ता हुआ (दिवः) तेजोमय परमेश्वर की (गृणानः) स्तुति करता हुआ (सोमपीतये) शान्तिदायक ब्रह्मानन्दरस, मोक्षानन्द का पान करने के लिये और (स्वस्तये) अपने पर कल्याण के लिये (प्रियधामा) समस्त संसार के धारक, परम धाम का प्रिय होकर रह।
टिप्पणी
‘इन्द्रो अद्भिः शि’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O lord omnipotent, Indra, be kind most gracious to us with your blissful modes of protection and progress, rising to the three levels of heavenly light, radiating the light and proclaiming the divine voice of knowledge for our paradisal bliss and well being as our dearest haven and abode. O lord omnipresent, Vishnu, infinite are your powers and exploits. Bless us with all forms of perceptive organs and serviceable living beings. Pray establish me in the nectar joy of immortality in the highest regions of Divinity.
Translation
O resplendent Lord, may you be most gracious to us with your propitious aids, ascending from sky to the third heaven, being praised for enjoying the devotional bliss, possessing a pleasing home for (our) well-being. O pervading Lord, manifold, indeed, are your valours. May you enrich us with cattle of all sorts. May you put me in comfort and happiness in the highest heaven.
Translation
O Almighty God, All-supporting you please be most gracious with your favourable protections remaining in your highest luminous state of triplicate of power, intelligence and blessedness: giving luminosity to all, for the favour of our pleasure and our enjoyment of the world-pervasiveness.
Translation
O God, with Thy favorable aids, rising high in the award of three boons, preaching just dealings unto us, a Friend of humanity, for the safety of our prosperity, and for our welfare, he most gracious unto us! Manifold are Thy great deeds. Thine, O God! Sate us with creatures of all forms and colors: set me in happiness in the loftiest position
Footnote
Three boons; Income, Expenditure, Increase
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(त्वम्) (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (ऊतिभिः) रक्षाभिः (शिवाभिः) मङ्गलयुक्ताभिः (शन्तमः) सुखयितृतमः (भव) (आरोहन्) आरूढ उन्नतः सन् (त्रिदिवम्) अ० ९।५।१०। दिवुव्यवहारे-क। त्रयो दिवा आयव्ययवृद्धिरूपा यस्मिंस्तं व्यवहारम् (दिवः)व्यवहारान् (गृणानः) विज्ञापयन्। उपदिशन् (सोमपीतये) ऐश्वर्यरक्षणाय। अमृतपानाय (प्रियधामा) प्रियपदः। प्रियतेजाः (स्वस्तये) शोभनास्तित्वाय। सुदशाप्राप्तये।अन्यत् पूर्ववत् ॥
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