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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 22
    ऋषिः - आदित्य देवता - द्विपदा अनुष्टुप् छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
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    उ॑द्य॒ते नम॑उदाय॒ते नम॒ उदि॑ताय॒ नमः॑। वि॒राजे॒ नमः॑ स्व॒राजे॒ नमः॑ स॒म्राजे॒ नमः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽय॒ते । नम॑: । उ॒त्ऽआ॒य॒ते । नम॑: । उत्ऽइ॑ताय । नम॑: । वि॒ऽराजे॑ । नम॑: । स्व॒ऽराजे॑ । नम॑: । स॒म्ऽराजे॑ । नम॑: ॥१.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्यते नमउदायते नम उदिताय नमः। विराजे नमः स्वराजे नमः सम्राजे नमः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽयते । नम: । उत्ऽआयते । नम: । उत्ऽइताय । नम: । विऽराजे । नम: । स्वऽराजे । नम: । सम्ऽराजे । नम: ॥१.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 22
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (उद्यते) उदय होतेहुए [परमेश्वर] को (नमः) नमस्कार है, (उदायते) ऊँचे आते हुए को (नमः) नमस्कारहै, (उदिताय) उदय हो चुके हुए को (नमः) नमस्कार है। (विराजे) विविध राजा को (नमः) नमस्कार है, (स्वराजे) अपने आप राजा को (नमः) नमस्कार है, (सम्राजे)सम्राट् [राजराजेश्वर] को (नमः) नमस्कार है ॥२२॥

    भावार्थ

    परमात्मा एक प्रलय औरसृष्टि की सन्धि दशा में, दूसरे सृष्टि करने की दशा में और तीसरे सृष्टि कीसमाप्ति में अपनी महिमा विविध प्रकार प्रकट करता है, उस सर्वशक्तिमान् अद्वितीयजगदीश्वर की आज्ञा में रहकर हम सदा आनन्दित रहें ॥२२॥

    टिप्पणी

    २२−(उद्यते)प्रलयसृष्टिसन्धिदशायामुदयं गच्छते परमेश्वराय (नमः) नमस्कारः (उदायते)उत्+आङ्+इण् गतौ-शतृ। सृष्टिकाल उदयमागच्छते (उदिताय) सृष्टिसमाप्तिकाल उदयंप्राप्ताय (विराजे) विविधेश्वराय (स्वराजे) स्वयमैश्वर्यवते (सम्राजे)राजराजेश्वराय। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    ज्ञानोदय अन्धकारविलय

    पदार्थ

    १. (उद्यते) = उदय होते हुए ज्ञानसूर्य के लिए (नमः) = नमस्कार हो, (उदायते) = कुछ उदित हो गये इस ज्ञानसूर्य के लिए (नमः) = नमस्कार हो और (उदिताय) = उदित हुए इस ज्ञानसूर्य के लिए (नमः) = नमस्कार हो। २. 'उद्यन्' प्रकृतिविज्ञान सूर्यवाले (विराजे) = अतएव विशिष्टरूप से दीप्त होनेवाले इस पुरुष के लिए (नमः) = हम आदर देते हैं। उदायत् ज्ञानसूर्यवाले इस (स्वराजे) = आत्मज्ञान की दीप्ति से दीप्त पुरुष के लिए (नमः) = हम प्रणाम करते हैं। उदित ब्रह्मज्ञान सूर्यवाले इस (सम्राजे) = सम्यक् दीप्त पुरुष के लिए (नम:) = हम नमस्कार करते हैं। ३. उद्यन् ज्ञानसूर्य के होने पर इस (अस्तंयते) = अस्त को जाते हुए वासनान्धकार के लिए हम (नमः) = प्रभु के प्रति नमन करते हैं। 'उदायत्' ज्ञानसूर्य के होने पर (अस्तम् एष्यते) = कुछ अस्त हो गये वासनान्धकार के लिए (नमः) = हम प्रभु का नमन करते हैं और 'उदित' ज्ञानसूर्य के होने पर अस्तमिताय-अस्त हो गये वासनान्धकार के लिए (नम:) = हम प्रभु का नमन करते हैं। अस्त को जाते हए वासनान्धकार के होने पर (विराजे) = विशिष्ट दीसिवाले इस पुरुष के लिए (नमः) = आदर हो। कुछ अस्त हो गये बासनान्धकारवाले इस (स्वराजे) = आत्मदीप्तिवाले पुरुष के लिए (नमः) = नमस्कार हो। अस्तमिताय अस्त हुए वासनान्धकारवाले इस (सम्राजे) = सम्यक् दीप्स पुरुष के लिए नमः नमस्कार हो।

