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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 23
    ऋषिः - आदित्य देवता - त्रिपदा निचृत बृहती छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
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    अ॑स्तंय॒ते नमो॑ऽस्तमेष्य॒ते नमो॑ऽस्तमिताय॒ नमः॑। वि॒राजे॒ नमः॑ स्व॒राजे॒ नमः॑ स॒म्राजे॒नमः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्त॒म्ऽय॒ते । नम॑: । अ॒स्त॒म्ऽए॒ष्य॒ते । नम॑: । अस्त॑म्ऽइताय । नम॑: । वि॒ऽराजे॑ । नम॑: । स्व॒ऽराजे॑ । नम॑:। स॒म्ऽराजे॑ । नम॑: ॥१.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्तंयते नमोऽस्तमेष्यते नमोऽस्तमिताय नमः। विराजे नमः स्वराजे नमः सम्राजेनमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्तम्ऽयते । नम: । अस्तम्ऽएष्यते । नम: । अस्तम्ऽइताय । नम: । विऽराजे । नम: । स्वऽराजे । नम:। सम्ऽराजे । नम: ॥१.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 23
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    हिन्दी (3)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्तंयते) अस्त होतेहुए [परमेश्वर] को (नमः) नमस्कार है, (अस्तमेष्यते) अस्त होना चाहनेवाले को (नमः) नमस्कार है, (अस्तमिताय) अस्त हो चुके हुए को (नमः) नमस्कार है। (विराजे)विविध राजा को (नमः) नमस्कार है, (स्वराजे) अपने आप राजा को (नमः) नमस्कार है, (सम्राजे) सम्राट् [राजराजेश्वर] को (नमः) नमस्कार है ॥२३॥

    भावार्थ

    परमात्मा एक सृष्टि औरप्रलय की सन्धि दशा में, दूसरे प्रलय करने की दशा में और तीसरे प्रलय की समाप्तिमें विविध प्रकार अपनी महिमा दिखाता है, उसी सर्वशक्तिमान् सम्राट् की आज्ञा मानकर हम सदा सुखी रहें ॥२३॥

    टिप्पणी

    २३−(अस्तंयते) अस्तंगच्छते परमेश्वराय (नमः) नमस्कारः (अस्तमेष्यते)अस्तं गमिष्यते (अस्तमिताय) अस्तं प्राप्ताय। अन्यत् पूर्ववत्-म० २˜२॥

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    विषय

    ज्ञानोदय अन्धकारविलय

    पदार्थ

    १. (उद्यते) = उदय होते हुए ज्ञानसूर्य के लिए (नमः) = नमस्कार हो, (उदायते) = कुछ उदित हो गये इस ज्ञानसूर्य के लिए (नमः) = नमस्कार हो और (उदिताय) = उदित हुए इस ज्ञानसूर्य के लिए (नमः) = नमस्कार हो। २. 'उद्यन्' प्रकृतिविज्ञान सूर्यवाले (विराजे) = अतएव विशिष्टरूप से दीप्त होनेवाले इस पुरुष के लिए (नमः) = हम आदर देते हैं। उदायत् ज्ञानसूर्यवाले इस (स्वराजे) = आत्मज्ञान की दीप्ति से दीप्त पुरुष के लिए (नमः) = हम प्रणाम करते हैं। उदित ब्रह्मज्ञान सूर्यवाले इस (सम्राजे) = सम्यक् दीप्त पुरुष के लिए (नम:) = हम नमस्कार करते हैं। ३. उद्यन् ज्ञानसूर्य के होने पर इस (अस्तंयते) = अस्त को जाते हुए वासनान्धकार के लिए हम (नमः) = प्रभु के प्रति नमन करते हैं। 'उदायत्' ज्ञानसूर्य के होने पर (अस्तम् एष्यते) = कुछ अस्त हो गये वासनान्धकार के लिए (नमः) = हम प्रभु का नमन करते हैं और 'उदित' ज्ञानसूर्य के होने पर अस्तमिताय-अस्त हो गये वासनान्धकार के लिए (नम:) = हम प्रभु का नमन करते हैं। अस्त को जाते हए वासनान्धकार के होने पर (विराजे) = विशिष्ट दीसिवाले इस पुरुष के लिए (नमः) = आदर हो। कुछ अस्त हो गये बासनान्धकारवाले इस (स्वराजे) = आत्मदीप्तिवाले पुरुष के लिए (नमः) = नमस्कार हो। अस्तमिताय अस्त हुए वासनान्धकारवाले इस (सम्राजे) = सम्यक् दीप्स पुरुष के लिए नमः नमस्कार हो।

