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अथर्ववेद के काण्ड - 17 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 19
    ऋषिः - आदित्य देवता - त्र्यवसाना सप्तदात्यष्टि छन्दः - ब्रह्मा सूक्तम् - अभ्युदयार्थप्रार्थना सूक्त
    6

    अस॑ति॒सत्प्रति॑ष्ठितं स॒ति भू॒तं प्रति॑ष्ठितम्। भू॒तं ह॒ भव्य॒ आहि॑तं॒ भव्यं॑भू॒ते प्रति॑ष्ठितं॒ तवेद्वि॑ष्णो बहु॒धावी॒र्याणि। त्वं नः॑ पृणीहिप॒शुभि॑र्वि॒श्वरू॑पैः सु॒धायां॑ मा धेहि पर॒मे व्योमन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस॑ति । सत् । प्रति॑ऽस्थितम् । स॒ति । भू॒तम् । प्रति॑ऽस्थितम् । भू॒तम् । ह॒ । भव्ये॑ । आऽहि॑तम् । भव्य॑म् । भू॒ते । प्रति॑ऽस्थितम् । तव॑ । इत् । वि॒ष्णो॒ इति॑ । ब॒हु॒ऽधा । वी॒र्या᳡णि । त्वम् । न॒: । पृ॒णी॒हि॒ । प॒शुऽभि॑: । वि॒श्वऽरू॑पै: । सु॒ऽधाया॑म् । मा॒ । धे॒हि॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥१.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असतिसत्प्रतिष्ठितं सति भूतं प्रतिष्ठितम्। भूतं ह भव्य आहितं भव्यंभूते प्रतिष्ठितं तवेद्विष्णो बहुधावीर्याणि। त्वं नः पृणीहिपशुभिर्विश्वरूपैः सुधायां मा धेहि परमे व्योमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असति । सत् । प्रतिऽस्थितम् । सति । भूतम् । प्रतिऽस्थितम् । भूतम् । ह । भव्ये । आऽहितम् । भव्यम् । भूते । प्रतिऽस्थितम् । तव । इत् । विष्णो इति । बहुऽधा । वीर्याणि । त्वम् । न: । पृणीहि । पशुऽभि: । विश्वऽरूपै: । सुऽधायाम् । मा । धेहि । परमे । विऽओमन् ॥१.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 17; सूक्त » 1; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आयु की बढ़ती के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (असति) अनित्य [कार्य]में (सत्) नित्य वर्त्तमान [आदिकारण ब्रह्म] (प्रतिष्ठितम्) ठहरा हुआ है, और (सति) नित्य [ब्रह्म] में (भूतम्) सत्तावाला जगत् [अथवा पृथिवी आदि भूतपञ्चक] (प्रतिष्ठितम्) ठहरा हुआ है। (भूतम्) बीता हुआ (भव्ये) होनेवाले में (ह) निश्चयकरके (आहितम्) रक्खा हुआ है, और (भव्यम्) होनेवाला (भूते) बीते हुए में (प्रतिष्ठितम्) ठहरा हुआ है, (विष्णो) हे विष्णु ! [सर्वव्यापक परमेश्वर] (तवइत्) तेरे ही (वीर्याणि) वीरकर्म [पराक्रम] (बहुधा) अनेक प्रकार हैं। (त्वम्) तू (नः) हमें (विश्वरूपैः) सब रूपवाले (पशुभिः) प्राणियों से (पृणीहि) भरपूर कर, (मा) मुझे (परमे) सबसे ऊँचे (व्योमन्) विशेष रक्षापद में (सुधायाम्) पूरी पोषणशक्ति के बीच (धेहि) रख ॥१९॥

    भावार्थ

    जो ओं तत्सत् परमात्माअपनी महिमा से सबका आदि कारण होकर सबके भीतर और बाहिर और भूत, भविष्यत् औरवर्त्तमान में एकरस व्यापकर सब ब्रह्माण्ड को थाँभे है, हम सब उसकी ही उपासनाकरके सुखी होवें ॥१९॥

