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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 30
    ऋषिः - आदित्य देवता - जगती छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
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    अ॒ग्निर्मा॑गो॒प्ता परि॑ पातु वि॒श्वत॑ उ॒द्यन्त्सूर्यो॑ नुदतां मृत्युपा॒शान्।व्यु॒छन्ती॑रु॒षसः॒ पर्व॑ता ध्रु॒वाः स॒हस्रं॑ प्रा॒णा मय्या य॑तन्ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नि: । मा॒ । गो॒प्ता । परि॑ । पा॒तु॒ । वि॒श्वत॑: । उ॒त्ऽयन् । सूर्य॑: । नु॒द॒ता॒म् । मृ॒त्यु॒ऽपा॒शान् । वि॒ऽउ॒च्छन्ती॑: । उ॒षस॑: । पर्व॑ता: । ध्रु॒वा: । स॒हस्र॑म् । प्रा॒णा: । मयि॑ । आ । य॒त॒न्ता॒म् ॥१.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्मागोप्ता परि पातु विश्वत उद्यन्त्सूर्यो नुदतां मृत्युपाशान्।व्युछन्तीरुषसः पर्वता ध्रुवाः सहस्रं प्राणा मय्या यतन्ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नि: । मा । गोप्ता । परि । पातु । विश्वत: । उत्ऽयन् । सूर्य: । नुदताम् । मृत्युऽपाशान् । विऽउच्छन्ती: । उषस: । पर्वता: । ध्रुवा: । सहस्रम् । प्राणा: । मयि । आ । यतन्ताम् ॥१.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 30
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    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (गोप्ता) रक्षाकरनेवाला (अग्निः) ज्ञानमय परमेश्वर (विश्वतः) सब ओर से (मा परि पातु) मेरीरक्षा करे, (उद्यन्) उदय होता हुआ (सूर्यः) सर्वप्रेरक परमात्मा (मृत्युपाशान्)मृत्यु के बन्धनों को (नुदताम्) हटावे। (व्युच्छन्तीः) विशेष चमकती हुई (उषसः)प्रभातवेलाएँ, (ध्रुवाः) दृढ़ (पर्वताः) पहाड़ और (प्राणाः) सब प्राण [शारीरिकऔर आत्मिक बल] (सहस्रम्) सहस्र प्रकार से (मयि) मुझ में (आ यतन्ताम्) सब ओर सेयत्न करते रहें ॥३०॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर काआश्रय लेकर अमर अर्थात् यशस्वी होकर सबकालों को सब ऊँची-नीची अवस्थाओं को औरशारीरिक और आत्मिक बलों को अनुकूल बनावें ॥३०॥ इति प्रथमोनुऽवाकः ॥ इति द्वात्रिंशः प्रपाठकः ॥इति सप्तदशंकाण्डम् ॥ इति श्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाड़ाधिष्ठितबड़ोदेपुरीगतश्रावणमासदक्षिणापरीक्षायाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषुलब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये सप्तदशंकाण्डम् समाप्तम् ॥

    टिप्पणी

    ३०−(अग्निः) ज्ञानमयः परमेश्वरः (मा) माम् (गोप्ता) रक्षकः (परिपातु) परितो रक्षतु (विश्वतः) सर्वतः (उद्यन्) उदयं गच्छन् (सूर्यः)सर्वप्रेरकः परमात्मा (नुदताम्) अपसारयतु (मृत्युपाशान्) मरणबन्धान् (व्युच्छन्तीः) व्युच्छन्त्याः। विशेषप्रकाशयुक्ताः (पर्वताः) शैलाः (ध्रुवाः)दृढाः (सहस्रम्) सहस्रप्रकारेण (प्राणाः) श्वासप्रश्वासाः।शारीरिकात्मिकपराक्रमाः (मयि) पुरुषार्थिनि (आ) समन्तात् (यतन्ताम्) यत्नशीलाभवन्तु ॥

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    विषय

    'अग्नि-सूर्य, उषाएँ व पर्वत'