    भावार्थ

    हम ज्ञानसूर्य के उदय के द्वारा बासनान्धकार के विलय के लिए यत्नशील हों, तभी हम विशिष्ट दीसिवाले [विराट], आत्मदीसिवाले [स्वराट्] व सम्यक् दीप्तिवाले [सम्राट्] बन पाएंगे।

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    भाषार्थ

    (अस्तंयते) अस्त होने के निमित्त यत्न करते हुए के लिये (नमः) अन्न हो, (अस्तम् एष्यते) जो अस्त होगा अर्थात्, अस्त होने वाला है के लिये (नमः) अन्न हो, (अस्तम् इताय) अस्त हो गये के लिये (नमः) अन्न हो (विराजे नमः) आदि पूर्ववत् [मन्त्र २२]

    टिप्पणी

    [मन्त्र २२ में सूर्य के उदित या अनुदित काल में "नमः" शब्द द्वारा प्रातः अग्निहोत्र तथा परमेश्वर के प्रति नमस्कार का वर्णन है। मन्त्र २३ में सूर्य के अस्त काल के सम्बन्ध में "नमः" द्वारा सायम्-अग्निहोत्र और परमेश्वर के प्रति नमस्कार का वर्णन किया है "नमः" शब्द के दो अर्थ होते है, अन्न और नमस्कार। अन्न द्वारा तो अग्निहोत्र का निर्देश है। और नमस्कार द्वारा सन्ध्या या योगाभ्यास का निर्देश है। मन्त्र २३ में सूर्यास्त के ३ प्रक्रम दर्शाएं हैं, अस्तंयते, अस्तमेष्यते, तथा अस्तमिताय। इन ३ प्रक्रमों के साथ विराजे, स्वराजे और सम्राजे का व्युत्क्रम से सम्बन्ध है। सूर्य जब पश्चिम-क्षितिज से ऊपर होता है, अर्थात् अस्तंयते के प्रक्रम में होता है तब वह सम्राट् अर्थात् अपनी सम्यक्-दीप्ति के साथ संगत रहता है, अस्तमेष्यते के प्रक्रम में वह स्वराट् अर्थात् निज दीप्ति के साथ अभी विद्यमान रहता है, क्योंकि यह तभी अर्धास्त प्रक्रम में होता है। और अस्तमिताय प्रक्रम में यतः सूर्य अस्त हो चुका होता है, अतः तब सूर्य विराट् अवस्था में हो जाता है, निज दीप्ति से विगत अर्थात् रहित हो जाता है, विराट्=विगत राट्। सम्राट्=सम्यक् + राट्। स्वराट् = स्व, अर्थात् अपनी राट् अर्थात् दीप्ति, अर्थात् इस द्वितीय स्वराट् प्रक्रम में भी उस की अपनी दीप्ति कुछ शेष रहती१ है] [परमेश्वर के पक्ष में:— योगी जब शनैः शनैः ध्यानावस्था से विरत हो रहा होता तब भी अस्तंयते, अस्तमेष्यते, और अस्तमिताय,–ये तीन अवस्थाओं में योगी के ध्यान से परमेश्वर विराजे होता है। इन तीनों अवस्थाओं में योगी परमेश्वर के प्रति "नम उक्तियां" भेंट करता है। परमेश्वर सायंकाल की उपासना में सम्राजे, स्वराजे और विराजे की अवस्थाओं में से गुजरता हुआ उपासना की समाप्ति के समय मानो अस्तमित हो जाता है।] [१. "समयाध्युषिते जुहोति" पक्ष में सूर्यास्त के पश्चात् अग्निहोत्र करने का विधान है। समयाध्युषित सायंकाल जब कि सूर्य और तारे दोनों न दीखें।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Homage to the declining Sun, homage to the setting Sun, homage to the Sun gone to set, homage to the Refulgent, homage to the Self-Refulgent, homage to the All-Refulgent!

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    Translation

    Homage be to him, about to set; homage be to the setting one; homage be to one, that has set; homage be to the extremely refulgent; homage be to the self-refulgent, homage be to the absolute refulgent.

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    Translation

    In the state of world's dissolution when He starts to disolve the manifestaive world He equally deserves our obeisance; He dese.ves our praise when He is engaged in disolving persons, to Him is due our praise when He completes the dissolving work. Rest is like previous one.

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    Translation

    Obeisance to God between the time of Creation and Dissolution, Obeisance to God at the time of Dissolution, Obeisance to God at the time of creation of the universe. To Him Far-shining, the Self-Refulgent, to Him the Supreme Ruler be obeisance

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−(अस्तंयते) अस्तंगच्छते परमेश्वराय (नमः) नमस्कारः (अस्तमेष्यते)अस्तं गमिष्यते (अस्तमिताय) अस्तं प्राप्ताय। अन्यत् पूर्ववत्-म० २˜२॥

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