    टिप्पणी

    १९−(असति) अस सत्तायाम्-शतृ। अनित्ये कार्ये (सत्)नित्यमादिकारणं परब्रह्म-ओंतत्सदिति निर्देशात् (प्रतिष्ठितम्) प्रतीत्यास्थितम् (सति) नित्ये ब्रह्मणि (भूतम्) सत्तायुक्तं जगत्। पृथिव्यादिभूतपञ्चकम्(प्रतिष्ठितम्) (भूतम्) अतीतम् (ह) निश्चयेन (भव्ये) भविष्यति (आहितम्)स्थापितम् (भव्यम्) भविष्यत् (भूते) अतीते। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    अद्भुत रचना

    पदार्थ

    १. (असति) = अदृश्य अव्यक्त प्रकृति में (सत्) = प्रकृति का विकारभूत यह दृश्य महत्तत्त्व (प्रतिष्ठितम्) = प्रतिष्ठित है। प्रकृति से महत्तत्त्व का प्रादुर्भाव होता है। (सति) = इस महत्त्व में (भूतम् भूतपञ्चक) = पृथिव्यादि पंचभूत (प्रतिष्ठितम्) = प्रतिष्ठित हैं। यह (भूतम्) = पंचभूत (भव्ये) = इस सब कार्यसमूह में सब पदार्थों में (आहितम्) = निश्चय से आहित हैं,-अनुगत हैं। यह (भव्यम्) = कार्यजगत् (भूते) = अपने उपादानकारणभूत भूतपंञ्चक में (प्रतिष्ठितम् भूतम्) = आश्रित है। हे विष्णो! आपके ही ये अनन्त पराक्रम हैं। शेष पूर्ववत्।

    भावार्थ

    संसार का स्वरूप अद्भुत हैं। किस प्रकार अव्यक्त प्रकृति से यह व्यक्त महत्तत्व पैदा होता है। किस प्रकार उससे पंचभूतों का प्रादुर्भाव होकर यह संसार प्रकट हो जाता है।' यह सब चिन्तन करता हुआ उपासक यह कह उठता है कि हे विष्णो! आपके ये अनन्त पराक्रम हैं।

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    भाषार्थ

    (असति) जिसकी सत्ता अनुभव में नहीं आ रही उस अव्याकृत प्रकृति में (सत्) विद्यमान जगत् (प्रतिष्ठितम्) स्थित है, और (सति) सत्-जगत् में (भूतम्) पूर्वकालीन प्रकृति (प्रतिष्ठितम्) स्थित है। (भूतम्) भूतकालीन प्रकृति (ह) निश्चय से (भव्ये) भविष्यत् काल में होने वाले जगत् में (पाहितम्) रखी हुई है, और (भव्यम्) होने वाला जगत् (भूते) पूर्वकालीन प्रकृति में (प्रतिष्ठितम्) स्थित१ है, (तवेद विष्णो) …. अर्थ पूर्ववत् [मन्त्र ६]।