    पदार्थ

    १. (गोप्ता) = जीवन का रक्षक (अग्निः) = अग्नितत्त्व (मा) = मुझे (विश्वत: परिपातु) = सब ओर से रक्षित करे। शरीर में उचित मात्रा में अग्नितत्व जीवन के लिए आवश्यक है। वस्तुतः यही जीवन का रक्षण करता है। (उद्यन् सूर्य:) = उदय होता हुआ सूर्य (मृत्युपाशान्) = रोगों के बन्धनों को (नुदताम्) = हमसे दूर धकेलनेवाला हो। 'उद्यान्नादित्यः क्रिमीन् हन्ति निम्लोचन हन्तु रश्मिभिः' उदय होता हुआ सूर्य रोगकृमियों को नष्ट करता ही है, अस्त होता हुआ सूर्य भी रश्मियों से इन कृमियों का विनाश करता है। २. (व्युच्छन्ती) = अन्धकार का विवासन करती हुई (उषस:) = उषाएँ तथा (भवाः पर्वता:) = अपने स्थान से च्युत न होनेवाले पर्वत मुझसे मृत्यु व पापों को दूर करें। उषा का वायुमण्डल तथा पर्वतों का वायु ओजोनगैस की अधिकतावाला होता है, अतएव यह स्वास्थ्यजनक है और मृत्यु को दूर करता है। हे प्रभो! 'अग्नि, सूर्य, उषा व पर्वतों' का सम्पर्क हमें स्वस्थ बनाए-मृत्यु को हमसे दूर रक्खे। (सहस्त्रं प्राणा:) = अपरिमित प्राणशक्तियाँ (मयि) = मुझ में (आयतन्ताम्) = विविध चेष्टाओं का सम्पादन करनेवाली हों, अर्थात् शरीर में प्राणों का कार्य समुचितरूप से चलता रहे।

    भावार्थ

    हमारे जीवन में 'अग्नि, सूर्य, उषाएँ व पर्वत' सब रोगों को दूर करनेवाले हों। शरीर में प्राणों के विविध कार्य ठीकरूप में चलते रहें।

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    भाषार्थ

    (गोप्ता) रक्षा करने वाला (अग्निः) सर्वाग्रणी परमेश्वर (विश्वतः) सब ओर से (मा) मुझे (परि पातु) पूर्णतया सुरक्षित करे, (उद्यन्) उदय होता हुआ (सूर्यः) सूर्य (मृत्युपाशान्) मृत्यु के फंदों को (नुदतां) दूर करे। (व्युच्छन्तीः) अन्धकार को हटाने वाली (उषसः) उषाएं, (ध्रुवाः) तथा स्थिर (पर्वताः) पर्वत, और (मयि) मुझ में स्थित (सहस्रम्) हजारों (प्राणाः) प्राणशक्तियां, (आ यतन्ताम्) मुझे प्रयत्नशील करती रहें, तथा मेरे जीवन में प्रयत्नशील रहें।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में अग्नि और सूर्य परमेश्वर वाचक हैं [मन्त्र ६ की व्याख्या], क्योंकि अग्नि अर्थात् सर्वाग्रणी परमेश्वर ही सब ओर से पूर्णरक्षा करने में समर्थ है। तथा परमेश्वर ही हृदयाकाश में उदित होकर, निज ज्योति द्वारा अविद्यान्धकार को मिटा कर मृत्यु अर्थात् जन्म-मरण के फंदों से छुटकारा दे सकता है। यथा "तमेव विदित्वाति मृत्युमेति" (यजु० ३१।१८)। उषसः= उषाकाल का सात्त्विक समय, तथा पर्वतीय शुद्ध वायु का सेवन, और इन द्वारा प्राणों का शुद्ध होना,–इन उपायों द्वारा जीवन में शक्ति संचार होने में व्यक्ति प्रयत्नशील हो जाता है। सहस्र प्राणाः शरीर के प्रत्येक अवयव और अङ्ग में, तथा अङ्गों के कोष्ठों (cells) में अपनी अपनी शक्ति निहित हैं जिसे कि प्राण कहते हैं। इस दृष्टि से प्राणों को सहस्रम् कहा है। श्वास-प्रश्वास भी प्राण हैं। जीवन में इन की संख्या असंख्य है। इसी प्रकार प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान आदि भी प्राण हैं। इन दृष्टियों से प्राणों के लिये सहस्त्रम् शब्द का प्रयोग हुआ है। पर्वताः ध्रुवाः= पर्वत के दो अर्थ हैं, (१) मेघ (निघं० १।१०) तथा पार्थिव पर्वत। पार्थिव पर्वत ध्रुव हैं, मेघ अध्रुव हैं। मन्त्र में अग्नि द्वारा अग्निहोत्र की अग्नि तथा सूर्य द्वारा द्युलोकस्थ सूर्य का भी ग्रहण अभिप्रेत है। अग्निहोत्र की अग्नि स्वास्थ्यकारी तथा रोग विनाशक सामग्री की आहुतियों द्वारा, तथा सूर्य निज ज्योति तथा तेज द्वारा जीवन की रक्षा कर, आयु को बढ़ा कर, शीघ्र मृत्यु से रक्षा करते हैं। इन प्राकृतिक शक्तियों के साथ साथ उषाकाल का सेवन तथा पर्वतवास आदि द्वारा प्राणशुद्धि आदि भी आयुवृद्धि में सहायक होते हैं]