    भावार्थ

    हम ज्ञानसूर्य के उदय के द्वारा बासनान्धकार के विलय के लिए यत्नशील हों, तभी हम विशिष्ट दीसिवाले [विराट], आत्मदीसिवाले [स्वराट्] व सम्यक् दीप्तिवाले [सम्राट्] बन पाएंगे।

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    भाषार्थ

    (उद्यते) उदयार्थ-यत्न करते हुये के लिये (नमः) अन्न हो, (उदायते) उदयार्थ आगमन करते हुए के लिये (नमः) अन्न हों, (उदिताय) उदित हो चुके के लिये (नमः) अन्न हो, (विराजे) अर्थात् विरहित-दीप्ति वाले के लिये (नमः) अन्न हो, (स्वराजे) अपनी-दीप्ति वाले के लिये (नमः) अन्न हो, (सम्राजे) सम्यक्-दीप्ति वाले के लिये (नमः) अन्न हो।

    टिप्पणी

    [उदयों के वर्णन से मन्त्र में सूर्य का वर्णन प्रतीत होता है। सूर्य के उदय की ३ अवस्थायें दर्शाई हैं। (१) जब वह उदय होने के यत्न में है, (२) जब वह क्षितिज [Horizon] से कुछ ऊपर आया और कुछ क्षितिज के नीचे है, (३) जब वह पूर्ण उदित हो गया, अर्थात् क्षितिज से ऊपर उठ आया। प्रथम अवस्था को "उद्यते" द्वारा, द्वितीय को "उदायते" द्वारा, तथा तृतीय को "उदिताय" द्वारा निर्दिष्ट किया है। इसी प्रकार प्रथम अवस्था को "विराजे" द्वारा, द्वितीय को "स्वराजे' द्वारा, तथा तृतीय को "सम्राजे" द्वारा निर्दिष्ट किया है। विराजे में सूर्य की दीप्ति दृष्टिगोचर नहीं होती, उस की सत्ता उषा द्वारा अनुमित होती है। स्वराजे में सूर्य की अपनी, दीप्ति प्रकट होने लगती है, तथा सम्राजे में उस की सम्यक-दीप्ति दृष्टिगोचर हो जाती है। नमः =अन्ननाम (निघं० २।७)। मन्त्र में अग्निहोत्र का अन्न अर्थात् सामग्री अभिप्रेत है। अग्निहोत्र के सम्बन्ध में दो विकल्पों का निर्देश किया गया है, "उदिते जुहोति" तथा "अनुदिते जुहोति" अर्थात् सूर्य के उदित होने पर अग्निहोत्र करे, चाहे अनुदित अवस्था में करे। "उद्यते" की अवस्था "अनुदिते जुहोति" की विकल्पावस्था है। "उदायते" की अवस्था में सूर्य लगभग अर्धोदित अवस्था में होता है, और "उदिताय" की अवस्था "उदिते जुहोति" द्वारा सूचित की गई है। उद्यते = उद् + यत् (प्रयत्ने) + क्विप्। उदायते = उद्+ आयते। मन्त्र में प्रातः अग्निहोत्र का वर्णन हुआ है] [परमेश्वर पक्ष में मन्त्रार्थ:- योगी जब परमेश्वर के ध्यान में बैठता है तब प्रारम्भ में उसे परमेश्वर "उद्यते" अवस्था में प्रकट होता है, उस की ज्योति का केवल पूर्वाभास होता है, यह आध्यात्मिक-उषारूप होता है। इस आध्यात्मिक उषा के रूप है,–नीहार, धूम, अर्क (सूर्य), अनल (अग्नि) अनिल (वायु); खद्योत (आकाश के द्युतिमान तारे), विद्युत्, स्फटिक, शशी (चन्द्रमा)। ये वस्तुएं आध्यात्मिक-उषा रूप में प्रथम प्रकट होती हैं, पश्चात् ब्रह्म की अभिव्यक्ति होती है यथा:— नीहारधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशीनाम्‌। एतानि रूपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे॥ (श्वेता० उप० २।११)। तथा जब परमेश्वर की ज्योति, अर्धोदित सूर्य की ज्योति के सदृश, योगी को दृष्टिगोचर होती है तब यह अवस्था "उदायते" अवस्था है। तथा जब उदित सूर्य के सदृश परमेश्वर पूर्णोदित हुआ दृष्टिगोचर होता है तब परमेश्वर उदितावस्था में होता है। विराजे, स्वराजे, सम्राजे द्वारा,- उद्यते, उदायते, उदिताय अवस्थाओं का ही निर्देश किया है। विराजे या उद्यते काल में ध्यान में बैठकर सम्राजे या उदिताय की अवस्था तक ध्यान करते हुये परमेश्वर को नमः करते रहने का विधान मन्त्र में हुआ है। जैसे कि कहा है “भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम" (यजु० ४०।१६), अर्थात् हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर ! हम तेरे प्रति बहुत नमस्कारोक्तियां भेंट करें।