    टिप्पणी

    [असति सत्प्रतिष्ठितम् =असत् अर्थात् सद्रूप से न प्रतीत होने वाली प्रकृति कारण है, उपादान-कारण है, और सत् अर्थात् विद्यमान जगत् कार्य है। कार्य की स्थिति उपादान-कारण में दर्शाई हैं। इस द्वारा सत्कार्यवाद के सिद्धान्त की पुष्टि होती है। सत्कार्य अपने उपादान-कारण में शक्ति रूप में रहता है; उपादान-कारण से-उत्पन्न होने-की-योग्यता रूप में रहता है, जैसे कि अंकुर, अपने कारण बीज में उत्पन्न होने की योग्यता-रूप में रहता है। "सति भूतम्” “भव्ये भूतम्” “भूते भव्यम्" = इन का अभिप्राय यह भी है कि "सत अर्थात् विद्यमान पदार्थ में उस का भूतरूप अर्थात् बीतारूप भी रहता है," और "भव्य अर्थात् जो पदार्थ उत्पन्न होगा उस में भी उस का भूतरूप अर्थात् बीता-रूप निहित रहता है, “तथा भूत पदार्थ में उस का भावीरूप भी स्थित होता है"। तभी महायोगी त्रिकाल-दर्शी हो सकता है। इसी लिये योग में कहा है कि “परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम्" (योग० ३।१६) अर्थात् तीनों परिणामों में संयम करने से भूत और भविष्यत् का ज्ञान होता है इस का कारण योग में यह दर्शाया है कि “क्रमान्यत्वं परिणामान्यत्वे हेतुः" (योग० ३।१५), अर्थात् जिस जिस पदार्थ में उस का जो जो रूप प्रथम उत्पन्न हो चुका है, और जो जो भविष्यत् में होना है, इन सब में क्रम नियत है। क्रम का भेद ही परिणाम के भेद में हेतु है, नियामक है, अतः जो योगी वस्तु की उत्पत्ति के इस नियत क्रम को जान लेता है वह उस वस्तु के भूतरूपों और भावीरूपों का भी द्रष्टा हो जाता है। योग में अन्य सूत्रों में त्रिकाल द्रष्टृत्व का पर्याप्त वर्णन हुआ२ है] [१. मन्त्रोक्त सिद्धान्त को निम्नलिखित दृष्टान्त द्वारा सुगमता से समझा जा है। यथाः - मिट्टी से घड़ा बना। सत्-घड़ा मिट्टी रूप कारण में प्रतिष्ठित है, अपनी स्थिति रखता है। यह है । "असति सत् प्रतिष्ठितम्" अर्थात् प्रकृति में सत् जगत् की स्थिति। जैसे मिट्टी से बने घड़े में, घड़े का पूर्वरूप जो मिट्टी है वह स्थित रहती है, इसी प्रकार "सति भूतं प्रतिष्ठितम्” अर्थात् सत्-जगत् में, जगत् का भूतरूप अर्थात् पूर्वरूप प्रकृति भी स्थित रहती है। जैसे घड़े के भावीरूप ठीकरियों में घड़े की भूतपूर्व मिट्टी स्थित रहती है, इसी प्रकार "भव्ये भूतम् आहितम्" अर्थात् भविष्यत् काल में होनेवाले जगत् के स्वरूप में भी प्रकृति स्थित रहती है। तथा जिस प्रकार घड़े का भव्य अर्थात् भविष्यत्-काल में होनेवाला ठीकरों-का-भी -स्वरूप भूतस्वरूप मिट्टी तथा घट में स्थित होता है, इसी प्रकार "भव्यं भूते प्रतिष्ठितम्" अर्थात् जगत् का भव्य अर्थात् भविष्यत्-काल में परिवर्तित होने वाला स्वरूप भी, भूतरूप प्रकृति में तथा उस के पूर्व हुए परिणामों में भी स्थित रहता है। इस प्रकार एक उपादान-प्रकृति को विविध नामरूपों में परिणत करना, -सर्वव्यापक परमेश्वर के नानाविध वीर्यो अर्थात् सामर्थ्यों का काम है, "तवेद् बहुधा वीर्याणि। मन्त्र में इस नानाविध नामरूपों को परमेश्वर का सामर्थ्यरूप कहा है। इस भावना को "नामरूपे व्याकरवाणि" (छान्दो० उप० अध्याय ६, खं० ३) में भी कहा है। मन्त्र में यह दर्शाया है कि वस्तु के वर्तमान स्वरूप में उस के पूर्ववर्ती परिणामों तथा भविष्यत् में होने वाले परिणामों की स्थिति भी अनभिव्यक्तावस्था में रहती है, जिन का कि ज्ञान योगी के सूक्ष्मप्रवेशी चित्त द्वारा योगी को हो जाता है। बच्चा जब पैदा होता है तब उस के वर्तमान चित्त में भी पूर्वजन्म के भूतकाल के परिणाम संस्कार रूप में रहते हैं, तथा भविष्यत् काल में उद्भूत होनेवाले परिणामों के अर्थात् भावीपरिणामों के संस्कार भी अनुद्भूतावस्था में रहते हैं। इसी प्रकार अन्य वस्तुओं की भी स्थिति है। इस सिद्धान्त को "सनं सर्वरूप"---इस महाव्यापी नियम द्वारा भी प्रकट किया जाता है ॥ २. मन्त्रोक्त भावना की परिपुष्टि में निम्नलिखित, योगदर्शन के सूत्रों को देखना चाहिये। यथां "अतीतानागतं‌ स्वरूपतोऽस्त्यध्वभेदाद्धर्माणाम्‌ ॥ ते व्यक्तसूक्ष्मा‌ः गुणात्मानः‌ ॥ परिणामैकत्वाद्वस्तुतत्त्वम्‌ ।। तदा सर्वावरणमलापेतस्य‌ ज्ञानस्यानन्त्याज्ज्ञेयमल्पम्‌" ।। (योग ४।१२, १३, १४, ३१)। तथा---- “सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च ॥ तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयम् अक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम्" (योग ३।४६, ५४) ॥]