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    विषय

    अभ्युदय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (अग्निः) अग्नि, अग्रणी, या अग्नि के समान प्रकाशक ज्ञानवान् परमेश्वर (मा) मुझे (विश्वतः परिपातु) सब ओर से रक्षा करे। और (सूर्य) सूर्य (उद्यन्) उदित होता हुआ (मृत्युपाशान्) मृत्यु पाशों को (नुदताम्) परे करे। (व्युच्छन्ती उषसः) प्रकाशित होती हुई उषाएं और (ध्रुवाः पर्वताः) स्थिर पर्वत और (सहस्रं प्राणाः) अपरिमित प्राण (मयि आयतन्ताम्) मेरे में क्रियाएं, चेष्टाएं उत्पन्न करें।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘गोपः परि’ (च०) ‘मयि ते रमन्ताम्’ इति पैप्प० सं०। इति सप्तदशं काण्डं समाप्तम्। [ एकोनुवाकः सूक्तञ्च त्रिंशत् सप्तदशे ऋचः। ] वाणवस्वङ्कसोमाब्दे श्रावणे प्रथमेऽसिते। द्वितीयस्यां भृगौ सप्तदशं काण्डं गतं शुभम्॥ इति प्रतिष्ठित विद्यालंकार-मीमांसातीर्थविरुदोपशोभित-श्रीमज्जयदेवशर्मणा विरचितेऽथर्वणो ब्रह्मवेदस्यालोकभाष्ये सप्तदशं काण्डं समाप्तम्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Agni, leading light of life, my protector, may, I pray, protect and promote me all round against all dangers and negativities. May the rising sun strike off and keep away the snares of decline and death. May the radiant dawns dispelling darkness, the clouds and fixed mountains and the pranic energies all join, exert in me and rejuvenate me a thousand ways, a thousandfold.

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    Translation

    May the protector fire divine protect me from all sides. May the rising sun push away the fetters of death. May the dawns Shining brightly and mountains firmly set, infuse a thousand vital-breaths into me.

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    Translation

    Let fire as protector guard me on all sides, let rising sun remove away the anares of death, let brightly flushing dawns, firmly held mountains and thousand Pranas exert their effect in my effort.

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    Translation

    On every side let Protecting God guard and save me; may the exalted God drive off the snares of Death. Let brightly flushing Dawns, firm-set mountains and manifold spiritual and physical forces be united with me.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३०−(अग्निः) ज्ञानमयः परमेश्वरः (मा) माम् (गोप्ता) रक्षकः (परिपातु) परितो रक्षतु (विश्वतः) सर्वतः (उद्यन्) उदयं गच्छन् (सूर्यः)सर्वप्रेरकः परमात्मा (नुदताम्) अपसारयतु (मृत्युपाशान्) मरणबन्धान् (व्युच्छन्तीः) व्युच्छन्त्याः। विशेषप्रकाशयुक्ताः (पर्वताः) शैलाः (ध्रुवाः)दृढाः (सहस्रम्) सहस्रप्रकारेण (प्राणाः) श्वासप्रश्वासाः।शारीरिकात्मिकपराक्रमाः (मयि) पुरुषार्थिनि (आ) समन्तात् (यतन्ताम्) यत्नशीलाभवन्तु ॥

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