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    विषय

    अभ्युदय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! (उद्यते नमः) सूर्य के समान हृदय में कोमल प्रकाश से उदित होते हुए तुझे नमस्कार है। (उत् आयते नमः) ऊपर आने वाले तुझे नमस्कार है। (उदिताय नमः) उदित हुए तुझको नमस्कार है। (विराजे नमः) विविध रूप से प्रकाशमान ‘विराट’ रूप तुझको नमस्कार है। (स्वराजे नमः) स्वयं प्रकाशमान ‘स्वराट्’ रूप तुझको नमस्कार है। (साम्राजे नमः) समान भाव से सर्वत्र प्रकाशमान तुझ ‘सम्राट’ को नमस्कार है।

    टिप्पणी

    ‘रोचिषीय’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Homage to the rising Sun, homage to the rising Sun in the ascendance, homage to the Sun high on the Zenith, homage to the Refulgent, homage to the Self- Refulgent, homage to the All-Refulgent!

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    Translation

    Homage be to him, about to rise; homage be to the ascending one; homage be to one, that has risen up; homage be to the extremely refulgent; homage be to the self-refulgent, homage be to the absolute refulgent.

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    Translation

    In the primitive state of cosmic creation when Divinity rises up to initiate motoin deserves our oeisance, He deserves our obeisance when he ascends to higher state, He deserves our praise when he is completely busy in manifesting the world. He indeed, is salutable when he shines in luminosities, He becomes highly adorable with praise when he himself through manifested world and He absolutely deserves all our praise when He shines as the illuminator of all the phenomenal manifestation.

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    Translation

    Obeisance to God between the time of Dissolution and Creation. Obeisance to God at the time of Creation. Obeisance to God at the time of Dissolution of the universe. To Him Far-shining, the Self-Refulgent, to Him the Supreme Ruler be obeisance

    Footnote

    Obeisance: Worship, salutation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २२−(उद्यते)प्रलयसृष्टिसन्धिदशायामुदयं गच्छते परमेश्वराय (नमः) नमस्कारः (उदायते)उत्+आङ्+इण् गतौ-शतृ। सृष्टिकाल उदयमागच्छते (उदिताय) सृष्टिसमाप्तिकाल उदयंप्राप्ताय (विराजे) विविधेश्वराय (स्वराजे) स्वयमैश्वर्यवते (सम्राजे)राजराजेश्वराय। अन्यद् गतम् ॥

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