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    विषय

    अभ्युदय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (सत्) सत् रूप से प्रतीत होने वाला यह व्यक्त संसार (असति*) असत्, अव्यक्त में (प्रतिष्ठितम्) प्रतिष्ठित है, आश्रित है। अथवा (असति) ‘असत्’ अविद्यमान, क्षणभंगुर इस प्राकृतिक जगत् में (सत्) निरन्तर एक रस रहने वाला, सदाविद्यमान ‘सत्’ हो (प्रतिष्ठितम्) सबसे प्रतिष्ठित है, वह सर्वोच्च अधिष्ठातृ रूप पद पर स्थित है। (सति) ‘सत्’ सदा विद्यमान, सत्य विनाशी परमेश्वर पर (भूतम् प्रतिष्ठितम्) यह उत्पन्न संसार आश्रित है। (भूतम्) यह उत्पन्न हुआ संसार, ‘भूत’ (भव्ये) आगे होने वाले भविष्य पर (आहितम्) आश्रित है। और (भव्यम्) अर्थात् ‘भव्य’ भविष्यत् जो होगा वह (भूते) भूत, गुजरे हुए काल पर (प्रतिष्ठितम्) प्रतिष्ठित है। (विष्णो ! तव इत् बहुधा वीर्याणि) हे व्यापक परमात्मन् ! तेरे ही बहुत प्रकार के वीर्य, सामर्थ्य हैं। (त्वं विश्वरूपैः पशुभिः पृणीहि) तू हमें सब प्रकार के पशुओं से पूर्ण कर। (सुधायां परमे व्योमन् मा धेहि) उत्तम रूपसे धारण करने योग्य, सर्वोत्तम, अमृतस्वरूप परम रक्षास्थान, मोक्ष में मुझे रख। अथवा—असत्, प्रधान, प्रकृति में, ‘सत्’ व्यक्त, महत्तत्व आश्रित है। उस ‘सत्’ में ‘भूत’, पांचों तत्व आश्रित हैं। वह पांचों भूत ही ‘भव्य’ अर्थात् उत्पन्न होने वाले कार्य जगत् में प्रतिष्ठित हैं। और यह सर्व कार्य जगत् ‘भूत’ अपने कारणभूत सूक्ष्म पञ्च भूतों में आश्रित है। ये सब भी परमेश्वर के ही नाना आश्चर्यकारी कार्य हैं।

    टिप्पणी

    ‘भव्याहितम्’ इति पैप्प० सं०। * ‘असत्’ शब्देन निरस्तसमस्तोपाधिकं सन्मात्रं ब्रह्म अभिधीयते नामरूपाद्यभावेन चक्षुराद्यविषयत्वेन द्रष्टुमर्हत्वात्। अथवा अनुभूतोद्भवाभिवं गुणत्रयसाम्यावस्थालक्षणं प्रधानमुच्यते। तस्यविकृतिरूपताभावात्। इति सायणः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्माऋषिः। आदित्यो देवता। १ जगती १-८ त्र्यवसाना, २-५ अतिजगत्यः ६, ७, १९ अत्यष्टयः, ८, ११, १६ अतिधृतयः, ९ पञ्चपदा शक्वरी, १०, १३, १६, १८, १९, २४ त्र्यवसानाः, १० अष्टपदाधृतिः, १२ कृतिः, १३ प्रकृतिः, १४, १५ पञ्चपदे शक्कर्यौ, १७ पञ्चपदाविराडतिशक्वरी, १८ भुरिग् अष्टिः, २४ विराड् अत्यष्टिः, १, ५ द्विपदा, ६, ८, ११, १३, १६, १८, १९, २४ प्रपदाः, २० ककुप्, २७ उपरिष्टाद् बृहती, २२ अनुष्टुप्, २३ निचृद् बृहती (२२, २३ याजुष्यौद्वे द्विपदे), २५, २६ अनुष्टुप्, २७, ३०, जगत्यौ, २८, ३० त्रिष्टुभौ। त्रिंशदृचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    The Sat, constant Being, is transformed into Asat, the mutable Becoming. The Bhuta, generated and manifested world of mutable Becoming, is rooted in Sat, constant Being. Bhuta, what is, is already there in what is to be, in the Bhavya, and the Bhavya, what is to be, is rooted in Bhuta, what is and what has been. (In other words, the world of past, present and future is integrated, simultaneous and constant. Being transforms into Becoming, and Becoming is Being in the essence. Being and Becoming, Sat and Asat, three variations of time, what has been, what is, and what is yet to be, all these variations are but different facets of the same, one, constant reality. Constancy and Mutability are essentially one and the same). Lord Vishnu, wondrous infinite are your powers and exploits. Pray bless us with fulfilment of our mission in this world of change, and with universal forms of perception and vision of the One Constant in the many mutables establish us in the nectar joy of immutable immortality in the highest regions of Divinity.

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    Translation

    In the non-existent the existent is established; in the existent the past and the present is established; the past and the present is established in the future; the future is established in the past and the present; O pervading Lord, manifold, indeed, are your valours. May you enrich us with cattle of all sorts. May you put me in comfort and happiness in the highest heaven.

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    Translation

    Sat, the manifested world have its original base on Asata, the unmanifested material cause; the dealing of Bhuta, the past (past time) depends on the world of manifestation; the past indeed depend on future (in correlation) and future on the, past (i. e. the past, future and present are related and this relaton is time which is based on the manifested world) O All-pervading Lorn your activities are manifold, please oblige me with cattle of all forms and place me in bliss under your dignified pervasiveness.

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    Translation

    In the impermanent world exists theVPermanent God. On Immortal God depends this transitory world. Past is imposed on future, future is based on the past. Manifold are Thy great deeds, Thine, O God! Sate us with creatures off all forms and colors, set me in happiness in the loftiest position.

    Footnote

    Past and Future are interlinked. The future of a nation depends upon the inspiration it derives from its glorious past. The examples of virtue, valour and nobility of character. set by the ancients serves as land-marks for future posterity. The past of a country has a hand in shaping its future.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १९−(असति) अस सत्तायाम्-शतृ। अनित्ये कार्ये (सत्)नित्यमादिकारणं परब्रह्म-ओंतत्सदिति निर्देशात् (प्रतिष्ठितम्) प्रतीत्यास्थितम् (सति) नित्ये ब्रह्मणि (भूतम्) सत्तायुक्तं जगत्। पृथिव्यादिभूतपञ्चकम्(प्रतिष्ठितम्) (भूतम्) अतीतम् (ह) निश्चयेन (भव्ये) भविष्यति (आहितम्)स्थापितम् (भव्यम्) भविष्यत् (भूते) अतीते। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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